
डा श्याम गुप्त की कविता ...जाने कौन
जाने कौन
क्षितिज के आलिंगन में मौन,
न जाने छिपा हुआ वह कौन।
न जाना मैंने अब तक राज,
प्रणय का किये हुए सब साज़।
कौन है रह रह उठती याद,
मेरे अंतस्थल में निर्वाध ।
बुलाता करके वह संकेत,
प्रकृति का सुन्दर निरुपम वेष।
उमंगें उठातीं एक हिलोर,
न जिनका कोई ओर न छोर।
घुमड़ते बादल मानों केश
देखता रहा जिन्हें निर्निमेष ।
चमकती बिजली मानों दांत
चमकते हों पाकर कुछ भ्रान्ति।
मेघ गर्जन मानों मृदुहास
कराता प्रलय का आभास।
सप्तरंगी वासवी निषंग
वस्त्र से रंग विरंगे अंग।
बरस यह पड़े मेघ को चीर
बहा मानो नयनों से नीर।
ये रिमझिम नूपुर की झंकार
प्राण में हुआ जीव संचार।
सामने रहा न कुछ भी शेष
देखता रहा किन्तु अनिमेष।
लुप्त होगया सभी आकार
पड़ीं जब धारा मूसलधार॥
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क्षितिज के आलिंगन में मौन,
न जाने छिपा हुआ वह कौन।
न जाना मैंने अब तक राज,
प्रणय का किये हुए सब साज़।
कौन है रह रह उठती याद,
मेरे अंतस्थल में निर्वाध ।
बुलाता करके वह संकेत,
प्रकृति का सुन्दर निरुपम वेष।
उमंगें उठातीं एक हिलोर,
न जिनका कोई ओर न छोर।
घुमड़ते बादल मानों केश
देखता रहा जिन्हें निर्निमेष ।
चमकती बिजली मानों दांत
चमकते हों पाकर कुछ भ्रान्ति।
मेघ गर्जन मानों मृदुहास
कराता प्रलय का आभास।
सप्तरंगी वासवी निषंग
वस्त्र से रंग विरंगे अंग।
बरस यह पड़े मेघ को चीर
बहा मानो नयनों से नीर।
ये रिमझिम नूपुर की झंकार
प्राण में हुआ जीव संचार।
सामने रहा न कुछ भी शेष
देखता रहा किन्तु अनिमेष।
लुप्त होगया सभी आकार
पड़ीं जब धारा मूसलधार॥