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शनिवार, जनवरी 30, 2021
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विमर्श 
ऋतुएं और मौसम
*
ऋतु एक वर्ष से छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएँ एक खास प्रकार की होती हैं। यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है जिनके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि, तापमान, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएँ एक चक्रीय रूप में बदलती हैं। मौसम की दशाओं में वर्ष के दौरान इस चक्रीय बदलाव का प्रभाव पारितंत्र पर पड़ता है और इस प्रकार पारितंत्रीय ऋतुएँ निर्मित होती हैं यथा पश्चिम बंगाल में जुलाई से सितम्बर तक वर्षा ऋतु होती है, यानि पश्चिम बंगाल में जुलाई से अक्टूबर तक, वर्ष के अन्य कालखंडो की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। इसी प्रकार यदि कहा जाय कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक गृष्म ऋतु होती है, तो इसका अर्थ है कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक के महीने साल के अन्य समयों की अपेक्षा गर्म रहते हैं। एक ॠतु = २ मास। ऋतु साैर अाैर चान्द्र दाे प्रकार के हाेते हैं। धार्मिक कार्य में चन्द्र ऋतुएँ ली जाती हैं।
ऋतु चक्र-
भारत में मुख्यतः छः ऋतुएं मान्य हैं -१. वसन्त (Spring) चैत्र से वैशाख (वैदिक मधु अाैर माधव) मार्च से अप्रैल, २. ग्रीष्म (Summer) ज्येष्ठ से आषाढ (वैदिक शुक्र अाैर शुचि) मई से जून, ३. वर्षा (Rainy) श्रावन से भाद्रपद (वैदिक नभः अाैर नभस्य) जुलाई से सितम्बर, ४, शरद् (Autumn) आश्विन से कार्तिक (वैदिक इष अाैर उर्ज) अक्टूबर से नवम्बर, ५. हेमन्त (pre-winter) मार्गशीर्ष से पौष (वैदिक सहः अाैर सहस्य) दिसम्बर से 15 जनवरी, ६. शिशिर (Winter) माघ से फाल्गुन (वैदिक तपः अाैर तपस्य) 16 जनवरी से फरवरी।
ऋतु परिवर्तन का कारण पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर परिक्रमण और पृथ्वी का अक्षीय झुकाव है। पृथ्वी का डी घूर्णन अक्ष इसके परिक्रमा पथ से बनने वाले समतल पर लगभग 66.5 अंश का कोण बनता है जिसके कारण उत्तरी या दक्षिणी गोलार्धों में से कोई एक गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका होता है। यह झुकाव सूर्य के चारो ओर परिक्रमा के कारण वर्ष के अलग-अलग समय अलग-अलग होता है जिससे दिन-रात की अवधियों में घट-बढ़ का एक वार्षिक चक्र निर्मित होता है। यही ऋतु परिवर्तन का मूल कारण बनता है।
विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां समय-समय पर छः ऋतुएं (Six Types of Ritu) अपनी छटा बिखेरती हैं। प्रत्येक ऋतु दो मास की होती है।
चैत (Chaitra) और बैसाख़ (Baishakh) में बसंत ऋतु (Basant Ritu) अपनी शोभा का परिचय देती है। इस ऋतु को ऋतुराज (Rituraj) की संज्ञा दी गयी है। धरती का सौंदर्य इस प्राकृतिक आनंद के स्रोत में बढ़ जाता है। रंगों का त्यौहार होली बसंत ऋतु (Vasant) की शोभा को दुगना कर देता है। हमारा जीवन चारों ओर के मोहक वातावरण को देखकर मुस्करा उठता है।
ज्येष्ठ -आषाण ( ग्रीष्म ऋतु) में सू्र्य उत्तरायण की ओर बढ़ता है। ग्रीष्म ऋतु प्राणी मात्र के लिये कष्टकारी अवश्य है पर तप के बिना सुख-सुविधा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि गर्मी न पड़े तो हमें पका हुआ अन्न भी प्राप्त न हो।
श्रावण -भाद्र (वर्षा ऋतु) में मेघ गर्जन के साथ मोर नाचते हैं । तीज, रक्षाबंधन आदि त्यौहार (Festivals) इस ऋतु में आते हैं।
अश्विन (Ashvin) और कातिर्क (Kartik) के मास शरद ऋतु (Sharad Ritu) के मास हैं। शरद ऋतु प्रभाव की दृश्र्टि से बसंत ऋतु का ही दूसरा रुप है। वातावरण में स्वच्छता का प्रसार दिखा़ई पड़ता है। दशहरा (Dussehra) और दीपावली (Dipawali) के त्यौहार इसी ऋतु में आते हैं।
मार्गशीर्ष (Margshirsh) और पौष (Paush) हेमन्त ऋतु (Hemant Ritu) के मास हैं। इस ऋतु में शरीर प्राय स्वस्थ रहता है। पाचन शक्ति बढ़ जाती है।
माघ (Magh) और फाल्गुन (Falgun) शिशिर अर्थात पतझड़ (Shishir / Patjhar Ritu) के मास हैं। इसका आरम्भ मकर संक्राति (Makar Sankranti) से होता है। इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है।
भारत को भूलोक का गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस प्रकार ये ऋतुएं जीवन रुपी फलक के भिन्न- भिन्न दृश्य हैं, जो जीवन में रोचकता, सरसता और पूर्णता लाती हैं।
ऋतु और राग- शिशिर - भैरव, बसंत - हिंडोल, ग्रीष्म - दीपक, वर्षा - मेघ, शरद - मलकन, हेमंत - श्री।
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शनिवार, नवंबर 07, 2020
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शोध परक लेख :
अग्र सदा रहता सुखी 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*​
अग्र सदा रहता सुखी, अगड़ा कहते लोग
पृष्ठ रहे पिछड़ा 'सलिल', सदा मनाता सोग 
सब दिन जात न एक समान
मानव संस्कृति का इतिहास अगड़ों और पिछड़ों की संघर्ष कथा है. बाधा और संकट हर मनुष्य के जीवन में आते हैं, जो जूझकर आगे बढ़ गया वह 'अगड़ा' हुआ. इसके विपरीत जो हिम्मत हारकर पीछे रह गया 'पिछड़ा' हुआ. वर्तमान राजनीति में अगड़ों और पिछड़ों को एक दूसरे का विरोधी बताया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. वास्तव में वे एक दूसरे के पूरक हैं. आज का 'अगड़ा' कल 'पिछड़ा' और आज का 'पिछड़ा' कल 'अगड़ा' हो सकता है. इसीलिए कहते हैं- 'सब दिन जात न एक समान'. 
मन के हारे हार है 
जो मनुष्य भाग्य भरोसे बैठा रहता है उसे वह नहीं मिलता जिसका वह पात्र है. संस्कृत का एक श्लोक है- 
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:
.
उद्यम से ही कार्य सिद्ध हो, नहीं मनोरथ है पर्याप्त 
सोते सिंह के मुख न घुसे मृग, सत्य वचन यह मानें आप्त 
लोक में दोहा प्रचलित है-
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत 
अग्रधारा लक्ष्य पाती 
जो मन से नहीं हारते और निरंतर प्रयासरत होकर आगे आते हैं या नेतृत्व करते हैं वे ही समाज की अग्रधारा में कहे जाते हैं. हममें से हर एक को अग्रधारा में सम्मिलित होने का प्रयास करते रहना चाहिए. किसी धारा में असंख्य लहरें, लहर में असंख्य बिंदु और बिंदु में असंख्य परमाणु होते हैं. यहाँ सब अपने-अपने प्रयास और पुरुषार्थ से अपना स्थान बनाते हैं, कोई किसी का स्थान नहीं छीनता न किसी को अपना स्थान देता है. इसलिए न तो किसी से द्वेष करें न किसी के अहसान के तले दबकर स्वाभिमान गँवायें. 
अग्रधारा लक्ष्य पाती, पराजित होती नहीं 
कौन आगे कौन पीछे, देख ​पथ खोती नहीं 
​बहुउपयोगी अग्र है 
जो आगे रहेगा वह पीछे वालों का पथ-प्रदर्शक या मार्गदर्शक अपने आप बन जाता है. उसके संघर्ष, पराक्रम, उपलब्धि, जीवट, और अनुकरण अन्यों के लिए प्रेरक बन जाते हैं. इस तरह वह चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने अन्यों के साथ और अन्य उसके साथ जुड़ जाते हैं. 
बहुउपयोगी अग्र है, अन्य सदा दें साथ 
बढ़ा उसे खुद भी बढ़ें, रखकर ऊँचा माथ 
अग्र साथ दे सभी का 
आगे जाने के लिए आवश्यक यह है कि पीछे वालों को साथ लिया जाय तथा उनका साथ दिया जाय. कुशल नायक 'काम करो' नहीं कहता, वह 'आइये, काम करें' कहकर सबको साथ लेकर चलता और मंजिल वरता है. 
अग्र साथ दे सभी का, रखे सभी को संग 
वरण सफलता का करें, सभी जमे तब रंग
अन्य स्थानों की तरह शब्दकोष में भी अग्रधारा अग्र-स्थान ग्रहण करती है. ​आइये अग्र और अग्र के साथियों से मिलें-
​​अग्र- वि. सं. अगला, पहला, मुख्य, अधिक. अ. आगे. पु. अगला भाग, नोक, शिखर, अपने वर्ग का सबसे अच्छा पदार्थ, बढ़-चढ़कर होना, उत्कर्ष, लक्ष्य आरंभ, एक तौल, आहार की के मात्रा, समूह, नायक.
अग्रकर-पु. हाथ का अगला हिस्सा, उँगली, पहली किरण
​अग्रग- पु. नेता, नायक, मुखिया.
अग्रगण्य-वि. गिनते समय प्रथम, मुख्य, पहला. 
अग्रगामी/मिन-वि. आगे चलनेवाला. पु. नायक, अगुआ, स्त्री. अग्रगामिनी 
​अग्रदल-पु. फॉरवर्ड ब्लोक भारत का एक राजनैतिक दल जिसकी स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोसने की थी, सेना की अगली टुकड़ी अग्र ज-वि. पहले जन्मा हुआ, श्रेष्ठ. पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण, अगुआ.
​अग्रजन्मा/जन्मन-पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण.
अग्र जा-स्त्री. पहले पैदा हुई, बड़ी बहिन.
अग्र जात/ जातक -पु. पहले जन्मा, पूर्व जन्म का.
​अग्रजाति-स्त्री. ब्राम्हण.
अग्रजिव्हा-स्त्री. जीभ का अगला हिस्सा.
अग्रणी-वि. आगे चलनेवाला, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम. पु. नेता, अगुआ, एक अग्नि.
अग्रतर-वि. और आगे का, कहे हुए के बाद का, फरदर इ.
अग्रदाय-अग्रिम देय, पहले दिया जानेवाला, बयाना, एडवांस, इम्प्रेस्ट मनी.-दानी/निन- पु. मृतकके निमित्त दिया पदार्थ/शूद्रका दान ग्रहण करनेवाला निम्न/पतित ब्राम्हण,-दूत- पु. पहले से पहुँचकर किसी के आने की सूचना देनेवाला.-निरूपण- पु. भविष्य-कथन, भविष्यवाणी, भावी. -सुनहु भरत भावी प्रबल. राम.,
अग्रपर्णी/परनी-स्त्री. अजलोमा का वृक्ष.
अग्रपा- सबसे पहले पाने/पीनेवाला.-पाद- पाँव का अगला भाग, अँगूठा.
अग्रपूजा- स्त्री. सबसे पहले/सर्वाधिक पूजा/सम्मान.
अग्रपूज्य- वि. सबसे पहले/सर्वाधिक सम्मान.
अग्रप्रेषण-पु. देखें अग्रसारण.
अग्रप्रेषित-वि. पहले से भेजना, उच्चाधिकारी की ओर आगे भेजना, फॉरवर्डेड इ.-बीज- पु. वह वृक्ष जिसकी कलम/डाल काटकर लगाई जाए. वि. इस प्रकार जमनेवाला पौधा.
अग्रभाग-पु. प्रथम/श्रेष्ठ/सर्वाधिक/अगला भाग -अग्र भाग कौसल्याहि दीन्हा. राम., सिरा, नोक, श्राद्ध में पहले दी जानेवाली वस्तु.
