क्या इसे ‘वर्चुअल कम्युनलिज़्म‘ का नाम दिया जा सकता है ? virtual communalism
‘अपने महबूब की हर शै प्यारी होती है।‘
यह एक सिद्धांत है। हर ज़बान में बहुत सी कहावतें इस सिद्धांत को बयान करती हुई आपको मिल जाएंगी। हिंदी में भी ऐसी कहावतें और नीति वचन पाए जाते हैं लेकिन मुझे ताज्जुब होता है यह देखकर कि लोग देश की अखंडता की बात करते हैं और बिहारियों की पिटाई भी कर देते हैं। मुंबई की तो जाने दीजिए, दिल्ली में भी दूसरे प्रदेशों से आए ग़रीबों को जुर्म का मूल बता दिया जाता है और विरोध होते देखकर फिर उस बयान से पल्ला भी झाड़ लिया जाता है। मंत्रियों की जाने दीजिए, आम लोग भी आपको ‘बिहारी‘ शब्द को नीच और गंवार के अर्थों में या गाली के अर्थ में इस्तेमाल करते हुए मिल जाएंगे जबकि यही शब्द वे देवता और अवतार के लिए भी बोलते हैं।
क्या बिहार का होना कोई जुर्म है ?
सीता जी भी तो बिहार की ही थीं और महात्मा बुद्ध की प्रचार भूमि भी बिहार ही थी।
महावीर जैन से संबंध रखने वाली पावापुरी भी बिहार में ही है।
जिस ज़मीन पर ऐसी हस्तियों ने क़दम रखा हो, अगर आज उस ज़मीन के बाशिंदों के सामने कोई समस्या है तो उसे दूर करने में हमें उनकी मदद करनी चाहिए। यह क्या कि बिहार की सीता जी को तो भगवान मान रहे हैं और उनके सामने तो हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं और उनके इलाक़े से आए अपने ही भाईयों को अपने बराबर भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
जब सेम संस्कृति वाले अपने ही भाईयों के लिए संवेदनहीनता है तो फिर अपने से थोड़ा भिन्न मुसलमानों के लिए यह संवेदनहीनता और भी ज़्यादा हो तो क्या ताज्जुब है ?
हिंदू भाईयों के मंदिरों में आजकल एक मुसलमान की मूर्ति भी देखी जा सकती है, जिसे शिरडी के साईं बाबा के नाम से जाना जाता है। बहुत से दूसरे मुसलमान पीरों के मज़ारों पर भी उन्हें मत्था टेकते देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि हम इनका सम्मान करते हैं। सम्मान करना अच्छी बात है, लेकिन उनका भी तो किया जाना चाहिए जो कि इन पीरों का सम्मान करते हैं और इनके मिशन को लेकर चल रहे हैं। लेकिन नहीं, उनका विरोध किया जाता है, कोई उनकी जड़ें डायरेक्ट काटता है और कोई उनमें मठ्ठा डालता है। उनमें कोई खुलकर विरोध करता है और कोइ छिपकर और जो ज़्यादा चतुर होते हैं वे साथ मिले होते हैं और मिलकर वार करते हैं।
जो काम विश्व के और खुद भारत के भी महापुरूषों ने किया है। वही काम इस नाचीज़ बंदे ने शुरू किया तो लोगों ने भी वही किया जो कि उन महापुरूषों के साथ ज़ालिमों ने किया था। लोग उन महापुरूषों की पूजा करते रहे, उन्हें सम्मान देते रहे और उनके काम को आगे बढ़ाने वालों का अपमान करते रहे, विरोध करते रहे केवल इसलिए कि झूठ के आदी लोग सच को सुनना नहीं चाहते थे।
मुझे सलाह दी गई कि आप दूसरे धर्मों का विरोध न किया करें, उनमें कमियां न निकाला करें। अव्वल तो मैं धर्म को न तो दो मानता हूं और न ही दूसरा और इसीलिए कमी भी नहीं मानता लेकिन अगर शिकायत करने वालों के नज़रिए से ही देखा जाए तो भाई शाहनवाज़ और ज़ीशान ज़ैदी तो मेरी तरह नहीं लिखते। उनका विरोध क्यों किया जाता है ?
