संविधान के अनुच्छेद 155 के तहत राष्ट्रपति किसी भी राज्य के कार्यपालिका के प्रमुख राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करता है । आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल श्री नारायण दत्त तिवारी के कारनामो को देखने के बाद कार्यपालिका की भी स्तिथि साफ़ होती नजर आ राही है । झारखण्ड के मुख्यमंत्री श्री मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार के मामले आने के बाद वहां भी राज्यपाल श्री शिब्ते रजी के ऊपर उंगलियाँ उठी थी । राज्यपाल की भूमिका पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं । इस पद का इस्तेमाल केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने वयोवृद्ध नेताओं को राज्यपाल नियुक्त कर उनको जीवन पर्यंत जनता के टैक्स से आराम करने की सुविधा देता है । इन राज्यपालों के खर्चे व शानो शौकत राजा रजवाड़ों से भी आगे होती है । लोकतंत्र में जनता से वसूले करों का दुरपयोग नहीं होना चाहिए लेकिन आजादी के बाद से राज्यपाल पद विवादास्पद रहा है । जरूरत इस बात की है कि ईमानदारी के साथ राज्यपाल पद की समीक्षा की जाए । अच्छा तो यह होगा की इस पद की कोई उपयोगिता राज्यों में बची नहीं है इसको समाप्त कर दिया जाए ।
सुमन
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एसी रंगीनियों की खबरें तो दशकों से उड़ती रही हैं अलबत्ता देखने का सबब पहला-पहला है
आपकी बात सही है मगर ये करेगा कौन? इस देश की विडम्बना है कि सब कुछ नेताओं के लिये ही है। हम और आप केवल एक दूसरे से कह सुन ही सकते हैं लिख सकते हैं मगर सुनता कौन है। जिन्हें सुनना है वो तो ए सी कमरों मे बन्द बैठे हैं । धन्यवाद
बात तो सही है पर होना नही है ऐसा कभी....