Anwer Jamal |
क्या बिहार का होना कोई जुर्म है ?
सीता जी भी तो बिहार की ही थीं और महात्मा बुद्ध की प्रचार भूमि भी बिहार ही थी।
महावीर जैन से संबंध रखने वाली पावापुरी भी बिहार में ही है।
जिस ज़मीन पर ऐसी हस्तियों ने क़दम रखा हो, अगर आज उस ज़मीन के बाशिंदों के सामने कोई समस्या है तो उसे दूर करने में हमें उनकी मदद करनी चाहिए। यह क्या कि बिहार की सीता जी को तो भगवान मान रहे हैं और उनके सामने तो हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं और उनके इलाक़े से आए अपने ही भाईयों को अपने बराबर भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
जब सेम संस्कृति वाले अपने ही भाईयों के लिए संवेदनहीनता है तो फिर अपने से थोड़ा भिन्न मुसलमानों के लिए यह संवेदनहीनता और भी ज़्यादा हो तो क्या ताज्जुब है ?
हिंदू भाईयों के मंदिरों में आजकल एक मुसलमान की मूर्ति भी देखी जा सकती है, जिसे शिरडी के साईं बाबा के नाम से जाना जाता है। बहुत से दूसरे मुसलमान पीरों के मज़ारों पर भी उन्हें मत्था टेकते देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि हम इनका सम्मान करते हैं। सम्मान करना अच्छी बात है, लेकिन उनका भी तो किया जाना चाहिए जो कि इन पीरों का सम्मान करते हैं और इनके मिशन को लेकर चल रहे हैं। लेकिन नहीं, उनका विरोध किया जाता है, कोई उनकी जड़ें डायरेक्ट काटता है और कोई उनमें मठ्ठा डालता है। उनमें कोई खुलकर विरोध करता है और कोइ छिपकर और जो ज़्यादा चतुर होते हैं वे साथ मिले होते हैं और मिलकर वार करते हैं।
जो काम विश्व के और खुद भारत के भी महापुरूषों ने किया है। वही काम इस नाचीज़ बंदे ने शुरू किया तो लोगों ने भी वही किया जो कि उन महापुरूषों के साथ ज़ालिमों ने किया था। लोग उन महापुरूषों की पूजा करते रहे, उन्हें सम्मान देते रहे और उनके काम को आगे बढ़ाने वालों का अपमान करते रहे, विरोध करते रहे केवल इसलिए कि झूठ के आदी लोग सच को सुनना नहीं चाहते थे।
मुझे सलाह दी गई कि आप दूसरे धर्मों का विरोध न किया करें, उनमें कमियां न निकाला करें। अव्वल तो मैं धर्म को न तो दो मानता हूं और न ही दूसरा और इसीलिए कमी भी नहीं मानता लेकिन अगर शिकायत करने वालों के नज़रिए से ही देखा जाए तो भाई शाहनवाज़ और ज़ीशान ज़ैदी तो मेरी तरह नहीं लिखते। उनका विरोध क्यों किया जाता है ?
बेचारे महफ़ूज़ भाई भी एक जगह मुझे अपने साथ बदसुलूकी की शिकायत करते हुए मिले। एक ब्लॉगर उन पर लड़कियों को फांसने का इल्ज़ाम लगाते हुए मिला।
भाई आखि़र आप किस वैरायटी के मुसलमान से मुतमईन होओगे ?
वेद कुरआन की पोस्ट्स से लोगों को शिकायतें थीं तो मैंने कहा कि भाई इस्लाम के विरोध में लिखी हुई पोस्ट्स मिटाकर आ जाईये और फिर मुझसे जितनी पोस्ट्स कहेंगे, मैं उन्हें मिटा दूंगा।
लोग नहीं माने, कोई नहीं आया।
मैंने कहा कि आप ब्लागर्स के लिए एक आदर्श आचार संहिता तैयार कर लीजिए। दूसरों से पहले मैं उसका पालन करूंगा।
लोग इसके लिए भी नहीं माने।
फिर मैंने यह तक कह दिया कि अगर कोई भी भाई मेरे ब्लाग पर ऐसी कोई बात देखता है जो मैंने किसी भारतीय महापुरूष से हटकर पहली बार कही हो और उससे वे इत्तेफ़ाक़ न रखते हों तो मैं उसे भी डिलीट कर दूंगा लेकिन...