अग्रभागी/गिन-वि. प्रथम भाग/सर्व प्रथम पाने का अधिकारी.
अग्रभुक/ज-वि. पहले खानेवाला, देव-पिटर आदि को खिलाये बिना खानेवाला, पेटू.
अग्रभू/भूमि-स्त्री. लक्ष्य, माकन का सबसे ऊपर का भाग, छत.
अग्रमहिषी-स्त्री. पटरानी, सबसे बड़ी पत्नि/महिला.-मांस-पु. हृदय/यकृत का एक रोग.
अग्रयान-पु. सेना की अगली टुकड़ी, शत्रु से लड़ने हेतु पहले जानेवाला सैन्यदल. वि. अग्रगामी. ​अग्रयायी/यिन वि. आगे बढ़नेवाला, नेतृत्व करनेवाला ​अग्रयोधी/धिन-पु. सबसे आगे बढ़कर लड़नेवाला, प्रमुख योद्धा.
​अग्रलेख- सबसे पहले/प्रमुखता से छपा लेख, सम्पादकीय, लीडिंग आर्टिकल इ. ​ अग्रलोहिता-स्त्री. चिल्ली शाक.
अग्रवक्त्र-पु. चीर-फाड़ का एक औज़ार.
अग्रवर्ती/तिन-वि. आगे रहनेवाला.
अग्रशाला-स्त्री. ओसारा, सामने की परछी/बरामदा, फ्रंट वरांडा इं.
अग्रसंधानी-स्त्री. कर्मलेखा, यम की वह पोथी/पुस्तक जिसमें जीवों के कर्मों का लिखे जाते हैं.
अग्रसंध्या-स्त्री. प्रातःकाल/भोर.
अग्रसर-वि. पु. आगेजानेवाला, अग्रगामी, अगुआ, प्रमुख, स्त्री. अग्रसरी 
अग्रसारण-पु. आगे बढ़ाना, अपनेसे उच्च अधिकारी की ओर भेजना, अग्रप्रेषण.
अग्रसारा-स्त्री. पौधे का फलरहित सिरा.
अग्रसारित-वि. देखें अग्रप्रेषित.
अग्रसूची-स्त्री. सुई की नोक, प्रारंभ में लगी सूची, अनुक्रमाणिका.
अग्रसोची-वि. समय से पहले/पूर्व सोचनेवाला, दूरदर्शी. अग्रसोची सदा सुखी मुहा.
अग्रस्थान-पहला/प्रथम स्थान.
अग्रहर-वि. प्रथम दीजानेवाली/देय वस्तु.
अग्रहस्त-पु. हाथ का अगला भाग, उँगली, हाथी की सूंड़ की नोक.
अग्रहायण-पु. अगहन माह,
अग्र​हार-पु. राजा/राज्य की प्र से ब्राम्हण/विद्वान को निर्वाहनार्थ मिलनेवाला भूमिदान, विप्रदान हेतु खेत की उपज से निकाला अन्न.
अग्रजाधिकार- पु. देखें ज्येष्ठाधिकार.
अग्रतः/तस- अ. सं. आगे, पहले, आगेसे.
अग्रवाल- पु. वैश्यों का एक वर्गजाति, अगरवाल.
अग्रश/अग्रशस/अग्रशः-अ. सं. आरम्भ से ही.
अग्रह- पु.संस्कृत ग्रहण न करना, गृहहीन, वानप्रस्थ.
अग्र ना होता जन्मना 
अग् होना सौभाग्य की बात है. भाग्य जन्म से मिलता है किन्तु सौभाग्य मनुष्य कर्म से अर्जित करता है. इसलिए अग्र होना या ना होना मनुष्य के पुरुषार्थ, कर्मों और कर्मों के पीछे छिपी नियत तथा दिशा पर निर्भर करता है.
अग्र न होता जन्मना, बने कर्मणा अग्र 
धीरज धर मत उग्र हों, और नहीं हों व्यग्र 
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​​संपर्क-२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com 
www.​divyanarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर
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विशेष लेख: 
नवगीतों में हरसिंगार 
डा० जगदीश व्योम
*
नवगीत को पसंद किया जा रहा है और नये लोग नवगीत सीखना चाहते हैं। नवगीत में नई कविता का कथ्य लयात्मकता की रेशमी डोर में आवद्ध होकर जब प्रस्तुत किया जाता है तो वह अपना ऐसा प्रभाव छोड़ता है जो पाठक या श्रोता को हरसिंगार की जादुई गंध की तरह से मोह लेता है। कुमार रवीन्द्र नवगीत लिखते हैं तो लगता है कि बात कर रहे हैं-
"उधर रूपसी धूप
नदी पर तैर रही है
इधर हवा ने
छुवन-पर्व की कथा कही है
साँस सुखी है -
कौंध जग रही कनखी के पहले दुलार की "
-कुमार रवीन्द्र
हमारे समाज में हरसिंगार तो खिल रहे हैं पर उसकी सुगंध को गली कूँचों तक फैलने से रोके जाने के असफल प्रयास स्वार्थवश सदा से होते रहे हैं, इसी की एक झलक यहाँ देखी जा सकती है--
" सहमी दूब
बाँस गुमसुम है
कोंपल डरी-डरी
बूढ़े बरगद की
आँखों में
खामोशी पसरी
बैठा दिए गए
जाने क्यों
गंधों पर पहरे ।"
और जब गंधों पर पहरे बैठाने जैसी हरकतें की जाती हैं तब स्वाभाविकता प्रभावित होती ही है--
" वीरानापन
और बढ़ गया
जंगल देह हुई
हरिणी की
चंचल-चितवन में
भय की छुईमुई
टोने की ज़द से
अब आखिर
बाहर कौन करे "
-डा० जगदीश व्योम
आचार्य संजीव 'सलिल' जीवन की खुरदरी जमीन पर हरसिंगार के खिलने का तब अहसास कर लेते हैं जब जीवन संगिनी खिलखिलाती दिख जाती है--
" खिलखिलायीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए
पनघट खलिहान साथ,
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा-
कब-कैसे सजन-माथ?
हिलमिल चाँदनी-धूप
धूप-छाँव बन गाए"
-संजीव 'सलिल'
जयकृष्ण राय तुषार जी हरसिंगार के मादक फूलों की अनुभूति प्रिय के प्रेमपगी चितवन में कर लेते हैं-
" बाँध दिए
नज़रों से फूल हरसिंगार के
तुमने कुछ बोल दिया
चर्चे हैं प्यार के
बलखाती
नदियों के संग आज बहना है
अनकहा रहा जो कुछ आज वही कहना है
अब तक हम दर्शक थे नदी के
कगार के
- जयकृष्ण राय तुषार
डा० राजेन्द्र गौतम के नवगीत अपनी अलग पहचान रखते हैं, उनके पास लोक जीवन के अनुभव का अद्भुत खजाना है, बोलचाल की भाषा में वे जो कह देते हैं उससे कहीं अन्दर तक छुअन और अनुभूति जन्य सिहरन का अहसास होने लगता है, स्मृतियों के बन्द कपाट जब खुलते हैं तो मन मृग न जाने कहाँ कहाँ तक कुलाँचे मारता हुआ पहुँच जाता है--
"यद्यपि अपनी चेतनता के
बन्द कपाट किये हूँ
पलकों में वह साँझ शिशिर की
फिर भी घिर-घिर आती
पास अँगीठी के बतियाती
बैठी रहतीं रातें
दीवारों पर काँपा करती
लपटों की परछाई
मन्द आँच पर हाथ सेंकते
राख हुई सब बातें
यादों के धब्बों-सी बिखरी
शेष रही कुछ स्याही
आँधी, पानी, तूफानों ने
लेख मिटा डाले वे
जिनकी गन्ध कहीं से उड़ कर
अब भी मुझ तक आती
-डॉ. राजेन्द्र गौतम
महानगरों के अतिरिक्त व्यामोह ने गाँव की संस्कृति को कुचल कर रख दिया है, अब हरसिंगार उगायें भी तो कहाँ उगायें ? कल्पना रामानी ने इस अभावजनक अनुभूति को नवगीत में सीधे सरल शब्दों में बाँधने का प्रयास किया है-
" अब न रहा वो गाँव न आँगन,
छूट गया फूलों से प्यार।
छोटे फ्लैट चार दीवारें,
कहाँ उगाऊँ हरसिंगार।
खुशगवारयादों का साथी,
बसा लिया मन उपवन में "
-कल्पना रामानी
जीवन की क्षणभंगुरता ही जीवन का सत्य है, इसका अहसास हमें होना ही चाहिए, महेन्द्र भटनागर हरसिंगार के फूल की क्षणभंगुरता के माध्यम से सचेत करते हैं कि थोड़े समय में जैसे हरसिंगार सुगंध लुटाकर मन मन में बस जाता है तो फिर हम भी वही करें--
" जीवन हमारा
फूल हरसिंगार-सा
जो खिल रहा है आज,
कल झर जायगा "
-महेन्द्र भटनागर
शशि पाधा अपने देश से बाहर रहकर यहाँ की सांस्कृतिक सुगंध को मन्द नहीं होने देना चाहती हैं, उन्हें लगता है कि हरसिंगार के फूलों की गंध में माँ का प्यार कहीं छिपा हुआ है-
" घर अँगना फिर हुआ सुवासित
तुलसी -चौरा धूप धुला
ठाकुर द्वारे चन्दन महके
देहरी का पट खुला-खुला
आशीषों के
शीतल झोंके
आँचल बाँध के लाई माँ "
-शशि पाधा
त्रिलोक सिंह ठकुरेला नवगीत की प्रकृति को बहुत करीब से पहचानते हैं, वे कुछ ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि उनका नवगीत गुनगुनाने का मन हो ही उठता है, सकारात्मक सोच और संघर्षों से जूझने की प्रेरणा से युक्त ठकुरेला जी के नवगीत बहुत प्रभावित करते हैं--
" मन के द्वारे पर
खुशियों के
हरसिंगार रखो.
जीवन की ऋतुएँ बदलेंगी,
दिन फिर जायेंगे,
और अचानक आतप वाले
मौसम आयेंगे,
संबंधों की
इस गठरी में
थोडा प्यार रखो "
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला
शारदा मोंगा ने हरसिंगार के फूलों का मदिर गंध बिखराना और मन्द गति से उनका झरना, मालिन का बीन बीन कर डलिया भरना .......... नवगीत में पिरोकर दृश्य बिम्ब उपस्थित कर दिया है--
" गंध मदिर बिखरे
रात भर हरसिंगार झरे
श्वेत रंग की बिछी चदरिया,
शोभित हरी घास पर हर दिन
चुन चुन हार गूँथ कर मालिन,
डलिया खूब भरे,
रात भर हरसिंगार झरे "
-शारदा मोंगा
वरिष्ठ नवगीतकार डा० भारतेन्दु मिश्र हरसिंगार का मुट्ठी से छूट जाना एक भरम का टूट जाना भर मानते हैं-
" चलो यार
एक भरम टूट गया
मुट्ठी से हरसिंगार छूट गया
पीतल के छल्ले पर
प्यार की निशानी
उसकी नादानी
ठगी गयी फिर शकुंतला
कोई दुष्यंत उसे लूट गया"
-डॉ. भारतेन्दु मिश्र
डा० राधेश्याम बंधु अपने नवगीतों में संस्कृति को सुरक्षित रखने की चिन्ता के साथ साथ जीवन में प्यार और विश्वास को बनाये रखने का आवाहन करते रहते हैं, उनके पास जीवन्त भाषा तो है ही उनकी प्रस्तुति ऐसी है कि नवगीत सहज ही मन के किसी कोने में बैठ जाता है--
" फिर फिर
जेठ तपेगा आँगन,
हरियल पेड लगाये रखना,
विश्वासों के हरसिंगार की
शीतल छाँव
बचाये रखना।
हर यात्रा
खो गयी तपन में,
सड़कें छायाहीन हो गयीं,
बस्ती-बस्ती
लू से झुलसी,
गलियाँ सब गमगीन हो गईं।
थका बटोही लौट न जाये,
सुधि की जुही
खिलाये रखना ..."
- राधेश्याम बंधु
(आभार: नवगीत की पाठशाला २१)
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मंगलवार, फ़रवरी 15, 2011
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पहरेदार का चोर हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण होता है। आखिरकार पहरेदार पर कौन पहरा दे ? प्रधानमंत्री देश के सार्वजनिक धन का न्यासी है, मंत्रीपरिषद उसी का विस्तार है। मुख्य सतर्कता आयुक्त पर अतिरिक्त सतर्कता की जिम्मेदारी है। सरकार को जवाबदेह बनाने की संसदीय शक्ति बड़ी है बावजूद इसके भ्रष्टाचार संस्थागत हो गया । राष्ट्मण्डल खेलों में अरबों का खेल हुआ । 2 -जी स्पेक्ट्म घाटालों से देश भौचक हुआ। आदर्श सोसाइटी भी घोटाला का पर्याय बनी । चावल निर्यात घोटाला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, एलआईसी हाउसिंग सहित हर तरफ घोटालों की ही बाढ़ है। महंगाई, घोटालों के पंख लगाकर ही आसमान पहुंची हैं।
देश घोटालों के दलदल में है। सत्ताधीश छोड़ सब लुट रहे है। भ्रष्टाचार ही सत्यम है। आमजन हलकान हैं। यहां हर चीज बिकाउ है। राजनीति एक विचित्र उधोग है। थोड़ी पूंजी बड़ा व्यापार, कहीं भी, कभीं भी ।