बेचारे महफ़ूज़ भाई भी एक जगह मुझे अपने साथ बदसुलूकी की शिकायत करते हुए मिले। एक ब्लॉगर उन पर लड़कियों को फांसने का इल्ज़ाम लगाते हुए मिला।
भाई आखि़र आप किस वैरायटी के मुसलमान से मुतमईन होओगे ?
वेद कुरआन की पोस्ट्स से लोगों को शिकायतें थीं तो मैंने कहा कि भाई इस्लाम के विरोध में लिखी हुई पोस्ट्स मिटाकर आ जाईये और फिर मुझसे जितनी पोस्ट्स कहेंगे, मैं उन्हें मिटा दूंगा।
लोग नहीं माने, कोई नहीं आया।
मैंने कहा कि आप ब्लागर्स के लिए एक आदर्श आचार संहिता तैयार कर लीजिए। दूसरों से पहले मैं उसका पालन करूंगा।
लोग इसके लिए भी नहीं माने।
फिर मैंने यह तक कह दिया कि अगर कोई भी भाई मेरे ब्लाग पर ऐसी कोई बात देखता है जो मैंने किसी भारतीय महापुरूष से हटकर पहली बार कही हो और उससे वे इत्तेफ़ाक़ न रखते हों तो मैं उसे भी डिलीट कर दूंगा लेकिन...
कोई आज तक नहीं आया बताने के लिए।
मैं ज़्यादातर अपने ही ब्लाग पर मसरूफ़ रहता था और दूसरी जगहों पर जाना कम ही होता था। इसी दरम्यान एक ब्लाग आया ‘अमन का पैग़ाम‘। एक लंबे अर्से तक इस पर मैं जा ही नहीं पाया और कभी गया भी तो इसका हक़ अदा न कर पाया, यानि साथ न दे पाया। कुछ वक्त से इस ब्लाग को देखना शुरू किया तो ‘अजब ब्लागजगत की ग़ज़ब कहानी‘ सामने आई। इसे हमारे बीच लेकर आए जनाब मासूम साहब, जो कि इंग्लिश की दुनिया के एक तजुर्बेकार ब्लागर हैं और हिन्दी और हिंदुस्तानियों की सेवा के मक़सद से अच्छे विचार लेकर हिंदी दुनिया में तशरीफ़ लाए। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो मैंने किया लेकिन उन्हें भी निशाने पर ले लिया गया। उनके भोजन को निशाना बनाकर कह दिया गया कि वे अमन का पैग़ाम दे ही नहीं सकते। जिन्होंने उन पर आरोप लगाया, उनके साथ सुनार से लेकर लुहार तक सब इकठ्ठा हो गए और बेचारे मासूम भाई लोगों से यही कहते रहे कि भाई किसी को ‘अमन के पैग़ाम‘ से कोई शिकायत हो तो कृप्या यहां दर्ज कराएं।‘
मेरे पास कोई नहीं आया तो उनके पास भला कौन जाता ?
उन्होंने अपने लेख कम कर दिए और दूसरे ब्लागर्स के लेख छापने शुरू कर दिए। उनका मक़सद अमन था लेकिन अमन के दुश्मनों का मक़सद तो उनका दमन था।
उनकी अपील के बावजूद उनके ब्लाग पर लिखने के लिए बड़े नाम भी कम ही आए और जो लेख छपे उन पर टिप्पणी करने तो और भी कम आए।
जिन लेखकों ने अब तक लिखा है, उनके नामों पर एक नज़र डालकर आप यह बात आसानी से जान सकते हैं।
समीर लाल (उड़नतश्तरी, पूजा शर्मा , शाहनवाज़ ,. राजेन्द्र स्वर्णकार बीकानेर , .अमित शर्मा, इस्मत जैदी, देवेन्द्र पाण्डेय, तारकेश्वर गिरि, अंजना . स.म.मासूम, विवेक रस्तोगी, -अलबेला खत्री, अजय कुमार झा, संजय भास्कर,. निर्मला कपिला. केवल राम, . सतीश सक्सेना,
हो सकता है कि कोई बड़ा नाम मुझसे रह गया हो।
आख़िर मासूम साहब को ‘अमन के पैग़ाम‘ पर भी देश की हितचिंता में घुलने वालों का सपोर्ट कम क्यों मिला ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे एक मुसलमान हैं ?