कोई आज तक नहीं आया बताने के लिए।
मैं ज़्यादातर अपने ही ब्लाग पर मसरूफ़ रहता था और दूसरी जगहों पर जाना कम ही होता था। इसी दरम्यान एक ब्लाग आया ‘अमन का पैग़ाम‘। एक लंबे अर्से तक इस पर मैं जा ही नहीं पाया और कभी गया भी तो इसका हक़ अदा न कर पाया, यानि साथ न दे पाया। कुछ वक्त से इस ब्लाग को देखना शुरू किया तो ‘अजब ब्लागजगत की ग़ज़ब कहानी‘ सामने आई। इसे हमारे बीच लेकर आए जनाब मासूम साहब, जो कि इंग्लिश की दुनिया के एक तजुर्बेकार ब्लागर हैं और हिन्दी और हिंदुस्तानियों की सेवा के मक़सद से अच्छे विचार लेकर हिंदी दुनिया में तशरीफ़ लाए। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो मैंने किया लेकिन उन्हें भी निशाने पर ले लिया गया। उनके भोजन को निशाना बनाकर कह दिया गया कि वे अमन का पैग़ाम दे ही नहीं सकते। जिन्होंने उन पर आरोप लगाया, उनके साथ सुनार से लेकर लुहार तक सब इकठ्ठा हो गए और बेचारे मासूम भाई लोगों से यही कहते रहे कि भाई किसी को ‘अमन के पैग़ाम‘ से कोई शिकायत हो तो कृप्या यहां दर्ज कराएं।‘
मेरे पास कोई नहीं आया तो उनके पास भला कौन जाता ?
उन्होंने अपने लेख कम कर दिए और दूसरे ब्लागर्स के लेख छापने शुरू कर दिए। उनका मक़सद अमन था लेकिन अमन के दुश्मनों का मक़सद तो उनका दमन था।
उनकी अपील के बावजूद उनके ब्लाग पर लिखने के लिए बड़े नाम भी कम ही आए और जो लेख छपे उन पर टिप्पणी करने तो और भी कम आए।
जिन लेखकों ने अब तक लिखा है, उनके नामों पर एक नज़र डालकर आप यह बात आसानी से जान सकते हैं।
समीर लाल (उड़नतश्तरी, पूजा शर्मा , शाहनवाज़ ,. राजेन्द्र स्वर्णकार बीकानेर , .अमित शर्मा, इस्मत जैदी, देवेन्द्र पाण्डेय, तारकेश्वर गिरि, अंजना . स.म.मासूम, विवेक रस्तोगी, -अलबेला खत्री, अजय कुमार झा, संजय भास्कर,. निर्मला कपिला. केवल राम, . सतीश सक्सेना,
हो सकता है कि कोई बड़ा नाम मुझसे रह गया हो।
आख़िर मासूम साहब को ‘अमन के पैग़ाम‘ पर भी देश की हितचिंता में घुलने वालों का सपोर्ट कम क्यों मिला ?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे एक मुसलमान हैं ?
मुसलमान होने की क़ीमत सिर्फ़ उन्हें ही नहीं चुकानी पड़ी बल्कि उन ब्लागर्स को भी चुकानी पड़ी, जिन्होंने उनका साथ दिया। जनाब सतीश सक्सेना साहब का नाम भी उनमें से एक है।
जनाब सतीश साहब जब अपने ब्लाग पर पोस्ट रिलीज़ करते हैं तो एग्रीगेटर के ठप्प होने के बावजूद टिप्पणियां 100 से ऊपर कूद जाती हैं। जब यही हरदिल अज़ीज़ हस्ती ‘अमन के पैग़ाम‘ पर एक बेहतरीन संदेश देती है तो 10-12 टिप्पणियां मिलना भी मुश्किल हो जाता है।
यह सब देखकर मैं वाक़ई आहत हुआ। सतीश जी मेरे विरोधियों में से एक हैं लेकिन मैं उनका विरोधी नहीं हूं। मैं किसी का भी विरोधी नहीं हूं। बस, जिस बात को ग़लत समझता हूं उस पर चुप नहीं रहता। मैं यह नहीं देखता कि यह तो स्टार ब्लागर है, या यह तो महिला है या यह तो मुसलमान ही है।