विधायकी सांसदी के पार्टी टिकट के रेट हैं, मनमाफिक मंत्री बनाने के रेट हैं। सरकार गिराने बचाने, सदन में वोट देने, सदन त्याग करने के पुरस्कार हैं। केन्द्र सरकार तमाम घोटालों के घेरे में है। स्पष्टीकरण काम नहीं आते। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों से
सरकार की नींद हराम है। जनता में थू-थू हो रही है। सो सरकार एक नए लोकपाल विधेयक की तैयारी कर रही है।

विद्वान प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह कई अंतर्विरोधों के शिकार हैं। वह सरल ह्दय गैरराजनीतिक व्यक्ति हैं, लेकिन देश के राजप्रमुख हैं।
वह संवैधानिक दृष्टि से संसद के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन वस्तुतः वह सोनिया गांधी के प्रति उत्तरदायी हैं। वह मंत्रिपरिषद के प्रधान हैं, लेकिन मंत्रिगण उनकी बात नहीं सुनते। वह स्वयं ईमानदार हैं, लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार पर कोई कारवाई नहीं कर सकते। वह अंतरराष्टीय ख्याति के अर्थशास्त्री हैं, लेकिन महंगाई जैसी आर्थिक समस्या के सामने ही उन्होंने हथियार डाले हैं। भ्रष्टाचार ने सरकार की छवि को बट्टा लगाया है। भ्रष्टाचार के चलते अंतरराष्टीय पर देश की छवि धूमिल हुई है, और सरकार को शर्मिंदा होना पड़ा है।

प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के शासन काल में इतने बड़े- बड़े घोटालें हो गये और प्रतिष्ठित उद्योगपति रतन टाटा ने भी हमारे प्रधानमंत्री को बहुत ईमानदार करार दिया और कहा कि उनको परेशान नहीं करना चाहिए। ऐसे बहुत से प्रतिष्ठित लोग मिल जाएगे जो डॉ मनमोहन सिंह को ईमानदार और साफ सुथरे छवि वाले इंसान बताते हैं।

भारत जैसे विशालकाय देश में इतने बड़े तौर पर घोटालें हो रहे हैं और इन घोटालो में मंत्रीमण्डल के ही नेतागण शामिल हैं।
.प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह अपने मंत्रिमंडल में शामिल भ्रष्ट नेताओं पर भी शक्ति नहीं देखा पा रहे है। कांग्रेस सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त उन नेताओं पर उचित कारवायी न कर भ्रष्टाचारियों को श्रय दे रही है। तभी तो कॉमनवेल्थ और 2-जी स्पेक्ट्म मामले में शामिल अपराधियों पर कारवायी करने में इतना देर लगा जब तक अपराधी अधिकांश सबूत मिटा चुके थे।

भ्रष्टाचारियो को श्रय देना, अपराधियों को मंत्रिमंडल में शामिल कर उन्हें सुविधाएं देना क्या ये ईमानदारी है ?
डॉ मनमोहन सिंह नाम मात्र के प्रधानमंत्री बन कर सारे भ्रष्टाचार को देखते हुए किंकर्तव्यविमुख की तरह पड़े है। अपराधों को
देखते हुए भी कुछ न करने का साहस दिखाना भी एक अपराध है। अगर मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री कि नहीं सुनी जाती तो वे क्यो उस पद पर बने हुए है। उस पद पर बने रहकर वे अपनी छवी खराब कर रहे है। अगर वे भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहे है तो उन्हे अपने पद से स्वेच्छा से त्याग पत्र दे देना चाहिए, जो देश हित के लिए उचित होगा ।

डॉ मनमोहन सिंह के पहले शासन काल में विपक्ष के नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने मनमोहन सिंह को कठपुतली सरकार कहकर ये कहां था कि भारत के इतिहास में मनमोहन सिंह सबसे कमजोर प्रधानमंत्री है। उनकी कही बात आज सच साबित हो रही है। जनता को ये एहसास हो गया है कि मनमोहन सिंह को मोहरा बनाकर शासन की बागडोर कोई और अपने हाथो में लेकर इन भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर उन्हे बढ़ावा दे रहा है, और देश की छवि को नुकसान पहुंचा रहा हैं।
लोगों के सामने तो मनमोहन को सत्ता सौंप कर त्याग की मूर्ति बन गई सोनिया लेकिन इन भ्रष्टाचार में उनकी सहमति के बिना इतने बड़े घोटालों को अन्जाम ही नहीं दिया जा सकता था।
डॉं मनमोहन सिंह भी अब ईमानदार के श्रेणी में नहीं आते उनके शासन काल में जनता के पैसें को स्वीश बैंक में काले धन के रूप में सजाकर रखा जा रहा है और सरकार देखते हुए भी उसके खिलाफ कोई निर्णय नहीं ले रही है। अगर घुस लेना और देना अपराध है तो क्या भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर मंत्रिमंडल में बने रहकर उनके हर कार्य में सहायता करना अपराध नहीं है ?

2-जी घेटालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की समस्याएं फिलहाल खत्म नहीं होने वाली हैं। कुछ मंत्री अपने बयान से इस मामले को दूसरे दिशा में मोड़ना चाहते है, जो अब संम्भव नहीं । कपिल सिब्बल सोचते हैं कि वह अपने इस चतुराई भरे तर्क से मनमोहन सिंह का बचाव कर लेगे कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट में जिस बात का इशारा किया गया है
वैसा कुछ नहीं है और देश का धन किसी ने नहीं लूटा हैं। इस तरह कपिल सिब्बल ने मामलें को और उलझानें का काम किया, जिस कारण सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करते हुए कहना पड़ा कि वह न्यायिक जांच में हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस बारे में 21 जनवरी को जस्टिस जीएस सिंघवी और एके गांगुली की न्यायिक पीठ ने कहा कि मंत्री महोदय को अनिवार्य रूप से अपने उत्तरदायित्व के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए ।

वास्तव में सरकार द्वारा चुप्पी साधे रखना ही 2 जी मामले में वर्तमान राजनीतिक संकट की मूल वजह बना। यही वह कारण है कि अभी तक गतिरोध बना हुआ है और संसद का एक पूरा सत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया । ईमानदार प्रधानमंत्री पर अब भारतीय जनता का गुस्सा तेजी से बढ़ रहा है, जो संभवतः हाल के भारतीय इतिहास में सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया के पद पर बैठे हुए हैं।
अंधकारपूर्ण वर्तमान हालात में देश की जनता खिन्न और निराश है और वह अब एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति से छुटकारा पाना चाहती है जो अपने आस पास के बेईमान लोगों पर अंकुश नहीं लगा सका । यह वही मनमोहन सिंह हैं जिन्हे एक समय जनता एक निःस्वार्थ और नैतिक व्यक्ति के रूप में देखती थी। कुछ ऐसे ही महाभारत में भीष्म भी थे। वह तब भी मौन रहे जब द्रौपदी का चीर हरण किया जा रहा था । दुःशासन द्वारा अपमानित होने के कारण द्रौपदी क्रुद्व हुई और उसने शासकों के धर्म के बारे में सवाल उठाए, लेकिन तब सभागार में बैठे राजपरिवार के किसी भी सदस्य ने उसे उत्तर नहीं दिया और हर कोई शांत बना रहा।

उस समय विदुर ने तिरस्कार भाव से मौन की अनैतिकता का सवाल उठाया और सभागार में बैठे लोगो को लताड़ लगाई। उस समय विदुर ने किसी अपराध के घटित होने पर आधा दण्ड दोषी को दिए जाने, एक तिहाई दंड सहयोगियों अथवा इस तरह के कृत्य में शामिल होनें वालों के लिए और शेष एक तिहाई दंड मौन रहने वालों के लिए बताया था। 2 जी घोटाले में हमारे प्रधानमंत्री की चुप्पी बहुत गहरे तक हमें मथने वाली अथवा परेशान करने वाली है।

सवाल यह है कि आवंटन नीति पर आपति उठाने के बाद प्रधानमंत्री चुप क्यों हो गए ? यही वह सवाल जिसका उत्तर भारतीय जनता अब जानना चाहती है। इस संकट में प्रधानमंत्री के मौन के अतिरिक्त एक अन्य विचलित करने वाला पहलू भी है। सफलता के संदर्भ में हमारी धारणा भी दांव पर लगी हुई है। हालांकि हम हमेशा से अपनी एक भद्दी सच्चाई को जानते रहे हैं। भारत में भ्रष्टाचार बच्चे के जन्म लेते ही आरंभ हो जाता है। आपको जन्म प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए किसी को रिश्वत देनी पड़ती है।
यह सिलसिला उसके मौत तक चलता रहता है, जब मृत्यु प्रमाणपत्र के लिए एक बार फिर किसी की जेब भरनी पड़ती है। यह समझना मुश्किल है कि महान विचारो के साथ जन्म लेने वाले देश में आखिर इतना भ्रष्टाचार कैसे आ गया ?

