
Kafir "काफ़िर" , ये शब्द किन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है?(
मनुज said...
आपकी इस बात से पूर्ण सहमत कि अपने माता-पिता का आदर करना ही चाहिए.लेकिन विषयांतर करके कुछ प्रश्नों का जवाब चाहता हूँ... कृपया निम्न बातों का जवाब दें,प्रश्न १:- आप ये बताएं कि इस्लाम में "परमेश्वर एक है" इस बात पर इतना जोर क्यूँ है? ईश्वर एक है या अनेक, क्या ये प्रश्न बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है? अगर है तो कैसे ?प्रश्न २:- "काफ़िर" , ये शब्द किन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है?(१)एक ईश्वर को मानने वालों के लिए (२)अनेकों देवी-देवताओं को मानने वालों के लिए (३)ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वालों के लिए प्रश्न ३:- क्या इस्लाम के अनुसार उस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर को कोई फर्ख पड़ेगा कि धराचर (धरतीवासी) उसकी सत्ता को मानने से इनकार कर दें?साथ ही उन धरतीवासियों पर क्या फर्ख पड़ेगा? क्या उन्हें ईश्वर के कोप का भाजन बनना पड़ेगा? प्रश्न ४:- क्या एक ईश्वर में विश्वास के लिए इस्लाम में दीक्षित होना और कलमा पढ़ना आवश्यक है? क्या इसके बगैर एक ईश्वर में विश्वास करना संभव नहीं है? और क्या वे लोग जो एक ईश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन कलमा इत्यादि कोई भी इस्लामिक कर्मकांड नहीं करते है तो प्रश्न संख्या २ के अनुसार वे काफ़िर कहलाने के अधिकारी हैं अथवा मुसलमान कहलायेंगे या कोई तीसरी केटेगरी में उनको डाला जायेगा? आपके उत्तर में आपसे आशा करता हूँ कि, आप किसी भी धर्मग्रन्थ को उद्धृत नहीं करेंगे, और सामान्य तर्क विद्या का प्रयोग करके समझायेंगे, जिससे कि मुझ जैसा सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आत्मसात कर लेगा.
@ प्रिय मनुज जी ! आपके प्रेमपूर्ण सवालों का स्वागत है। मैं किसी हिन्दू धर्मग्रन्थ को उद्धृत किये बिना ही आपको उत्तर दूंगा जैसा कि आपका आग्रह है।
1 व 2 -सच को जानने मानने में ही इनसान का कल्याण है । सच को मानने का नाम ईमान है और सच का इनकार करना कुफ़्र कहलाता है। ईश्वर एक है यह बात हरेक धर्म के ग्रन्थ कहते हैं। ईश्वर को एक और वास्तविक राजा माने बिना कोई भी आदमी सही रास्ते पर नहीं चल सकता क्योंकि फिर हरेक आदमी अपनी समझ के हिसाब से दावा करेगा कि सही वह है जो वह कह रहा है । इन बहुत से दावेदारों के दरम्यान कभी भी फ़ैसला न हो पाएगा कि वास्तव में सही क्या है?
यही वजह है कि बहुत से मुल्कों में समलैंगिकों के विवाह को जायज़ क़रार दे दिया गया है।
3- उस सर्वशक्तिमान को तो कोई अन्तर न पड़ेगा लेकिन अगर हमने उसके द्वारा निर्धारित हक़ अदा न किये तो ताक़तवर लोग कमज़ोरों का ख़ून चूस लेंगे और उनके लिए जीना मुश्किल और मरना आसान हो जाएगा। आप देख ही रहे हैं कि आज मज़दूर किसान और ग़रीब किस तरह आत्महत्या कर रहे हैं ?
4- किसी भी विचारधारा को मानने के लिए उसके बुनियादी सिद्धान्तों में विश्वास व्यक्त करना ज़रूरी है। आप किसी भी भाषा में कलिमे का भाव ग्रहण कर सकते हैं। शब्दों की पाबन्दी ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर बात सही है तो फिर किसी भी भाषा से नफ़रत और परहेज़ क्यों?