अल्फ़ा मेल प्रिय प्रवीण जी गवाह हैं कि सलीम ख़ान साहब की एक पोस्ट पर उन्होंन प्रतिवाद किया और मैं पहला आदमी था जिसने कहा कि प्रवीण जी की शिकायत दुरूस्त है और सलीम भाई की ग़लती है और सलीम भाई ने अपनी ग़लती मानी और उस पोस्ट को डिलीट भी किया।
लेकिन मैंने यह नहीं सोचा कि अब प्रवीण जी से सैटिंग बढ़िया हो गई है अब इनका विरोध नहीं करूंगा। जब कभी उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर या उसके न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगाया मैंने उन्हें खरी भी सुनाई और खोटी भी। लेकिन यह उनकी तारीफ़ है कि न उन्होंने बुरा माना और न संवाद बंद किया , नास्तिक होने के बावजूद मैं उन्हें पसंद करता हूं और प्यार करता हूं।
प्यार तो मैं जनाब सतीश जी से भी करता हूं। उनसे मेरे संबंध बहुत मधुर थे लेकिन एक दिन मैंने अपने लिए नहीं बल्कि किसी और के लिए उनके विचार-कलश पर गुलेल चला दी। बस, उस दिन से वे हमसे ख़फ़ा हो गए। इस मामले में उन्हें प्रिय प्रवीण जी से कुछ बेहतर सीखने को मिल सकता है। लेकिन वे जज़्बाती आदमी हैं, मेरे वालिद भी एक जज़्बाती आदमी हैं। मैं जानता हूं कि जज़्बाती आदमी ज़्यादा देर तक अपनों से रूठकर नहीं रह सकता।
... और दूसरों की जाने दीजिए मैं तो ख़ुद अपने को ही नहीं बख्शता और न ही खुद पर चोट करने से बाज़ आता हूं। मैंने अपने ब्लाग ‘मन की दुनिया‘ पर एक कहानी लिखी थी ‘सदा सहिष्णु भारत‘। कहानी अपनी हदें लांघकर जनाब अरविंद मिश्रा जी के सम्मान पर चोट करने लगी। यह एक खुली हुई चूक थी। मेरे करमफ़रमाओं ने ऐतराज़ भी जताया । मैंने तुरंत मिश्रा जी से माफ़ी मांगी, उस कहानी को डिलीट किया और अपनी सज़ा के तौर पर उस पोस्ट पर मिली हुई टिप्पणियों को आज तक बाक़ी रखा हुआ है।
ग़लती ग़लती है। चाहे वह मेरी हो या मेरे किसी भाई की या मेरे किसी बुजुर्ग की। ग़लतियों को हमारे अंदर बाक़ी नहीं रहना चाहिए। यह लेख भी इसी उद्देश्य से लिखा जा रहा है।
सोचने वालों को सोचना चाहिए कि जनाब सतीश सक्सेना जी तो ज्यों के त्यों वही हैं जो कि वे अपने ब्लाग पर हैं, बदला है तो केवल उनका ब्लाग। उनकी पोस्ट ‘मेरे गीत‘ पर आती है तो टिप्पणियां 100 और उनकी पोस्ट ‘अमन के पैग़ाम‘ पर आती है तो बमुश्किल 10 , आख़िर क्यों ?
क्या इसे ‘वर्चुअल कम्युनलिज़्म‘ का नाम दिया जा सकता है ?
यह क्या बात है कि ‘अमन का पैग़ाम‘ भी ब्लागजगत के स्वयंभू मठाधीशों को गवारा नहीं है, अगर वह किसी मुसलमान द्वारा दिया जा रहा है तो ...
न उसे टिप्पणियां दी जाएंगी और न ही उसका चर्चा ब्लागजगत के लोकप्रिय ब्लाग्स में ही किया जाएगा। अगर आप सराहना के दो शब्द भी नहीं दे सकते तो फिर आप और कुछ क्या दे पाएंगे।
वर्ष 2010 जा रहा है और नया साल आ रहा है।
क्या नये साल में भी आप मुसलमानों के साथ अपने तास्सुब का यही बर्ताव जारी रखेंगे या फिर अपने मन को विकार से मुक्त करेंगे ?