हम माता पिता को इसका दोष नहीं दे सकते कि वे बपने बच्चे को सफल होता देखना चाहते है, लेकिन वे अपने बच्चों को सही कार्य करने की शिक्षा तो दे ही सकते हैं। उन्हें अपराध के समय शांत न रहने की नसीहत दी जा सकती है। इसके साथ ही शासन के संस्थानों में अपरिहार्य हो चुके सुधारों को लागू करके भी भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है। द्रोपदी के सवाल इसलिए प्रशंसनीय थे, क्योंकि उसने राजधर्म पर जोर दिया था।
यह आश्चर्यजनक है कि हम अपनी शक्ति राजनीतिक वामपंथ और दक्षिणपंथ के विभाजन पर बहस करते हुए खर्च करते हैं, जबकि बहस सही और गलत के विभाजन पर होनी चाहिए । मनमोहन सिंह इसे समझते हैं। यही कारण है कि 2004 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने प्रशासनिक सुधार के साथ भ्रष्टाचार पर चोट करने का भरोसा व्यक्त किया था, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके।
सुधार कभी आसान नहीं होते-यह बिल्कुल कुरूक्षेत्र में युद्व करने के सामान होता है, फिर भी यह करना ही होता है। हमारे शासक यदि अभी भी सक्रियता दिखाने से इनकार करते है तो उन्हें भी पतन के लिए तैयार रहना चाहिए। फ्रांस के शासकों ने भी जनता का विश्वास खो दिया था और 1789 में ऐसे ही पतन का शिकार हुए थे।

अतः प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपने पद का उचित प्रयोग करते हुए देश में तेजी से फैल रही महंगाई और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कोई क्रान्तिकारी फैसला करने की आवश्यकता हैं। जनता कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से महंगाई और भ्रष्टाचार की समस्या से जुझ रही है, सरकारी धन को लूटा जा रहा हैं। अगर सरकार जनता को इन समस्याओं से मुक्ति नहीं दिला सकती तो उसे अपने शासन करने की पद्वति में सुधार लाने की आवश्यकता है। अगर कांग्रेस सरकार जल्द कोई कदम नहीं उठाती तो मनमोहन सरकार का पतन निश्चित है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपने पद की मर्यादा रखते हुए अपने अनुभव और कार्यकुशलता का परिचय देते हुए कार्य का निर्वहन करना चाहिए। प्रधानमंत्री को दबाव में कार्य करने की अपनी शैली बदलनी होगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में वे क्षमता हैं जो देश को इन मुसिबतों से बाहर निकाल सकते है बस उन्हे अपने फैसलें लेनें की दृढ़ता दिखानी होगी।








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गुरुवार, जनवरी 27, 2011
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पत्रकारिता जो की लोकतंत्र का स्तम्भ है, जिसकी समाज के प्रति एक अहम भूमिका होती है, ये समाज में हो
रही बुराईयों को जनता के सामने लाता है तथा उन बुराईयों को खत्म करने के लिए लोगो को प्रेरित करता है। पत्रकारिता समाज और सरकार के प्रति एक ऐसी मुख्य कड़ी है, जो कि समाज के लोगो और सरकार को आपस में जोड़े रहती है। वह जनता के विचारों और भावनाओं को सरकार के सामने रखकर उन्हे प्रतिबिंबित करता है तथा लोगो में एक नई राष्टीय चेतना जगाता है।

पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यदि कोई जानकारी प्राप्त करनी है तो हमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले की पत्रकारिता को समझना होगा । पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि 19 वीं शताब्दी के पूर्वान्ह में भारतीय कला ,संस्कृति, साहित्य तथा उधोग धन्धों को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नष्टकर दिया था, जिसके कारण भारत में निर्धनता व दरिद्रता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
इसे खत्म करने के लिए कुछ बुद्विजीवियो ने समाचार पत्र का प्रकाशन किया । वे समाचार पत्रो के माध्यम से देश के नवयुवको कें मन व मस्तिष्क में देश के प्रति एक नई क्रांति लाना चाहते थे, इस दिशा में सर्वप्रथम कानपुर के निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी पत्र उदन्त मार्तण्ड नामक पत्र 30 मई , 1926 ई. में प्रकाशित किया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक थे यह पत्र भारतियो के हित में प्रकाशित किया गया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक के पूर्व कि जो पत्रकारिता थी वह मिशन थी , किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पत्रकारिता व्यावसायिक हो चुकी है।


हमारे देश में हजारो ऐसी पत्र-पत्रिकायें छप रही है जिसमें पूंजीपति अपने हितो को ध्यान में रखकर प्रकाशित कर रहे है। आधुनिक युग में जिस तरह से पत्रकारिता का विकाश हो रहा है, उसने एक ओर जहां उधोग को बढावा दिया है, वही दूसरी ओर राजनीति क्षेत्र में भी विकसित हो रहा है। जिसके फलस्वरूप राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल बड़ी तेजी से बढ रहे है, इन दोनों शक्तियों ने स्वतंत्र सत्ता बनाने के लिए पत्रकारिता के क्षेत्र में पूंजी और व्यवसाय का महत्व बढ़ता गया । एक समय ऐसा था जब केवल समाचार पत्रों में समाचारों का महत्व दिया जाता था। किन्तु आज के इस तकनीकी और वैज्ञानिक युग में समाचार पत्रो में विज्ञापन देकर और भी रंगीन बनाया जा रहा है।


इन रंगीन समाचार पत्रो ने उधोग धंधो को काफी विकसित किया है। आज हमारें देश में साहित्यिक पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके पाठकों व प्रशंसकों की हमेशा कमी थी। यही वजह थी की ये पत्रिकायें या तो बन्द हो गई या फिर हमेशा धन का अभाव झेलती रही । यह इस बात का प्रमाण है कि आज इस आधुनिक युग में जिस तरह से समाचार पत्रो का स्वरूप बदला है, उसने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी परिवर्तित कर दिया है। समाचार चैनलों ने टी. आर. पी को लेकर जिस तरह से लड़ायी कर रहे है, उसे देखते हुए आचार संहिता बनानी चाहिए और इसे मीडीया को स्वयं बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आदर्श जनतंत्र में यह काम किसी सरकार के हाथों में नहीं दिया जा सकता है। उसे अपने हर खबरो को जनतंत्र के मूल्यों व समाजिक राष्टीय हितो की कसौटी पर कसना होगा , यही सेंसरशिप है, जिसकी पत्रकारिता को जरूरत है।

पत्रकारिता वास्तव में जीवन में हो रही विभिन्न क्रियाकलापों व गतिविधियों की जानकारी देता है। वास्तव में पत्रकारिता वह है जो तथ्यों की तह तक जाकर उसका निर्भिकता से विश्लेशण करती है और अपने साथ सुसहमति रखने वाले व्यक्तियों और वर्गो को उनके विचार अभिव्यक्ति करने का अवसर देती है।

ज्ञात रहे कि पत्रकारिता के माध्यम से हम देश में क्रान्ति ला सकते है, देश में फैली कई बुराईयो को हमेशा के लिए खत्म कर सकते है। अत: पत्रकारिता का उपयोग हम जनहित और समाज के भलाई के लिए करें न कि किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में। पत्रकारिता की छवी साफ सुथरी रहे तभी समाज के कल्याण की उम्मीद कर सकते है।
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बुधवार, जनवरी 26, 2011
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बुधवार, २६ जनवरी २०११

गणतंत्र दिवस के अवसर पर इनके परवानों को तो याद किया ही जा रहा है, लेकिन उन गुमनाम हीरोज़ को भी याद करने की जरूरत है, जिन्होंने अपने तरीके से आजादी की मशाल जलाई।
ऐसे अवसर पर बङे लोगो को याद तो करते हैं, लेकिन इनके बिच कुछ नाम ऐसे भी है जिनको बहुत कम ही लोग जानते है। वहीं देखा जाये तो हमारे आजादी मे इनका योगदान कम नही है। इनका नाम आज भी गुमनाम है, लेकीन इन्होने जो किया वह काबिले तारीफ है। ये वे लोग जिन्होने आजादी के लिए बिगूल फुकंने का काम किया और ये लोग अपने काम मे सफल भी हुये। तो आईये इस गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पे इनको याद करें और श्रद्धाजंली अर्पित करें।

ऊधम सिंह----------ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।
इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं .........ऊधम सिंह ने मार्च 1940 में मिशेल ओ डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया। इस बाग में 4,000 मासूम, अंग्रेजों की क्रूरता का शिकार हुए थे। ऊधम सिंह इससे इतने विचलित हुए कि उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और एक देश से दूसरे देश भटकते रहे। अंत में वह लंदन में इस क्रूरता के लिए जिम्मेदार गवर्नर डायर तक पहुंच गए और जलियांवाला हत्याकांड का बदला लिया। ऊधम सिंह को राम मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से भी पुकारते थे। जो हिंदू, मुस्लिम और सिख एकता का प्रतीक है।

जतिन दास --------- जतिन को 16 जून 1929 को लाहौर जेल लाया गया। जेल में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ बहुत बुरा सुलूक किया जाता था। जतिन ने कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने की मांग पर भूख हड़ताल शुरू कर दी। जेल के कर्मचारियों ने पहले तो इसे अनदेखा किया, लेकिन जब भूख हड़ताल के 10 दिन हो गए तो जेल प्रशासन ने बल प्रयोग करना शुरू किया। उन्होंने जतिन की नाक में पाइप लगाकर उन्हें फीड करने की कोशिश की। लेकिन जतिन ने उलटी कर सब बाहर निकाल दिया और अपने मिशन से पीछे नहीं हटे।दिनांक 15 जुलाई को जेल सुप्रिंटेन्डेंट ने आई.जी (कारावास) को एक रिपोर्ट भेजी कि 14 जुलाई को भगत सिंह व दत्त को विशेष भोजन प्रस्तुत किया गया था, क्यों कि आई.जी (कारावास) ने ऐसा आदेश टेलीफोन पर दिया था। पर भगत सिंह ने उन्हें बताया कि वे विशेष भोजन तब तक स्वीकार न करेंगे, जब तक विशेष डाइट का वह मानदंड सरकारी गज़ट में प्रकाशित न किया जाएगा कि यह मानदंड सभी कैदियों के लिए है।