ईश्वर में विश्वास का अर्थ मात्र उसका गुणकीर्तन करना ही नहीं है बल्कि ईश्वर के विधान के अनुसार आचरण करना भी है। आज जो लोग ईश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं और वे अपने पास ईश्वर की ओर से ऋषियों द्वारा प्रतिपादित कोई व्यवस्था होना भी बताते हैं वे आज के समय में उस पर अमल नहीं कर पा रहे हैं जैसे कि मनुस्मृति का विधान।
ईसाई साहिबान भी मूसा अलैहिस्सलाम के विधान को निरस्त कर चुके हैं।
अतः ईश्वरीय विधान के अनुसार आचरण करने के लिए इस्लाम में दीक्षित होना ज़रूरी है लेकिन अगर कोई आदमी इस्लाम के सत्य होने के बारे में संतुष्ट नहीं है और अपने धर्म को ही सत्य मानता है तो फिर पवित्र कुरआन उससे आह्वान करता है कि वह उस विधान का पूर्ण समर्पण भाव से पालन करे जिसे वह सत्य मानता है लेकिन अगर कोई उस विधान का भी पालन न करे जिसे वह सत्य मानता है तो फिर वह वासनाजीवी है और उसे कभी कल्याण नसीब होने वाला नहीं है।
उम्मीद है आपको अपने सवालों का जवाब मिल गया होगा।
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आपकी इस बात से पूर्ण सहमत कि अपने माता-पिता का आदर करना ही चाहिए.लेकिन विषयांतर करके कुछ प्रश्नों का जवाब चाहता हूँ... कृपया निम्न बातों का जवाब दें,प्रश्न १:- आप ये बताएं कि इस्लाम में "परमेश्वर एक है" इस बात पर इतना जोर क्यूँ है? ईश्वर एक है या अनेक, क्या ये प्रश्न बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है? अगर है तो कैसे ?प्रश्न २:- "काफ़िर" , ये शब्द किन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है?(१)एक ईश्वर को मानने वालों के लिए (२)अनेकों देवी-देवताओं को मानने वालों के लिए (३)ईश्वर के अस्तित्व को नकारने वालों के लिए प्रश्न ३:- क्या इस्लाम के अनुसार उस सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर को कोई फर्ख पड़ेगा कि धराचर (धरतीवासी) उसकी सत्ता को मानने से इनकार कर दें?साथ ही उन धरतीवासियों पर क्या फर्ख पड़ेगा? क्या उन्हें ईश्वर के कोप का भाजन बनना पड़ेगा? प्रश्न ४:- क्या एक ईश्वर में विश्वास के लिए इस्लाम में दीक्षित होना और कलमा पढ़ना आवश्यक है? क्या इसके बगैर एक ईश्वर में विश्वास करना संभव नहीं है? और क्या वे लोग जो एक ईश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन कलमा इत्यादि कोई भी इस्लामिक कर्मकांड नहीं करते है तो प्रश्न संख्या २ के अनुसार वे काफ़िर कहलाने के अधिकारी हैं अथवा मुसलमान कहलायेंगे या कोई तीसरी केटेगरी में उनको डाला जायेगा? आपके उत्तर में आपसे आशा करता हूँ कि, आप किसी भी धर्मग्रन्थ को उद्धृत नहीं करेंगे, और सामान्य तर्क विद्या का प्रयोग करके समझायेंगे, जिससे कि मुझ जैसा सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आत्मसात कर लेगा.
@ प्रिय मनुज जी ! आपके प्रेमपूर्ण सवालों का स्वागत है। मैं किसी हिन्दू धर्मग्रन्थ को उद्धृत किये बिना ही आपको उत्तर दूंगा जैसा कि आपका आग्रह है।
1 व 2 -सच को जानने मानने में ही इनसान का कल्याण है । सच को मानने का नाम ईमान है और सच का इनकार करना कुफ़्र कहलाता है। ईश्वर एक है यह बात हरेक धर्म के ग्रन्थ कहते हैं। ईश्वर को एक और वास्तविक राजा माने बिना कोई भी आदमी सही रास्ते पर नहीं चल सकता क्योंकि फिर हरेक आदमी अपनी समझ के हिसाब से दावा करेगा कि सही वह है जो वह कह रहा है । इन बहुत से दावेदारों के दरम्यान कभी भी फ़ैसला न हो पाएगा कि वास्तव में सही क्या है?
यही वजह है कि बहुत से मुल्कों में समलैंगिकों के विवाह को जायज़ क़रार दे दिया गया है।
3- उस सर्वशक्तिमान को तो कोई अन्तर न पड़ेगा लेकिन अगर हमने उसके द्वारा निर्धारित हक़ अदा न किये तो ताक़तवर लोग कमज़ोरों का ख़ून चूस लेंगे और उनके लिए जीना मुश्किल और मरना आसान हो जाएगा। आप देख ही रहे हैं कि आज मज़दूर किसान और ग़रीब किस तरह आत्महत्या कर रहे हैं ?
4- किसी भी विचारधारा को मानने के लिए उसके बुनियादी सिद्धान्तों में विश्वास व्यक्त करना ज़रूरी है। आप किसी भी भाषा में कलिमे का भाव ग्रहण कर सकते हैं। शब्दों की पाबन्दी ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर बात सही है तो फिर किसी भी भाषा से नफ़रत और परहेज़ क्यों?
ईश्वर में विश्वास का अर्थ मात्र उसका गुणकीर्तन करना ही नहीं है बल्कि ईश्वर के विधान के अनुसार आचरण करना भी है। आज जो लोग ईश्वर में विश्वास रखने का दावा करते हैं और वे अपने पास ईश्वर की ओर से ऋषियों द्वारा प्रतिपादित कोई व्यवस्था होना भी बताते हैं वे आज के समय में उस पर अमल नहीं कर पा रहे हैं जैसे कि मनुस्मृति का विधान।
ईसाई साहिबान भी मूसा अलैहिस्सलाम के विधान को निरस्त कर चुके हैं।
अतः ईश्वरीय विधान के अनुसार आचरण करने के लिए इस्लाम में दीक्षित होना ज़रूरी है लेकिन अगर कोई आदमी इस्लाम के सत्य होने के बारे में संतुष्ट नहीं है और अपने धर्म को ही सत्य मानता है तो फिर पवित्र कुरआन उससे आह्वान करता है कि वह उस विधान का पूर्ण समर्पण भाव से पालन करे जिसे वह सत्य मानता है लेकिन अगर कोई उस विधान का भी पालन न करे जिसे वह सत्य मानता है तो फिर वह वासनाजीवी है और उसे कभी कल्याण नसीब होने वाला नहीं है।
उम्मीद है आपको अपने सवालों का जवाब मिल गया होगा।