बीतेंवर्ष भारत में हुए कई घोटालो और भ्रष्टाचारो से देश जूझतां रहा । हमें लोभ और मोह के आवांछनीय अंधकार से उपर उठना चाहिए। परिवार के लालन-पालन के लिए,शरीर निर्वाह के लिए हमें उचित की सीमा में ही रहकर कार्य करना चाहिए । लोभवश द्यन कुबेर बनने की आकांक्षा से और स्त्री-बच्चो को राजा, रानी बनाने की संकीर्ण मानसिकता से उपर उठना चाहिए । अपना उत्तरदायी आत्मकल्याण का भी है, और समाज का ऋण चुकाने का भी। भौतिक पक्ष के उपर सारा जीवन रस टपका दिया जाए और आत्मिक पक्ष प्यासा ही रहे , ये जीवन का अत्यंत भयंकर दुर्भाग्य और कष्टकारी दुर्घटना होगी । हमें नित्य ही लेखा जोखा लेते रहना चाहिए कि भौतिक पक्ष को हम आधे से अधिक महत्व तो नहीं दे रहे है। कहीं आत्मिक पक्ष के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है।
ज्ञात रहे कि आत्म निर्माण से ही राष्ट् निर्माण संभव है। हम अकेले चलें। सूर्य चंद्र की तरह अकेले चलने मे हमें तनिक भी संकोच न हो । अपने आस्थाओ को दूसरे के कहें सुने अनुसार नहीं वरन् अपने स्वतंत्र चिंतन के आधार पर विकसित करें। अंधी भेड़ो की तरह झुंड का अनुगमन करने की मनोवृति छोड़ें। सिंह की तरह अपना मार्ग अपनी विवेक चेतना के आधार पर स्वयं निर्द्यारित करें। सही को अपनाने और गलत को छोड़ देने का साहस ही युग निर्माण परिवार के परिजनों की वह पूंजी है जिसके आधार पर वे युग साधना के वेला में ईश्वर प्रदत उत्तरदायित्व का सही रीति से निर्वाह कर सकेगें। अपने अन्दर ऐसी क्षमता पैदा करना हमारे लिए उचित भी है और आवश्यक,भी।
हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए ईटां का समूह इमारत के रूप में; बूंदो का समूह समुन्द्र के रूप में , रेशो का समूह रस्सो के रूप में दिखाई पड़ता है। मनुष्यों के संगठीत समूह का नाम ही समाज है। जिस समय के मनुष्य जिस समाज के होते है वैसा ही समूह, समाज, राष्ट् और विश्व बन जाता है। युग परिवर्तन का मतलब है मनुष्यों का वर्तमान स्तर बदल देना ।
यदि लोग उत्कृष्ट स्तर पर सोचने लगे तो कल ही उसकी प्रतिक्रिया स्वर्गीय परिस्थितियो के रूप में सामने आ सकती है। युग परिवर्तन का आधार,जनमानस का स्तर उचा उठा देना । युग निर्माण का अर्थ है भावनात्मक नवनिर्माण । अपने महान अभियान का केन्द्र बिन्दु यही है। युग परिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्य,व्यक्ति निर्माण से आरंभ करना होगा और इसका सबसे प्रथम कार्य है आत्मनिर्माण । दुसरो का निर्माण करना कठिन ही है। दुसरे आप की बात न माने ये संभव है लेकिन अपने को तो अपनी बात मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमें नवनिर्माण का कार्य यही से प्रारंभ करना चाहिए। अपने आप को बदलकर युग परिवर्तन का शुभारंभ करना चाहिए।
प्रभावशाली व्यक्तित्व अपनी प्रखर कार्यपद्धती से दुसरो को अपना अनुवायी बनाते है।संसार में समस्त महापुरूषो का यही इतिहास रहा है। उन्हे दुसरो से जो कहना था या कराना था उसे वे स्वंय करके उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत किये और अपनी बात मनाने में सफलता प्राप्त की।
बुद्ध ने स्वयं घर त्यागा तो उनके अनुवायी करोड़ो युवक,युवतियां उसी मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गए। गांधी जी को जों दूसरो से कराना था; पहले उन्होने उसे स्वयं किया। यदि वे केवल उपदेश देते और अपना आचरण विपरीत प्रकार का रखते तो,उनके प्रतिपादन को बुद्धिसंगत भर बताया जाता, कोई अनुकरण करने को तैयार न होता । जहॉ तक व्यक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है वह परिवर्तित व्यक्ति का आदर्श सामने आने पर ही संभव है। बुद्ध; गॉधी और हरिश्चंद्र आदि ने अपने को सॉचा बनाया तब कहीं दूसरे खिलौने , दूसरे व्यक्त्वि उसमें ढलने शुरू हुए ।
युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को यह देखना है कि वह लोगो को क्या बनाना चाहता है; उनसे क्या कराना चाहता है। उसे उसी कार्य पद्धति को, विचार शैली को पहले अपने उपर उतारना चाहिए, फिर अपने विचार और आचरण का सम्मिश्रण एक अत्यंत प्रभावशाली शक्ति उत्पन्न करेगा । अपनी निष्ठा कितनी प्रबल है इसकी परीक्षा पहले अपने उपर ही करनी चाहिए।यदि आदर्शो को मनवाने के लिए अपना आपा हमने सहमत कर लिया तो निसंदेह अगणीत व्यक्ति हमारे समर्थक , सहयोगी, अनुवायी बनते चले जायेगें। फिर युग परिवर्तन अभियान में कोई व्यवधान शेष न रह जायेगा ।
व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को व्यवस्थित; चरित्रवान , सद्गुणी सम्पन्न बनाने की अपनी शिक्षा पद्धति है। उसे हमें व्यवहारिक जीवन में उतारना चाहिए । समय की पाबंदी, नियमितता; श्रमशीलता, स्वच्छता, वस्तुओं की व्यवस्था जैसी छोटी-छोटी आदतें ही उसके व्यक्त्वि को निखारती उभारती है।
युग परिवर्तन का अर्थ है , व्यक्ति परिवर्तन और यह महान प्रक्रिया अपने से आरंभ होकर दुसरो पर प्रतिध्वनित होती है। यह तथ्य हमें अपने मन , मस्तिष्क में बैठा लेना चाहिए कि दुनियॉ को पलटना जिस उपकरण के माध्यम से किया जा सकता है वह अपना व्यक्त्वि ही है। भले ही प्रचार और भाषण करना न आये पर यदि हम अपने को ढालने में सफल हो गये उतने भर में भी हम असंख्य लोगो को प्रभावित कर सकते है। अपना व्यक्त्वि हर दृष्टि में आदर्श उत्कृष्ट और सुधारने बदलने के लिए हम चल पड़े तो निश्चित रूप से हमें निर्धारित लक्ष्य तक पहुचने में तनिक भी कठिनाई न होगी।
अतः प्रत्येक व्यक्ति अपने विकाश के लिए ही प्रयत्न करे और अपने को अच्छे इन्सान की तरह लोगो के सामने पेश करें तो वो दिन दूर नहीं जब हम एक अच्छे और सम्पन्न राष्ट् का निर्माण करेगें ।
सत्यबचन महाराज़...
आपके ब्लॉग मै पहली बार आई और आपके इतने सुन्दर विचार जानकर बहुत ख़ुशी हुई मेरे अधिकतर लेख आपकी बातों अनुसार ही लिखे गये हैं एसा लग रहा था जेसे अपने लेख ही पड़ रही हु बहुत सुन्दर विचार हैं आपके दोस्त !
बहुत ही खुबसूरत रचना !
ये मेरे लिखे लेख की कुछ लाइनें हैं .....................
स्वतंत्रता एक क्रांति का नाम है वो हमे भविष्य में आगे ले जा सकती है क्रांति तभी संभव हो सकती है जब हम पुराने को छोड़ कर नए को अपनाने की हिम्मत कर सके पर ये सब करना हमारे लिए बहुत मुश्किल काम है पर असंभव नहीं ! इसका कारण ये है की हम पुराने से अच्छी तरह से वाकिफ होते हैं और हम उसके अच्छे बुरे से भली भांति परिचित होते हैं इसलिए बार २ उसी तरफ बढ जाते हैं बेशक उससे हमे कितनी भी तकलीफ क्यु न हो रही हो क्युकी हमे उसकी आदत जो पड़ गई है ! नए को अपनाने में हमे घबराहट होती है क्युकी उसके बारे में हम कुछ नहीं जानते इसलिए उसे अपनाने की हिम्मत......ही नहीं जुटा पाते और वही घिसी पीटी जिंदगी जीते चले जाते हैं और उसी में संतोष करते रहते हैं ! जबकि संतोष में सुख नहीं बल्कि सुखी इन्सान में संतोष होता है ! इसलिए हमे अगर जीवन में क्रांति लानी है तो हमे पुराने का त्याग करके नए को धारण करना ही होगा !
sundar aalekh.