मुसलमान होने की क़ीमत सिर्फ़ उन्हें ही नहीं चुकानी पड़ी बल्कि उन ब्लागर्स को भी चुकानी पड़ी, जिन्होंने उनका साथ दिया। जनाब सतीश सक्सेना साहब का नाम भी उनमें से एक है।
जनाब सतीश साहब जब अपने ब्लाग पर पोस्ट रिलीज़ करते हैं तो एग्रीगेटर के ठप्प होने के बावजूद टिप्पणियां 100 से ऊपर कूद जाती हैं। जब यही हरदिल अज़ीज़ हस्ती ‘अमन के पैग़ाम‘ पर एक बेहतरीन संदेश देती है तो 10-12 टिप्पणियां मिलना भी मुश्किल हो जाता है।
यह सब देखकर मैं वाक़ई आहत हुआ। सतीश जी मेरे विरोधियों में से एक हैं लेकिन मैं उनका विरोधी नहीं हूं। मैं किसी का भी विरोधी नहीं हूं। बस, जिस बात को ग़लत समझता हूं उस पर चुप नहीं रहता। मैं यह नहीं देखता कि यह तो स्टार ब्लागर है, या यह तो महिला है या यह तो मुसलमान ही है।
अल्फ़ा मेल प्रिय प्रवीण जी गवाह हैं कि सलीम ख़ान साहब की एक पोस्ट पर उन्होंन प्रतिवाद किया और मैं पहला आदमी था जिसने कहा कि प्रवीण जी की शिकायत दुरूस्त है और सलीम भाई की ग़लती है और सलीम भाई ने अपनी ग़लती मानी और उस पोस्ट को डिलीट भी किया।
लेकिन मैंने यह नहीं सोचा कि अब प्रवीण जी से सैटिंग बढ़िया हो गई है अब इनका विरोध नहीं करूंगा। जब कभी उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर या उसके न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगाया मैंने उन्हें खरी भी सुनाई और खोटी भी। लेकिन यह उनकी तारीफ़ है कि न उन्होंने बुरा माना और न संवाद बंद किया , नास्तिक होने के बावजूद मैं उन्हें पसंद करता हूं और प्यार करता हूं।
प्यार तो मैं जनाब सतीश जी से भी करता हूं। उनसे मेरे संबंध बहुत मधुर थे लेकिन एक दिन मैंने अपने लिए नहीं बल्कि किसी और के लिए उनके विचार-कलश पर गुलेल चला दी। बस, उस दिन से वे हमसे ख़फ़ा हो गए। इस मामले में उन्हें प्रिय प्रवीण जी से कुछ बेहतर सीखने को मिल सकता है। लेकिन वे जज़्बाती आदमी हैं, मेरे वालिद भी एक जज़्बाती आदमी हैं। मैं जानता हूं कि जज़्बाती आदमी ज़्यादा देर तक अपनों से रूठकर नहीं रह सकता।
... और दूसरों की जाने दीजिए मैं तो ख़ुद अपने को ही नहीं बख्शता और न ही खुद पर चोट करने से बाज़ आता हूं। मैंने अपने ब्लाग ‘मन की दुनिया‘ पर एक कहानी लिखी थी ‘सदा सहिष्णु भारत‘। कहानी अपनी हदें लांघकर जनाब अरविंद मिश्रा जी के सम्मान पर चोट करने लगी। यह एक खुली हुई चूक थी। मेरे करमफ़रमाओं ने ऐतराज़ भी जताया । मैंने तुरंत मिश्रा जी से माफ़ी मांगी, उस कहानी को डिलीट किया और अपनी सज़ा के तौर पर उस पोस्ट पर मिली हुई टिप्पणियों को आज तक बाक़ी रखा हुआ है।
ग़लती ग़लती है। चाहे वह मेरी हो या मेरे किसी भाई की या मेरे किसी बुजुर्ग की। ग़लतियों को हमारे अंदर बाक़ी नहीं रहना चाहिए। यह लेख भी इसी उद्देश्य से लिखा जा रहा है।
सोचने वालों को सोचना चाहिए कि जनाब सतीश सक्सेना जी तो ज्यों के त्यों वही हैं जो कि वे अपने ब्लाग पर हैं, बदला है तो केवल उनका ब्लाग। उनकी पोस्ट ‘मेरे गीत‘ पर आती है तो टिप्पणियां 100 और उनकी पोस्ट ‘अमन के पैग़ाम‘ पर आती है तो बमुश्किल 10 , आख़िर क्यों ?