आप क्या करेंगे ? , यह फ़ैसला आपको ही करना होगा।
इसी के साथ मैं अपने व्यक्तित्व और विचारों की आलोचना और समीक्षा भी सादर आमंत्रित करता हूं।
कोई खुद को किसी भी हाल में रखे लेकिन मुझे अपने अंदर कोई कमी गवारा नहीं है क्योंकि मुझे मरना है और दूसरे लोक में जैसा व्यक्तित्व लेकर मैं जाऊंगा, उसे लेकर मुझे अनंत काल तक जीना है। अपूर्ण व्यक्तित्व लेकर मैं इस जग से जाना नहीं चाहता। जो भी मेरी आलोचना करेगा, मुझ पर उपकार ही करेगा।
संवाद का उद्देश्य आत्म विकास ही होना चाहिए।
आत्मावलोकन का उद्देश्य भी यही होता है।
आईये कुछ सार्थक करें, कम से कम वर्षांत में ही सही।
Please come to my blog
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/jesus-christ.html
achchhi soch
@ हरीश जी आपका शुक्रिया !
कृप्या ऊपर दिए गए लिंक को भी देखिएगा ।
हमारे साथ मुश्किल यह है कि हम हिन्दू मुसलमान ,ईमान और कुरआन ,अल्लाह और भगवान् के ऊपर जा ही नहीं पा रहे हैं -दिन रात यही सब...मैं तो तंग और क्लांत हो चला हूँ ,जैसे दुनिया में और कोई मुद्दे,मसायल नहीं हैं ! कुएं से बाहर निकलिए मित्र -ज़रा खिडकियों को खोलिए ,ताजे हवा के झोके और नयी रश्मियों का भी नजारा तो कीजिये -खुदा कसम बड़ा मजा आयेगा!ये दिन रात के स्वच्छ संदेशों और पैगामों की चिल्ल पों बंद कीजिये दोस्त -
कड़वा सच
सही बात तो यह है कि अभी ब्लोग पर उच्चकोटि के विग्यानी, प्रोफ़ेशनल्स,साहित्यकार , विद्वान नहीं आये हैं---अत: गम्भीर, देश व समाज़ केप्रति उद्देश्यपूर्ण आलेखों पर टिप्पणियां नहीं आतीं--जबकि हल्के-फ़ुल्के, अतिवादी,समाचार-दैनिक क्रियाकलाप, राजनीति पर व्यन्ग्य या व्यर्थ की टिप्पणियों वाले पोस्टों पर १००-१०० टिप्पणियां आती हैं क्योन्कि वे विना सोचे समझे लिख जाती हैं...
Dr. गुप्ता Ji ! @ आप किस दुनिया में हैं ?
एक विद्वान और वैज्ञानिक तो मिश्रा जी की शक्ल में आपके सर पर ही बैठे हैं और बंदा भी एक हैसियत रखता है । यक़ीन न आए तो हमारे ब्लाग की ताज़ा पोस्ट पढ़ लीजिएगा ।
कुछ हिस्सा तो यहीं पेशे ख़िदमत है -
हमारे क़ारईन हज़रात उर्फ़ प्यारे पाठको , हम उर्दू लिखते हैं और वह भी गाढ़ी । हम ऐसा क्यों करते हैं ?
हम बताएंगे बाद में पहले आप क़यास लगा लीजिए ख़ूब अच्छी तरह और तब तक आप हमारा यह कलाम देखिए जो हमने छोड़ा है "अमन के पैग़ाम" पर ।
@ MAsoom साहेब ! हम आज सलाम करने भी आए हैं और कलाम करने भी ।
हुआ यूं कि आपके ब्लाग से धुआं उठता देखकर मेरे गधे ने अपने अंदाज़ मेँ चैट की और यहां ला छोड़ा । मैंने शेख़चिल्ली को दौड़ा दिया कि पानी और कंबल लेकर आ जाए पीछे पीछे और यहां आकर देखा तो धुआं निकला यज्ञ की आग का । सारे अंदेशे ढेर निकले औल्लो जी , केक भी काटे जा रहे हैं ।
ऐसे फ़ोटू माSUम साहेब पहले ही दिखा दिए होते तो गिरी बाबू पहले ही दोस्त बन गए होते और गिरी बाबू सैट तो समझो सब सैट । अब तो ब्लाग संसार में अमन आ ही गया समझो ।
चलता हूं फ़ायर ब्रिगेड वालों को रोक दूं वर्ना सारा केक वो ही चट कर जाएंगे और हां , हमने लिखना ज़रूर बाद में शुरू किया है ब्लागर बड़े हैं लिहाज़ा अभी मत छापिएगा हमारा पैग़ाम , हमें बाद वालों में रखना । हमारे पैग़ाम का साईज़ भी हमारी इज़्ज़त जितना ही बड़ा है। ईमानदारी से बताईये कै दिन लगे हमारे पैग़ाम को जोड़ने में ?