इस भूख हड़ताल में जतिन दास की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। भगत सिंह साथियों से सलाह लेने के बहाने बोर्स्टल जेल जा कर सभी साथियों के स्वस्थ्य का समाचार पूछ लिया करते थे। उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अकेले हैं, बल्कि देश-भक्ति की एक ज्वाला थी, जो सब को सम्पूर्ण रूप से जोड़े रहती थी। इधर चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति बहुत चिंताजनक है। वे दवाई लेने तक से इनकार कर रहे हैं। एक डॉ. गोपीचंद ने दास से पूछा भी- आप दवाई तथा पानी क्यों नहीं ले रहे?
दास ने निर्भीक उत्तर दिया - मैं देश के लिए मरना चाहता हूँ... और कैदियों की स्थिति को सुधारने के लिए।

21 अगस्त को कांग्रेस के एक अन्य देशभक्त नेता बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन ने दास को बहुत मनाया- दवाई ले लो। सिर्फ़ जीवित रहने के लिए। भले ही भूख हड़ताल न तोड़ो। मेरे कहने पर सिर्फ़ एक बार प्रयोग के तौर पर दवा ले लो, और पन्द्रह दिन तक देखो। अगर तुम्हारी मांगें नहीं मानी जाती, तो दवाई छोड़ देना।

दास ने कहा - मुझे इस सरकार में कोई आस्था नहीं है। मैं अपनी इच्छा-शक्ति से जी सकता हूँ। भगत सिंह ने दबाव डालना जारी रखा। इस पर दास ने केवल दो शर्तों पर दवाई लेना स्वीकार किया, कि दवाई डॉ. गोपीचंद ही देंगे। और कि भगत सिंह दोबारा ऐसा आग्रह नहीं करेंगे।
26 अगस्त को चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि दास की स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई है। वे शरीर के निचले अंगों को हिला डुला नहीं सकते। बातचीत नहीं कर सकते, केवल फुसफुसा रहे हैं। और 4 सितम्बर को उनकी नब्ज़ को कमज़ोर व अनियमित बताया गया, उल्टियाँ हुई। 9 को नब्ज़ बेहद तेज़ हो गई। 12 को उल्टी हुई, नब्ज़ अनियमित... 13 सितम्बर, अपने अनशन के ठीक चौंसठवें दिन, दोपहर एक बज कर दस मिनट पर इस बहादुर सपूत ने भारत माँ की शरण में अपने प्राणों की आहुति दे कर इतिहास के एक पन्ने को अपने बलिदान से लिख डाला।
इस युवा देव-पुरूष के अन्तिम शब्द थे - मैं बंगाली नहीं हूँ। मैं भारतवासी हूँ। जी एस देओल ऊपर संदर्भित पुस्तक में जतिन दास की शहादत पर लिखते हैं -'ब्रिटिश के लिए ईसा मसीह भी शायद एक भूली-बिसरी कथा थे'। जिस प्रकार यीशु सत्य की राह पर सूली चढ़ गए, जतिन दास सत्य के लिए युद्ध करते करते शहीद हो गए।

विशाल भारत की तरह आयरलैंड जैसे छोटे-छोटे देश भी ब्रिटिश की पराधीनता का अभिशाप सह चुके थे। आयरलैंड के ही एक क्रांतिकारी युवा पुरूष टेरेंस मैकस्विनी ने भी जतिन दास की तरह ही शहादत दी थी। जतिन दास के जाने की ख़बर विश्व के अखबारों में छपी थी। इसे पढ़ कर मैकस्विनी की बहादुर पत्नी ने एक तार भेज कर लिखा - टेरेंस मैकस्विनी का परिवार इस दुःख तथा गर्व की घड़ी में सभी बहादुर भारतवासियों के साथ है। आज़ादी आएगी। जेल के बाहर कई कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में असंख्य भीड़ जमा थी।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद के नारों से आसमान गूँज उठा। सुभाष चन्द्र बोस ने देश के इस सपूत को अपना सलाम भेजा। जतिन दास को पूरा देश नमन कर रहा था। अख़बार श्रद्धांजलियों से भरे थे। जतिन दास के भाई के.सी दास ने अपने भाई का पार्थिव शरीर प्राप्त किया जिसे लाहौर में एक भारी जुलूस के बीच कई जगहों से होते हुए रेलवे स्टेशन तक लाया गया। लाखों लोगों की आंखों में आंसू थे। आसमान फिर उन्हीं देश-भक्ति से ओत-प्रोत नारों से गूंजा था।

जतिन दास जिंदाबाद ... इन्किलाब जिंदाबाद

भीकाजी कामा--आजादी की लड़ाई में उन्‍हीं अग्रणियों में एक नाम आता है - मैडम भीकाजी कामा का। इनका नाम आज भी इतिहास के पन्‍नों पर स्‍वर्णाक्षरों से सुसज्जित है। 24 सितंबर 1861 को पारसी परिवार में भीकाजी का जन्‍म हुआ। उनका परिवार आधुनिक विचारों वाला था और इसका उन्‍हें काफी लाभ भी मिला। लेकिन उनका दाम्‍पत्‍य जीवन सुखमय नहीं रहा।

दृढ़ विचारों वाली भीकाजी ने अगस्‍त 1907 को जर्मनी में आयोजित सभा में देश का झंडा फहराया था, जिसे वीर सावरकर और उनके कुछ साथियों ने मिलकर तैयार किया था, य‍ह आज के तिरंगे से थोड़ा भिन्‍न था। भीकाजी ने स्‍वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद भी की और जब देश में प्‍लेग फैला तो अपनी जान की परवाह किए बगैर उनकी भरपूर सेवा की। स्‍वतंत्रता की लड़ाई में उन्‍होंने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। वो बाद में लंदन चली गईं और उन्‍हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो पुन: अपने वतन लौट आईं। सन् 1936 में उनका निधन हो गया, लेकिन य‍ह काफी दु:खद था कि वे आजादी के उस सुनहरे दिन को नहीं देख पाईं, जिसका सपना उन्‍होंने गढ़ा था
इन्होंने जर्मनी में रहकर आजादी की अलख जगाई। वहां भीकाजी ने इंटरनैशनल सोशलिस्ट कॉन्फ़रन्स में 22 अगस्त 1907 को भारतीय आजादी का झंडा फहराया। कॉन्फ़रन्स के दौरान झंडा फहराते हुए उन्होंने कहा कि यह झंडा भारत की आजादी का है।

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सोमवार, जनवरी 24, 2011
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भारत में ६ से १४ साल तक के बच्चो के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून भले ही लागू हो चुका हो, लेकिन इस आयु वर्ग की लडकियों में से ५० प्रतिशत तो हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाति है। जाहिर है,इस तरह से देश की आधि लडकियां कानून से बेदखल होती रहेगी। यह आकडा मोटे तैर पर दो सवाल पैदा करते है। पहला यह कि इस आयु वर्ग के १९२ मिलियन बच्चों में से आधी लडकिया स्कुलो से ड्राप-आउट क्यो हो जाती है ? दूसरा यह है कि इस आयु वर्ग के आधी लडकिया अगर स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाती है तो एक बडे परिद्श्य में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून का क्या अर्थ रह जाता है ?

इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन(१९९६) की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया भर में ३३ मिलियन लडकिया काम पर जाती है,जबकि काम पर जाने वाले लडको की संख्या ४१ मिलियन है। लेकिन इन आकडो मे पूरे समय घरेलू काम काजो मे जूटी रहने वाली लडकियो कि संख्या नहीं जोडी गई थी ।

इसी तरह नेशनल कमीशन फाँर प्रोटेक्शन आँफ चिल्ड्रेन्स राइटस की एक रिपोर्ट में भी बताया गया है कि भारत मे ६ से १४ साल तक कि अधिकतर लडकियो को हर रोज औसतन ८ घंटे से भी अधिक समय केवल अपने घर के छोटे बच्चो को संभालने मे बिताना पडता है। सरकारी आकडो मे भी दर्शाया गया है कि ६ से १० साल तक कि २५ प्रतिशत और १० से १३ साल तक की ५० प्रतिशत (ठीक दूगनी) से भी अधिक लडकियो को हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाना पडता है।

एक सरकारी सर्वेक्षण (२००८) के दौरान ४२ प्रतिशत लडकियों ने बताया कि वह स्कुल इस लिए छोड देती है कि क्योंकि उनके माता-पिता उन्हे घर संभालने और छोटे भाई बहनों की देखभाल करने के लिए कहते है,आखिरी जनगणना के मुताबिक ,२२.९१ करोड महिलाएं निरक्षर है,एशिया में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है।
एन्युअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट (२००८) के मुताबिक ,शहरी और ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः ५१.१ प्रतिशत और ६८.४ प्रतिशत दर्ज हैं।

क्राई के एक रिपोर्ट के अनुसार,५ से ९ साल तक की ५३ प्रतिशत भारतीय लडकिया पढना नहीं जानती, इनमे से अधिकतर रोटी के चक्कर मे घर या बाहर काम करती है। ग्रामीण इलाकों में १५ प्रतिशत लडकियों की शादी १३ साल की उम्र में ही कर दी जाति है। इनमें से तकरीबन ५२ प्रतिशत लडकियां १५ से १९ साल की उम्र मे गर्भवती हो जाती है। इन कम उम्र की लडकियों से ७३ प्रतिशत (सबसे अधिक) बच्चे पैदा होते है। फिलहाल इन बच्चो में ६७ प्रतिशत (आधे से अधिक) कुपोषण के शिकार है। लडकियों के लिए सरकार भले हि सशक्तिकरण के लिए शिक्षा जैसे नारे देना जितना आसान है,लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही कठीन।

दूसरी तरफ कानून मे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कह देने भर से अधिकार नहीं मिल जाएगा, बलिक यह भी देखना होगा कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के अनुकूल ।खास तौर से लडकियो के लिए ,भारत में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं ।आज ६ से १४ साल तक के तकरीबन २० करोड भारतीय बच्चो की प्राथमिक शिक्षा के लिए पर्याप्य स्कूल ,कमरे , प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवतायुक्त सुविधाएं नहीं है, देश की ४० प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुडा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ४६ प्रतिशत सरकारी स्कूलो में लडकियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है।

मुख्य तौर पर सामाजिक धारणाओं,घरेलू कामकाजो और प्राथमिक शिक्षा में बुनियादि व्यवस्था के अभाव के चलते एक अजीब सी विडंबना हमारे सामने हैकि देश की आधी लडकियों के पास अधिकार तो हैं,मगर बगैर शिक्षा के । इसलिए इससे जुडे अधिकारो के दायरे में लडकियों की शिक्षा को केंद्रीय महत्व देने की जरुरत है, माना कि यह लडकिया अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती है। लेकिन अगर यह लडकियां केवल इन्ही कामों में रात- दिन उलझी रहती है ,भारी शारीरिक और मानसिक दबावों के बीच जीती हैं,पढाई के लिए थोडा सा समय नहीं निकाल पाती हैं और एक स्थिति के बाद स्कुल से ड्राप्आउट हो जाती है तो यह देश की आधी आबादी के भविष्य के साथ खिलवाड ही हुआ।