क्या इसे ‘वर्चुअल कम्युनलिज़्म‘ का नाम दिया जा सकता है ?
यह क्या बात है कि ‘अमन का पैग़ाम‘ भी ब्लागजगत के स्वयंभू मठाधीशों को गवारा नहीं है, अगर वह किसी मुसलमान द्वारा दिया जा रहा है तो ...
न उसे टिप्पणियां दी जाएंगी और न ही उसका चर्चा ब्लागजगत के लोकप्रिय ब्लाग्स में ही किया जाएगा। अगर आप सराहना के दो शब्द भी नहीं दे सकते तो फिर आप और कुछ क्या दे पाएंगे।
वर्ष 2010 जा रहा है और नया साल आ रहा है।
क्या नये साल में भी आप मुसलमानों के साथ अपने तास्सुब का यही बर्ताव जारी रखेंगे या फिर अपने मन को विकार से मुक्त करेंगे ?
आप क्या करेंगे ? , यह फ़ैसला आपको ही करना होगा।
इसी के साथ मैं अपने व्यक्तित्व और विचारों की आलोचना और समीक्षा भी सादर आमंत्रित करता हूं।
कोई खुद को किसी भी हाल में रखे लेकिन मुझे अपने अंदर कोई कमी गवारा नहीं है क्योंकि मुझे मरना है और दूसरे लोक में जैसा व्यक्तित्व लेकर मैं जाऊंगा, उसे लेकर मुझे अनंत काल तक जीना है। अपूर्ण व्यक्तित्व लेकर मैं इस जग से जाना नहीं चाहता। जो भी मेरी आलोचना करेगा, मुझ पर उपकार ही करेगा।
संवाद का उद्देश्य आत्म विकास ही होना चाहिए।
आत्मावलोकन का उद्देश्य भी यही होता है।
आईये कुछ सार्थक करें, कम से कम वर्षांत में ही सही।
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Anwer Jamal |
क्या बिहार का होना कोई जुर्म है ?
सीता जी भी तो बिहार की ही थीं और महात्मा बुद्ध की प्रचार भूमि भी बिहार ही थी।
महावीर जैन से संबंध रखने वाली पावापुरी भी बिहार में ही है।
जिस ज़मीन पर ऐसी हस्तियों ने क़दम रखा हो, अगर आज उस ज़मीन के बाशिंदों के सामने कोई समस्या है तो उसे दूर करने में हमें उनकी मदद करनी चाहिए। यह क्या कि बिहार की सीता जी को तो भगवान मान रहे हैं और उनके सामने तो हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं और उनके इलाक़े से आए अपने ही भाईयों को अपने बराबर भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
जब सेम संस्कृति वाले अपने ही भाईयों के लिए संवेदनहीनता है तो फिर अपने से थोड़ा भिन्न मुसलमानों के लिए यह संवेदनहीनता और भी ज़्यादा हो तो क्या ताज्जुब है ?
हिंदू भाईयों के मंदिरों में आजकल एक मुसलमान की मूर्ति भी देखी जा सकती है, जिसे शिरडी के साईं बाबा के नाम से जाना जाता है। बहुत से दूसरे मुसलमान पीरों के मज़ारों पर भी उन्हें मत्था टेकते देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि हम इनका सम्मान करते हैं। सम्मान करना अच्छी बात है, लेकिन उनका भी तो किया जाना चाहिए जो कि इन पीरों का सम्मान करते हैं और इनके मिशन को लेकर चल रहे हैं। लेकिन नहीं, उनका विरोध किया जाता है, कोई उनकी जड़ें डायरेक्ट काटता है और कोई उनमें मठ्ठा डालता है। उनमें कोई खुलकर विरोध करता है और कोइ छिपकर और जो ज़्यादा चतुर होते हैं वे साथ मिले होते हैं और मिलकर वार करते हैं।
जो काम विश्व के और खुद भारत के भी महापुरूषों ने किया है। वही काम इस नाचीज़ बंदे ने शुरू किया तो लोगों ने भी वही किया जो कि उन महापुरूषों के साथ ज़ालिमों ने किया था। लोग उन महापुरूषों की पूजा करते रहे, उन्हें सम्मान देते रहे और उनके काम को आगे बढ़ाने वालों का अपमान करते रहे, विरोध करते रहे केवल इसलिए कि झूठ के आदी लोग सच को सुनना नहीं चाहते थे।
मुझे सलाह दी गई कि आप दूसरे धर्मों का विरोध न किया करें, उनमें कमियां न निकाला करें। अव्वल तो मैं धर्म को न तो दो मानता हूं और न ही दूसरा और इसीलिए कमी भी नहीं मानता लेकिन अगर शिकायत करने वालों के नज़रिए से ही देखा जाए तो भाई शाहनवाज़ और ज़ीशान ज़ैदी तो मेरी तरह नहीं लिखते। उनका विरोध क्यों किया जाता है ?
बेचारे महफ़ूज़ भाई भी एक जगह मुझे अपने साथ बदसुलूकी की शिकायत करते हुए मिले। एक ब्लॉगर उन पर लड़कियों को फांसने का इल्ज़ाम लगाते हुए मिला।
भाई आखि़र आप किस वैरायटी के मुसलमान से मुतमईन होओगे ?
वेद कुरआन की पोस्ट्स से लोगों को शिकायतें थीं तो मैंने कहा कि भाई इस्लाम के विरोध में लिखी हुई पोस्ट्स मिटाकर आ जाईये और फिर मुझसे जितनी पोस्ट्स कहेंगे, मैं उन्हें मिटा दूंगा।
लोग नहीं माने, कोई नहीं आया।
मैंने कहा कि आप ब्लागर्स के लिए एक आदर्श आचार संहिता तैयार कर लीजिए। दूसरों से पहले मैं उसका पालन करूंगा।
लोग इसके लिए भी नहीं माने।
फिर मैंने यह तक कह दिया कि अगर कोई भी भाई मेरे ब्लाग पर ऐसी कोई बात देखता है जो मैंने किसी भारतीय महापुरूष से हटकर पहली बार कही हो और उससे वे इत्तेफ़ाक़ न रखते हों तो मैं उसे भी डिलीट कर दूंगा लेकिन...
कोई आज तक नहीं आया बताने के लिए।
मैं ज़्यादातर अपने ही ब्लाग पर मसरूफ़ रहता था और दूसरी जगहों पर जाना कम ही होता था। इसी दरम्यान एक ब्लाग आया ‘अमन का पैग़ाम‘। एक लंबे अर्से तक इस पर मैं जा ही नहीं पाया और कभी गया भी तो इसका हक़ अदा न कर पाया, यानि साथ न दे पाया। कुछ वक्त से इस ब्लाग को देखना शुरू किया तो ‘अजब ब्लागजगत की ग़ज़ब कहानी‘ सामने आई। इसे हमारे बीच लेकर आए जनाब मासूम साहब, जो कि इंग्लिश की दुनिया के एक तजुर्बेकार ब्लागर हैं और हिन्दी और हिंदुस्तानियों की सेवा के मक़सद से अच्छे विचार लेकर हिंदी दुनिया में तशरीफ़ लाए। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो मैंने किया लेकिन उन्हें भी निशाने पर ले लिया गया। उनके भोजन को निशाना बनाकर कह दिया गया कि वे अमन का पैग़ाम दे ही नहीं सकते। जिन्होंने उन पर आरोप लगाया, उनके साथ सुनार से लेकर लुहार तक सब इकठ्ठा हो गए और बेचारे मासूम भाई लोगों से यही कहते रहे कि भाई किसी को ‘अमन के पैग़ाम‘ से कोई शिकायत हो तो कृप्या यहां दर्ज कराएं।‘
मेरे पास कोई नहीं आया तो उनके पास भला कौन जाता ?