आज समय की मांग है कि लडकियों के पिछडेपन को उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद परिस्थतियो के रुप में देखा जाए। अगर लडकी है तो उसे ऐसे ही रहना चाहिए ,जैसे बातें उनके विकाश के रास्ते में बाधा बनती हैं। लडकियों की अलग पहचान बनाने के लिए जरुरी है कि उनकी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे कारणो की खोजबीन और भारतीय शिक्षा पद्दती ,शिक्षकों की कार्यप्रणाली एवं पाठ्यक्रमों की पुनर्समीक्षा की जाए ,लडकियों की शिक्षा से जुडी हुई इन तमाम बाधाओं को सोचे- समझे और तोडे बगैर शिक्षा के अधिकार का बुनियादी मकसद पूरा नहीं हो सकता है ।

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नया युग वैज्ञानिक अध्यात्म का है । इसमें किसी तरह की कट्टरता मूढता अथवा पागलपन है। मूढताए अथवा अंधताये धर्म की हो या जाति की अथवा फिर भाषा या क्षेत्र की पूरी तरह से बेईमानी हो चुकी है । लेकिन हमारें यहां की राजनीति इतनी भ्रष्ट हो गई है कि उन्हे देश को बाँटने के सिवाय कोई और मुद्दा ही नहीं दिखता । कभी वे अलग राज्य के नाम पर राजनीति कर रहे हैं तो कभी जाति और धर्म के नाम पर । जिस दश में लोग बिना खाए सो जा रहे हो , कुपोषण का शिकार हो रहें हो , लड़किया घर से निकलने पर डर रही हो उस देश में ऐसे मुद्दों पर राजनीति करना मात्र मूर्खता ही कही जा सकती है । आज से पाँच-छह सौ साल पहले यूरोप जिस अंधविश्वास दंभ एंव धार्मिक बर्बरता के युग में जी रहा था, उस युग में आज अपने देश को घसीटने की पूरी कोशिश की जा रही है जो किसी भी तरह से उचित नही है। जो मूर्खतायें अब तक हमारे निजी जीवन का नाश कर रही थी वही अब देशव्यापी प्रागंण में फैलकर हमारी बची-खुची मानवीय संवेदना का ग्रास कर रही है । जिनकें कारण अभी तक हमारे व्यक्तित्व का पतन होता रहा है जो हमारी गुलामी का प्रमुख कारण रही, अब उन्ही के कारण हमारा देश एक बार फिर तबाही के राह पर है । धर्म के नाम पर , जाति के नाम पर,क्षेत्र के नाम, और भाषा के नाम पर जो झगड़े खड़े किए जा रहे है उनका हश्र सारा देश देख रहा है । कभी मंदिर और कभी मस्जिद तो कभी जातीयता को रिझाने की कशिश । दुःख तो तब और होता है जब इस तरह के मामलो में शिक्षित वर्ग भी शामिल दिखता है । ये सब किस तरह की कुटिलताएँ है और इनका संचायन वे लोग कर रहे है जो स्वयं को समाज का कर्णधार मानते हैं । इन धर्मो एवं जातियो के झगड़ो को हमारी कमजोरियों दूर करने का सही तरीका केवल यही है कि देश के कुछ साहसी एंव सत्यनिष्ठ व्यक्ति इन कट्टरताओं की कुटिलता के विरुद्ध एक महासंग्राम छेड़ दें।

जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी, तब तक देश का कल्याण-पथ प्रशस्त ना होगा । समझौता कर लेनें, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलह नामों को लिखकर, हाथो में कालीख पोत लेने से ,तोड़फोड़ कर लेने से कभी राष्ट्रीयता व मानवीयता का उपवन नहीं महकेगा । हालत आज इतनी गई-गुजरी हो गई है कि व्यापक महांसंग्राम छेडे बिना काम चलता नहीं दिखता । धर्म , क्षेत्र एवं जाति का नाम लेकर घृणित व कुत्सित कुचक्र रचनें वालों की संख्या रक्तबीज तरह बढ रही है । ऐसे धूर्तो की कमी नहीं रही, पर मानवता कभी भी संपूर्णतया नहीं हुई और न आगे ही होगी, लेकिन बीच-बीच में ऐसा अंधयूग आ ही जाता है , जिसमें धर्म , जाति एवं क्षेत्र के नाम पर झूठे ढकोसले खड़े हो जाते हैं । कतिप्रय उलूक ऐसे में लोगो में भ्रातियाँ पैदा करने की चेष्टा करने लगते है । भारत का जीवन एवं संस्कृति वेमेल एवं विच्छन्न भेदभावों की पिटारी नहीं है । जो बात पहले कभी व्यक्तिगत जीवन में घटित होती थी, वही अब समाज की छाती चिरने लगें । भारत देश के इतिहास में इसकी कई गवाहिँया मेजुद हैं । हिंसा की भावना पहले कभी व्यक्तिगत पूजा-उपक्रमो तक सिमटी थी, बाद में वह समाज व्यापिनी बन गयी । गंगा, यमुना सरस्वती एवं देवनंद का विशाल भू-खण्ड एक हत्याग्रह में बदल गया । जिसे कुछ लोग कल तक अपनी व्यक्तिगत हैसियत से करते थे, अब उसे पूरा समाज करने लगा । उस समय एक व्यापक विचार क्रान्ति की जरुरत महसूस हुई । समाज की आत्मा में भारी विक्षोभ हुआ ।

इस क्रम में सबसे बडा हास्यापद सच तो यह है कि जो लोग अपने हितो के लिए धर्म , क्षेत्र की की दुहाई देते है उन्हे सांप्रदायिक कहा जाता है, परन्तु जो लोग जाति-धर्म क्षेत्र के नाम पर अपने स्वार्थ साधते हैं , वे स्वयं को बडा पुण्यकर्मि समझते हैं । जबकि वास्तविकता तो यह है कि ये दोंनो ही मूढ हैं , दोनो ही राष्ट्रविनाशक है । इनमें से किसी को कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता । ध्यान रहे कि इस तरह की मुढतायें हमारे लिए हानिकारक ही साबित होंगी , अंग्रजो ने तो हमारे कम ही टुकडे किय, परन्तु अब हम अगर नहीं चेते तो खूद ही कई टूकडों में बँट जायेंगे, क्या भरोसा है कि जो चन्द स्वार्थि लोग आज अलग राज्य की माँग कर रहे हैं वे कल को अलग देश की माँग ना करे, इस लिए अब हमें राष्ट्रचेतना की जरुरत है, हो सकता है शुरु में हमें लोगो का कोपाभजन बनना पड़े , पर इससे डरने की जरुरत नही है । तो आईये मिलकर राष्ट्र नवसंरचना करने का प्रण लें ।
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रविवार, जनवरी 23, 2011
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जिसकी सेवाए त्याग एवं ममता की छॉंव में पलकर पूरा परिवार विकसित होता है, उसके आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी एवं शोक के वातावरण का व्याप्त हो जाना विडंबनापूर्ण अचरज ही है। कन्या - जन्म के साथ ही उस पर अन्याय एवं अत्याचार का सिलसिला शूरू हो जाता है। अपने जन्म के परिणामों एवं जटिलताओ से अनभिज्ञ उस नन्हीं - सी जान के जन्म से पूर्व या बाद में उपेक्षा , यहॉं तक कि हत्या भी कर दी जाती है।

लोगो में बढती पुत्र- लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री, पुरूष अनुपात आज पूरे देश के समाजशास्त्रियोए, जनसंख्या विशेषज्ञों , योजनाकारो तथा समाजिक चिंतकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। जहॉ एक हजार पुरूषों में इतनी ही मातृशक्ति की आवश्यकता पडती है, वही अब कन्या - भ्रूण हत्या एवं जन्म के बाद बालिकाओं की हत्या ने स्थिति को विकट बना दिया है। आज लोगो में पहले से ही लिंग जानने से भ्रूण हत्या में इजाफा हो रहा है। लोग पता लगा कर कन्या भ्रूण को नष्ट कर देते है। गर्भपात करना बहुत बडा कुकर्म और पाप है। शास्त्र में भी कहा गया है कि गर्भपात अनुचित है, संस्कृति में इस संदर्भ में एक श्लोक है ।
यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातनेए प्रायश्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते श्श्
ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है


आज भी प्रत्येक नगर एवं महानगर में प्रतिदिन भ्रूण हत्या हो रही है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि समाजसेवी संस्था, और वैधानिक प्रावधान भी इस क्रुर पद्धति को रोकने में अक्षम है। किसी जमाने में बालिकाओ को पैदा होते ही मारे जाने और अपशकुन समझे जाने का अभिशाप झेलना पडता था, लेकिन वर्ममान में भी लोगो मे कन्या को जन्म से पहले या जन्म के बाद भी मारने में कोइ भी परिवर्तन नहीं आया है। लोग इस तरह बालिकाओ को जन्म से पहले नष्ट करते रहे तो मनुष्य जाति का विनाश जल्द ही निश्चित है। कन्या भ्रूण हत्या इतने तेजी के साथ हो रहा है कि वर्तमान मे स्त्री - पुरूष अनुपात भी कई राज्यो में भिन्न भिन्न स्थिति में पाये जा रहे है।

आज स्त्रियो का अनुपात दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है जो आगे चलकर मनुष्य जाति के लिए विनाश का कारण बनेगीं। अभी जल्द ही भारत सरकार द्धारा कराये जनगणना 2010- 2011 के अनुसार स्त्री- पुरूष अनुपात का आकडा जो पेश किया गया वो चिन्ता का विषय बना हुआ है। भारत में लिंगानुपात पुरूषो के मुकाबले स्त्रियो का कम है। ये अनुपात कम होने का सबसे बडा कारण बडे पैमाने पर हो रहे कन्या भ्रूण हत्या है ।

भारत में 1000 पुरूषो के मुकाबले महिलाये 933 है, ग्रामीण स्तर पर 946 और नगरीय महिला अनुपात 900 है। ये आकडा तो पूरे भारत का था। राज्यो में स्त्रियो के सबसे अधिक अनुपात वाला राज्य केरल 1058 है। स्त्रियों के सबसे कम अनुपात वाला राज्य हरियाणा 861 है। संघ राज्य क्षेत्रो में सबसे अधिक अनुपात पाण्डिचेरी का 1001 है और सबसे कम दमन और दीव का 710 है।
संघ राज्य क्षेत्रो के जिलो में सबसे अधिक माहे (पाण्डिचेरी) 1147 और सबसे कम दमन का 591 है।