उन्होंने अपने लेख कम कर दिए और दूसरे ब्लागर्स के लेख छापने शुरू कर दिए। उनका मक़सद अमन था लेकिन अमन के दुश्मनों का मक़सद तो उनका दमन था।
उनकी अपील के बावजूद उनके ब्लाग पर लिखने के लिए बड़े नाम भी कम ही आए और जो लेख छपे उन पर टिप्पणी करने तो और भी कम आए।
जिन लेखकों ने अब तक लिखा है, उनके नामों पर एक नज़र डालकर आप यह बात आसानी से जान सकते हैं।
समीर लाल (उड़नतश्तरी, पूजा शर्मा , शाहनवाज़ ,. राजेन्द्र स्वर्णकार बीकानेर , .अमित शर्मा, इस्मत जैदी, देवेन्द्र पाण्डेय, तारकेश्वर गिरि, अंजना . स.म.मासूम, विवेक रस्तोगी, -अलबेला खत्री, अजय कुमार झा, संजय भास्कर,. निर्मला कपिला. केवल राम, . सतीश सक्सेना,
हो सकता है कि कोई बड़ा नाम मुझसे रह गया हो।
आख़िर मासूम साहब को ‘अमन के पैग़ाम‘ पर भी देश की हितचिंता में घुलने वालों का सपोर्ट कम क्यों मिला ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे एक मुसलमान हैं ?
मुसलमान होने की क़ीमत सिर्फ़ उन्हें ही नहीं चुकानी पड़ी बल्कि उन ब्लागर्स को भी चुकानी पड़ी, जिन्होंने उनका साथ दिया। जनाब सतीश सक्सेना साहब का नाम भी उनमें से एक है।
जनाब सतीश साहब जब अपने ब्लाग पर पोस्ट रिलीज़ करते हैं तो एग्रीगेटर के ठप्प होने के बावजूद टिप्पणियां 100 से ऊपर कूद जाती हैं। जब यही हरदिल अज़ीज़ हस्ती ‘अमन के पैग़ाम‘ पर एक बेहतरीन संदेश देती है तो 10-12 टिप्पणियां मिलना भी मुश्किल हो जाता है।
यह सब देखकर मैं वाक़ई आहत हुआ। सतीश जी मेरे विरोधियों में से एक हैं लेकिन मैं उनका विरोधी नहीं हूं। मैं किसी का भी विरोधी नहीं हूं। बस, जिस बात को ग़लत समझता हूं उस पर चुप नहीं रहता। मैं यह नहीं देखता कि यह तो स्टार ब्लागर है, या यह तो महिला है या यह तो मुसलमान ही है।
अल्फ़ा मेल प्रिय प्रवीण जी गवाह हैं कि सलीम ख़ान साहब की एक पोस्ट पर उन्होंन प्रतिवाद किया और मैं पहला आदमी था जिसने कहा कि प्रवीण जी की शिकायत दुरूस्त है और सलीम भाई की ग़लती है और सलीम भाई ने अपनी ग़लती मानी और उस पोस्ट को डिलीट भी किया।
लेकिन मैंने यह नहीं सोचा कि अब प्रवीण जी से सैटिंग बढ़िया हो गई है अब इनका विरोध नहीं करूंगा। जब कभी उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर या उसके न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगाया मैंने उन्हें खरी भी सुनाई और खोटी भी। लेकिन यह उनकी तारीफ़ है कि न उन्होंने बुरा माना और न संवाद बंद किया , नास्तिक होने के बावजूद मैं उन्हें पसंद करता हूं और प्यार करता हूं।