इन आकडो को देख कर हम अनुमान लगा सकते है कि भारत में महिलाओं का अनुपात किस प्रकार घटता जा रहा है।
अगर सरकार जल्द कोई ठोस कदम नहीं उठाती है तो देश में बहुत गहन समस्या उत्पन हो सकती है। कई राज्यों में कन्या के जन्म को लेकर कई भ्रांतिया है जैसे- तमिलनाडु के मदुरै जिले के एक गॉंव में कल्लर जाति के लोग घर में कन्या के जन्म को अभिशाप मानते हैं। इसलिए जन्म के तीन दिन के अन्दर ही उसे एक जहरीले पौधे का दूध पिलाकर या फिर उसके नथुनों में रूई भरकर मार डालते हैं। भारतीय बाल कल्याण परिषद् द्धारा चलाई जा रही संस्था की रिपोर्ट के अनुसार इस समुदाय के लोग नवजात बच्ची को इस तरह मारते है , कि पुलिस भी उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कर पाती ।
जन्म लेते ही कन्या के भेदभाव की यह मानसिकता सिर्फ असभ्य , अशिक्षित एवं पिछडे लोगो की नहीं है, बल्कि कन्या अवमूल्यन का यह प्रदूषण सभ्य, शिक्षित एवं संभ्रांत कहे जाने वाले लोगो में भी सामान्य रूप से पाया जाता है। शहरों के तथाकथित विकसित एवं जागरूकता वाले माहौल में भी इस आदिम बर्बता ने कन्या भ्रूणों की हत्या का रूप ले लिया है। इसे नैतिक पतन की पराकाष्ठा ही कह सकते है कि जीवन रक्षा की शपथ लेने वाले चिकित्सक ही कन्या भ्रूणों के हत्यारे बने बैठे है।


अस्तित्व पर संकट के अतिरिक्त बालिकाओ को पोषणए स्वास्थए शिक्षा आदि हर क्षेत्र में भेदभाव का शिकार होना पडता है।वास्तव में अभिभावकों की संकीर्ण मानसिकता एवं समाज की अंध परंपराएं ही वे मूल कारण हैं जो पुत्र एवं पुत्री में भेद भाव करने हेतू बाध्य करते हैं। हमारे रीति - रिवाजों एवं समाजिक व्यवस्था के कारण भी बेटा और बेटी के प्रति सोच में दरार पैदा हुई है।
अधिकांश माता - पिता समझते है कि बेटा जीवनपर्यंत उनके साथ रहेगा उनका सहारा बनेगा । हलांकि आज के समय में पुत्र को बुढापे का लाठी मानना एक धोखा ही है। लडकियों के विवाह में दहेज की समस्या के कारण भी माता - पिता कन्या जन्म के स्वागत नहीं कर पाते । समाज में वंश - परंपरा का पोषक लडको को ही माना जाता है। ऐसे में पुत्र कामना ने मानव मन को इतनी गहराई तक कुंठीत कर दिया है कि कन्या संतान की कामना या जन्म दोनो अब अनेपेक्षित माना जाने लगा हैं।

भारत सरकार ने एक राष्टीय कार्य योजना बनाई है, जिसका मुख्य उद्देश्य पारिवारिक एवं समाजिक परिवेश में बालिकाओं के प्रति सामानतापूर्ण व्यवहार को बढावा देना है। सरकारी कार्यक्रमों गैर सरकारी संगठनों के प्रयास एवं मीडिया के प्रचार - प्रसार से कुछ हद तक जनमानस में बदलाव अवश्य आया है , परंतु निम्न मध्यम वर्ग एवं गरीब परिवारो में अभी भी लैंगिक भेद भाव जारी है। जहॉं बालिकाओ का जीवन पारिवारिक उपेक्षा , असुविधा एवं प्रोत्साहनरहित वातावरण में व्यतीत होता है। जहॉं उनका शरीर प्रधान होता है, मन नहीं। समर्पण मुख्य होता है, इच्छा नहीं। बंदिश प्रमुख है, स्वतंत्रता नहीं।


बदलते हुए वातावरण के साथ अब ऐसी मान्याताओ से उपर उठना होगा। बालिकाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी। अब तक किये गए शोषण और उपेक्षा के बाद भी जहॉं भी उन्हे मौका मिला है वे सदा अग्रणी रही हैं। इक्कीसवीं सदी नारी वर्चस्व का संदेश लेकर आई हैं।अगर हम अब भी सचेत नहीं हुए तो हमें इसकी कीमत चुकानी पडेगी । अगर हम अपनी सोच नही बदले तो फिर भविष्य में हमें राष्ट्पति प्रतिभा पाटिल , लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार और मायावती जैसी सफल महिला हस्तियों से वंचित होना पडेगा। इस लिए समाज में फैले कन्या भ्रूण हत्या जैसे पाप को रोकने के लिए जल्द से जल्द सफल प्रयास करना चाहिए ।
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क्रांतिवीर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस-------मिथिलेश

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यूँ तो नेताजी कब इस दुनिया को छोड़ गये यह आज भी रहस्य बना हुआ है लेकिन ऐसा मना जाता है कि 18 अगस्त या 16 सितम्बर 1945 को आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि है नेताजी 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए । उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर के खिताब से नवाजा था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव

कोलकाता के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष, दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की थी। वह रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत वापस आए और सर्वप्रथम मुम्बई जा कर महात्मा गाँधी से मिले। मुम्बई में गाँधीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ, 20 जुलाई 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई। गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू कोलकाता आ गए और दासबाबू से मिले। दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। उन दिनों गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया था। दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेजी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की।

1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा। 26 जनवरी 1931 के दिन कोलकाता में सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को तैयार नहीं थे। अंततः भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने के कारण सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तौर-तरीकों से बहुत नाराज हो गए।

कारावास

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ था। सबसे पहले उन्हें 1921 में छः महिने की जेल हुई। 1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दे दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव माँगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेजों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों के नेता हैं। इसी बहाने अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित काल के लिए म्यांमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए। 1930 में कारवास के दौरान ही सुभाषबाबू को कोलकाता का महापौर चुन लिया गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी।

1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर खराब हो गयी। चिकित्सकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए यूरोप जाने को राजी हो गए।यूरोप प्रवास 1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे। यूरोप में भी आंदोलन कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी. वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए। जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया। बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिसमें उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया। विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उस पर अदालत में मुकदमा चलाया। मुकदमा जीतकर पटेल ने सारी संपत्ति गाँधीजी के हरिजन कार्य को भेंट कर दी। 1934 में अपने पिता की मृत्यु की खबर पाकर सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिनों तक जेल में रखने के बाद वापस यूरोप भेज दिया।

कांग्रेस का अध्यक्ष पद

सन 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का ५१वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा

1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

सब यही जानता थे कि महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया है इसलिए वह चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में हुआ इसके ठीक विपरीत, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए। मगर, बात यहीं खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू की कार्यपद्धति से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहे और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बने रहे। 1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड़ गए थे, कि उन्हें स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथियों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

नजरबंदी से पलायन

नजरबंदी से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे़ बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर ने उनकी मुलाकात कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कराई। भगतराम तलवार के साथ में सुभाषबाबू पेशावर से अफ्गानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे़। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे।

काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होंने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर उन्होंने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाषबाबू काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गए।

हिटलर से मुलाकात

उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदर में अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँच गए। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।

पूर्व एशिया में अभियान

पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया। जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।
21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आजाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आजाद हिन्द फौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा।
जब आजाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकडों मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आजाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता का संबोधन कर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा। इस प्रकार नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।

मृत्यु का अनुत्तरित रहस्य

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला। 23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ली। दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्चय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी टोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए 1956 और 1977 में दो बार आयोग का गठन किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु, उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
साभार विकिपीडिया

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शनिवार, जनवरी 22, 2011
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बीतेंवर्ष भारत में हुए कई घोटालो और भ्रष्टाचारो से देश जूझतां रहा । हमें लोभ और मोह के आवांछनीय अंधकार से उपर उठना चाहिए। परिवार के लालन-पालन के लिए,शरीर निर्वाह के लिए हमें उचित की सीमा में ही रहकर कार्य करना चाहिए । लोभवश द्यन कुबेर बनने की आकांक्षा से और स्त्री-बच्चो को राजा, रानी बनाने की संकीर्ण मानसिकता से उपर उठना चाहिए । अपना उत्तरदायी आत्मकल्याण का भी है, और समाज का ऋण चुकाने का भी। भौतिक पक्ष के उपर सारा जीवन रस टपका दिया जाए और आत्मिक पक्ष प्यासा ही रहे , ये जीवन का अत्यंत भयंकर दुर्भाग्य और कष्टकारी दुर्घटना होगी । हमें नित्य ही लेखा जोखा लेते रहना चाहिए कि भौतिक पक्ष को हम आधे से अधिक महत्व तो नहीं दे रहे है। कहीं आत्मिक पक्ष के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है।

ज्ञात रहे कि आत्म निर्माण से ही राष्ट् निर्माण संभव है। हम अकेले चलें। सूर्य चंद्र की तरह अकेले चलने मे हमें तनिक भी संकोच न हो । अपने आस्थाओ को दूसरे के कहें सुने अनुसार नहीं वरन् अपने स्वतंत्र चिंतन के आधार पर विकसित करें। अंधी भेड़ो की तरह झुंड का अनुगमन करने की मनोवृति छोड़ें। सिंह की तरह अपना मार्ग अपनी विवेक चेतना के आधार पर स्वयं निर्द्यारित करें। सही को अपनाने और गलत को छोड़ देने का साहस ही युग निर्माण परिवार के परिजनों की वह पूंजी है जिसके आधार पर वे युग साधना के वेला में ईश्वर प्रदत उत्तरदायित्व का सही रीति से निर्वाह कर सकेगें। अपने अन्दर ऐसी क्षमता पैदा करना हमारे लिए उचित भी है और आवश्यक,भी।
हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए ईटां का समूह इमारत के रूप में; बूंदो का समूह समुन्द्र के रूप में , रेशो का समूह रस्सो के रूप में दिखाई पड़ता है। मनुष्यों के संगठीत समूह का नाम ही समाज है। जिस समय के मनुष्य जिस समाज के होते है वैसा ही समूह, समाज, राष्ट् और विश्व बन जाता है। युग परिवर्तन का मतलब है मनुष्यों का वर्तमान स्तर बदल देना ।
यदि लोग उत्कृष्ट स्तर पर सोचने लगे तो कल ही उसकी प्रतिक्रिया स्वर्गीय परिस्थितियो के रूप में सामने आ सकती है। युग परिवर्तन का आधार,जनमानस का स्तर उचा उठा देना । युग निर्माण का अर्थ है भावनात्मक नवनिर्माण । अपने महान अभियान का केन्द्र बिन्दु यही है। युग परिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्य,व्यक्ति निर्माण से आरंभ करना होगा और इसका सबसे प्रथम कार्य है आत्मनिर्माण । दुसरो का निर्माण करना कठिन ही है। दुसरे आप की बात न माने ये संभव है लेकिन अपने को तो अपनी बात मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमें नवनिर्माण का कार्य यही से प्रारंभ करना चाहिए। अपने आप को बदलकर युग परिवर्तन का शुभारंभ करना चाहिए।