प्यार तो मैं जनाब सतीश जी से भी करता हूं। उनसे मेरे संबंध बहुत मधुर थे लेकिन एक दिन मैंने अपने लिए नहीं बल्कि किसी और के लिए उनके विचार-कलश पर गुलेल चला दी। बस, उस दिन से वे हमसे ख़फ़ा हो गए। इस मामले में उन्हें प्रिय प्रवीण जी से कुछ बेहतर सीखने को मिल सकता है। लेकिन वे जज़्बाती आदमी हैं, मेरे वालिद भी एक जज़्बाती आदमी हैं। मैं जानता हूं कि जज़्बाती आदमी ज़्यादा देर तक अपनों से रूठकर नहीं रह सकता।
... और दूसरों की जाने दीजिए मैं तो ख़ुद अपने को ही नहीं बख्शता और न ही खुद पर चोट करने से बाज़ आता हूं। मैंने अपने ब्लाग ‘मन की दुनिया‘ पर एक कहानी लिखी थी ‘सदा सहिष्णु भारत‘। कहानी अपनी हदें लांघकर जनाब अरविंद मिश्रा जी के सम्मान पर चोट करने लगी। यह एक खुली हुई चूक थी। मेरे करमफ़रमाओं ने ऐतराज़ भी जताया । मैंने तुरंत मिश्रा जी से माफ़ी मांगी, उस कहानी को डिलीट किया और अपनी सज़ा के तौर पर उस पोस्ट पर मिली हुई टिप्पणियों को आज तक बाक़ी रखा हुआ है।
ग़लती ग़लती है। चाहे वह मेरी हो या मेरे किसी भाई की या मेरे किसी बुजुर्ग की। ग़लतियों को हमारे अंदर बाक़ी नहीं रहना चाहिए। यह लेख भी इसी उद्देश्य से लिखा जा रहा है।
सोचने वालों को सोचना चाहिए कि जनाब सतीश सक्सेना जी तो ज्यों के त्यों वही हैं जो कि वे अपने ब्लाग पर हैं, बदला है तो केवल उनका ब्लाग। उनकी पोस्ट ‘मेरे गीत‘ पर आती है तो टिप्पणियां 100 और उनकी पोस्ट ‘अमन के पैग़ाम‘ पर आती है तो बमुश्किल 10 , आख़िर क्यों ?
क्या इसे ‘वर्चुअल कम्युनलिज़्म‘ का नाम दिया जा सकता है ?
यह क्या बात है कि ‘अमन का पैग़ाम‘ भी ब्लागजगत के स्वयंभू मठाधीशों को गवारा नहीं है, अगर वह किसी मुसलमान द्वारा दिया जा रहा है तो ...
न उसे टिप्पणियां दी जाएंगी और न ही उसका चर्चा ब्लागजगत के लोकप्रिय ब्लाग्स में ही किया जाएगा। अगर आप सराहना के दो शब्द भी नहीं दे सकते तो फिर आप और कुछ क्या दे पाएंगे।
वर्ष 2010 जा रहा है और नया साल आ रहा है।
क्या नये साल में भी आप मुसलमानों के साथ अपने तास्सुब का यही बर्ताव जारी रखेंगे या फिर अपने मन को विकार से मुक्त करेंगे ?
आप क्या करेंगे ? , यह फ़ैसला आपको ही करना होगा।
इसी के साथ मैं अपने व्यक्तित्व और विचारों की आलोचना और समीक्षा भी सादर आमंत्रित करता हूं।
कोई खुद को किसी भी हाल में रखे लेकिन मुझे अपने अंदर कोई कमी गवारा नहीं है क्योंकि मुझे मरना है और दूसरे लोक में जैसा व्यक्तित्व लेकर मैं जाऊंगा, उसे लेकर मुझे अनंत काल तक जीना है। अपूर्ण व्यक्तित्व लेकर मैं इस जग से जाना नहीं चाहता। जो भी मेरी आलोचना करेगा, मुझ पर उपकार ही करेगा।
संवाद का उद्देश्य आत्म विकास ही होना चाहिए।
आत्मावलोकन का उद्देश्य भी यही होता है।
आईये कुछ सार्थक करें, कम से कम वर्षांत में ही सही।