प्रभावशाली व्यक्तित्व अपनी प्रखर कार्यपद्धती से दुसरो को अपना अनुवायी बनाते है।संसार में समस्त महापुरूषो का यही इतिहास रहा है। उन्हे दुसरो से जो कहना था या कराना था उसे वे स्वंय करके उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत किये और अपनी बात मनाने में सफलता प्राप्त की।
बुद्ध ने स्वयं घर त्यागा तो उनके अनुवायी करोड़ो युवक,युवतियां उसी मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गए। गांधी जी को जों दूसरो से कराना था; पहले उन्होने उसे स्वयं किया। यदि वे केवल उपदेश देते और अपना आचरण विपरीत प्रकार का रखते तो,उनके प्रतिपादन को बुद्धिसंगत भर बताया जाता, कोई अनुकरण करने को तैयार न होता । जहॉ तक व्यक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है वह परिवर्तित व्यक्ति का आदर्श सामने आने पर ही संभव है। बुद्ध; गॉधी और हरिश्चंद्र आदि ने अपने को सॉचा बनाया तब कहीं दूसरे खिलौने , दूसरे व्यक्त्वि उसमें ढलने शुरू हुए ।

युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को यह देखना है कि वह लोगो को क्या बनाना चाहता है; उनसे क्या कराना चाहता है। उसे उसी कार्य पद्धति को, विचार शैली को पहले अपने उपर उतारना चाहिए, फिर अपने विचार और आचरण का सम्मिश्रण एक अत्यंत प्रभावशाली शक्ति उत्पन्न करेगा । अपनी निष्ठा कितनी प्रबल है इसकी परीक्षा पहले अपने उपर ही करनी चाहिए।यदि आदर्शो को मनवाने के लिए अपना आपा हमने सहमत कर लिया तो निसंदेह अगणीत व्यक्ति हमारे समर्थक , सहयोगी, अनुवायी बनते चले जायेगें। फिर युग परिवर्तन अभियान में कोई व्यवधान शेष न रह जायेगा ।

व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को व्यवस्थित; चरित्रवान , सद्गुणी सम्पन्न बनाने की अपनी शिक्षा पद्धति है। उसे हमें व्यवहारिक जीवन में उतारना चाहिए । समय की पाबंदी, नियमितता; श्रमशीलता, स्वच्छता, वस्तुओं की व्यवस्था जैसी छोटी-छोटी आदतें ही उसके व्यक्त्वि को निखारती उभारती है।
युग परिवर्तन का अर्थ है , व्यक्ति परिवर्तन और यह महान प्रक्रिया अपने से आरंभ होकर दुसरो पर प्रतिध्वनित होती है। यह तथ्य हमें अपने मन , मस्तिष्क में बैठा लेना चाहिए कि दुनियॉ को पलटना जिस उपकरण के माध्यम से किया जा सकता है वह अपना व्यक्त्वि ही है। भले ही प्रचार और भाषण करना न आये पर यदि हम अपने को ढालने में सफल हो गये उतने भर में भी हम असंख्य लोगो को प्रभावित कर सकते है। अपना व्यक्त्वि हर दृष्टि में आदर्श उत्कृष्ट और सुधारने बदलने के लिए हम चल पड़े तो निश्चित रूप से हमें निर्धारित लक्ष्य तक पहुचने में तनिक भी कठिनाई न होगी।
अतः प्रत्येक व्यक्ति अपने विकाश के लिए ही प्रयत्न करे और अपने को अच्छे इन्सान की तरह लोगो के सामने पेश करें तो वो दिन दूर नहीं जब हम एक अच्छे और सम्पन्न राष्ट् का निर्माण करेगें ।

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नवगीत गोल क्यों? नवगीत घोंसले में नवगीत छोडो हाहाकार मियाँ! नवगीत जगो सूर्य आता है नवगीत त्रिपदिक नवगीत दर्पण का दिल नवगीत दिवाली नवगीत नव वर्ष नवगीत नागफनी उग आयी नवगीत निर्माणों के गीत नवगीत पहले गुना नवगीत भटक न जाए नवगीत भीड़ में नवगीत मिली दिहाडी नवगीत में नए रुझान नवगीत राम बचाए नवगीत रार ठानते नवगीत लोकतंत्र का पंछी नवगीत वह खासों में खास है नवगीत शिव नवगीत संक्रांति काल है नवगीत संग्रह नवगीत सत्याग्रह के नाम पर नवगीत समय वृक्ष नवगीत समीक्षा नवगीत सड़क पर नवगीत सड़क पर... नवगीत: उगना नित नवगीत: उड़ चल हंसा नवगीत: दीन प्रदर्शन नवगीत: नाम बड़े हैं नवगीत: भाग्य कुंडली नवगीत: लोकतंत्र का पंछी बेबस नवगीत: कुण्डी खटकी नवगीत: छोडो हाहाकार मियाँ! नवगीत: बजा बाँसुरी नवगीत: भारत आ रै नवगीत: रब की मर्ज़ी नवभारत टाईम्स नशा नाक की सर्जरी नाग नाभिक ऊर्जा नारि नारी मुक्ति नारी-भाव नाश प्रकृति का निर्निमेष निर्विकार निष्काम कर्म निष्ठुरता नीति व्यवहार नीति-नियम नीति-व्यवहार नीलकंठ नेकियां नेह नर्मदा तीर पर नेह-नाता नैतिकता नैन-डोर नैना नौ कन्या न्यू-ईयर गिफ्ट नज़र नज़ारा पंचौदन अजः पद चिन्ह पद-चिन्ह पद्मिनी परब्रह्म परम-पिता परमाणु परमानंद परमार्थ परलोक परहित पराग पराया-धन पल- छिन पशु पहलू पाँच पर्व पायल पिचकारी पीयूषवर्ष छंद पीर पुरुषार्थ पुरोवाक : यह बगुला मन पुरोवाक ओस की बूँद पुरोवाक केरल एक झाँकी पुरोवाक बुधिया लेता टोह पुरोवाक् पुलिस पूजा पूर्ण-ब्रह्म पूर्णकाम पृथ्वी पैरोडी पोखर ठोके दावा प्यार प्रकृति प्रकृति दोहन प्रकृति बादल प्रजापति प्रणम्य शहीद प्रणय प्रणय -दीप प्रणय के पल प्रतिकण प्रतियोगिता प्रत्रकार प्रदूषण प्रभाव प्रभु प्रभु ज्ञान प्रश्न मन के प्राण शर्मा प्रातस्मरण स्तोत्र प्रिय प्रवास प्रीति के रंग प्रीति-चलन प्रेम के छःलक्षण प्रेम प्याला प्रेम ममता फरवरी कब क्या? फागुन बंगलोर . कर्णाटक बंगालूरू बंधन व मुक्ति नारी बगीचा बच्चे बजरंग बली बद्दुआ बन्गलूरू बबिता चौबे बयान बरसाना बरसानौ बलि बसंत पंचमी बसंत मुक्तक बसंतोत्सव/मदनोत्सव बहादुरी बहु बहुरंगी संस्कृति बांगला बाढ़ ने बिगाड़ा पशुपालन कारोबार बात बापू बाबा अम्बेडकर साहब बाबा संस्कृति बारह-सोलह वर्णिक छंद बाल कविता बाल कविता : तुहिना-दादी बाल कविता अंशू-मिंशू और भालू बाल कविता कौआ स्नान बाल गीत : ज़िंदगी के मानी बाल गीत पाई शाल बाल नवगीत सूरज बबुआ! बासंती दोहा ग़ज़ल बिग-बेंग बिगबेंग बिरसा मुंडा बुंदेली नवगीत बूढ़ा बरगद कथा-गीत बेटियाँ बेदिल बेनज़ाइटन ब्रह्म ब्रह्मजीत गौतम ब्रह्मा ब्रह्माण्ड ब्रिषभानु ब्लागिंग ब्लॉगरों का सम्मान ब्लोग नगरी ब्लोगोत्सव- २०१० भगवती प्रसाद देवपुरा भगवा रंग भवन निर्माण भविष्य भारत आरती भारत की रमणियाँ भारत जय हिन्द भारत भूमि भारत माता भारत रत्न भारतीय मुद्रा पर गाँधी भाव सप्रेषण भाषा भाषा सेतु भाषाविज्ञान भूख भेदाभेद परे भ्रष्टाचार मंजिल मंदिर मस्जिद मटुकी मतदाता मत्तगयंद सवैया मथानी मथुरा मदरसे मधु कल्पना मधुपुरी मधुर मधुर निनाद मन का निर्मलेी मन विहग मन-मीत मनाना मनुहार मनोरंजन मनोरजंन मन्त्र पल मर्दों में यौन कुंठा मर्यादा मलेशिया मस्ज़िद-मन्दिर महक महात्मा गाँधी पर मार्टिन लूथर किंग महादेवी महान देश महिला सेवा समिति महेश महफ़िल माखन माघ माता मात्रा गणना माधुरी गुप्ता मानव -कृत्य मानव के विस्तार मानव जातीय छंद मानो या न मानो माहिया किसान माहिया गीत माहिया दिवाली माहेश्वरी-प्रजा मिट गये मिथिलेश मिथिलेश दुबे मिथिलेश दुब मिथिलेश दुबे लेख महिंला मिलन मिस्र में विद्रोह मीरा मुकतक मुक्तक कार्यशाला मुक्तक छंद सलिला मुक्तक बसंत मुक्तक भूगोलीय मुक्तक में गणित मुक्तक हाइकु मुक्तिका मन से डरिए मुक्तिका हे माधव ! मुक्तिका किस्सा नहीं हूँ मुक्तिका बसंत मुक्तिका मन मुक्तिका यमक मुक्तिका राजस्थानी मुक्तिका रात मुक्तिका व्यंग्य मुक्तिका: न होता मुजाहिद मुन्ना भाई मुरारीलाल खरे मुलाक़ात मुस्कराहट मुहब्बत ए इलाही मुहब्बतनामा मूल मूलभूत सुविधाएं मूल्यांकन मेघ मेरा देश मेरे भैया मेरे मन मेले मैं -तू मैं करता तब मैथुनी-भाव मॉल संस्कृति मोक्ष मोमिन मोर मुकुट मोहन शशि मौसम मौसम अंगार है यकीं यक्ष प्रश्न यक्ष प्रश्न २ यक्ष प्रश्न ३ - जात और जाति यक्ष-प्रश्न यम-यमी यमकमयी मुक्तिका यश मालवीय यशवंत याद में तेरी जाग-जाग के युवा दिवस युवा प्रतिभा सम्मान युवावर्ग यूपीखबर 'DR. 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आप सभी को हर्ष और बधाई के साथ यह सूचना देना चाहता हूँ कि LBA अपनी सफलता के उस मुक़ाम तक आ चुका है कि इसकी सदस्यता संख्या अपने चरण तक पहुँच चुकी है और जो ब्लॉगर्स बन्धु इससे जुड़ने की इच्छा रख रहे हैं और जिनके मेल मुझे मिल रहे हैं उसको मद्देनज़र रखते हुए नयी सदस्यता के इच्छुक ब्लॉगर्स को एक और भी शक्तिशाली और नया मंच का गठन आज किया जा रहा है जिसका नाम है 'ऑल इंडिया ब्लॉगर्स असोसिएशन' अर्थात AIBA ! इस मंच का हिस्सा सभी भारतीय बन सकते है, फ़िर चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में रह रहें हों !!!
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