मिश्रा जी !@ आपने सच कहा है हम भी पक गए हैं इसीलिए हम तो इन सब बातों को अपने ब्लाग पर जगह ही नहीं देते ।
आप आईयेगा और नज़्ज़ारा कीजिएगा ।
Dr. गुप्ता Ji ! @ अगर उच्च कोटि के लोग अभी आए ही नहीं हैं तो आप किस कोटि से आ गए हैं ?
वैसे कोट और कोटि की तो आजकल सर्दी में बहुत ज़रूरत है । कोटि नीचे तक हो तो अच्छा ही है । ऊंची कोटि से बेहतर है नीची कोटि । निकाह के वक़्त एक कोटि हमने सिलवाई थी , आजकल शेख़चिल्ली के काम आ रही है । ऊंची से अच्छी निकली हमारी निचली कोटि ।
एसे ही ऊल जुलूल पोस्टों व टिप्पणियां से मिश्रा जी तन्ग और क्लान्त हैं...
@ जनाब मिश्र जी !
हरीश जी और डा. गुप्ता जी!
आप सभी का शुक्रिया
कृपया
मेरी नई पोस्ट देखेंऔर बताएं कि जनाब अरविन्द मिश्र की राय से आप कितना सहमत हैं और इस पोस्ट में आप मुझे जिस रूप रंग में देख रहे हैं , क्या यह बंद ज़हन की अलामत है ?
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/shades-of-sun.html
क्या हुआ मस्जिद गिरा के,
जब न मंदिर बन सका |
तेरे आपसी षडयंत्र से ,
बिन छत के मौला रह गया |
मेरे लिए जो राम है,
तेरे लिए रहमान है |
अंतर था केवल नाम का,
जिससे खुदा तक बँट गया |
सोचा न था उसने कभी,
जिसने दिया था जन्म फिर,
क्यूँ हाँथ में तलवार ले ,
भाई से भाई कट गया |
तू मांगता कर खोलकर ,
मैं हाँथ जोड़े मांगता हूँ |
फिर अहम् किस बात का,
जाती धरम और पात का |
बीतेगा क्या दिल पर तेरे,
कैसे करेगा तू सामना ,
जब तेरे दश नाम पर,
बच्चे तेरे लड़ने लगे |
आओ यहाँ मिल कर सभी,
पूजा करें कलमा पढ़े |
है चार दिन की ज़िन्दगी,
जाना है सबको फिर वहाँ |
अनवर भाई,अमन का पैगाम पर सतीश भाई की पोस्ट पर टिप्पणी नहीं आने को लेकर सवाल करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।
*
मासूम साहब ने सबसे पोस्ट के लिए आग्रह किया है और मैं भी उनमें से एक हूं। मैंने उन्हें सूचित किया था और कहा था कि मुझे यह प्रयास नारेबाजी से ऊपर उठता दिखाई नहीं देता। यहां पोस्ट भी वही लोग लिख रहे हैं जो अमन में यकीन करते हैं और पढ़ भी वही लोग रहे हैं।ण्ेसे सब लोग तो मुठ्ठी भर ही हैं न। असल काम तो उनके बीच करने का है जो इसमें यकीन नहीं करते। इस बारे में सोचना चाहिए। मैं आज भी यही कहता हूं।
*
एक-दूसरे के धर्म की कमजोरियां गिनाकर कभी किसी का फायदा नहीं हुआ है और न होने वाला है,यह आप बेहतर जानते हैं।
प्रांत प्रांत से अमीरी गरीबी से अपने पराए से समाज में उँच नीच सदीयो से चली आ रही है, दूर करने के प्रयास भी हुए है। और हो भी रहे है।
लेकिन अनवर तुम चाहते क्या हो? सीधे सीधे कहो……
मुसलमानों को आदर भी उनकी योग्यता और सच्चाई पर ही मिलेगा। मात्र मुसलमान होने मात्र से कुछ भी हासील न होगा।
लोग पीर फक़ीर,ओलिया,सूफ़ी,साई की पूजा करते है, मत्था टेकते है तो उनके सत्कर्मो के कारण। अनवर,तुम जैसे तुछ लोगो में उनका अंश भी नहिं और न सच्चाई है, और ईमान का वास्ता भी नहिं। फ़िर कैसे चाहते हो तुम्हारी उस तरह पूजा हो पामर जीव्।
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"जो काम विश्व के और खुद भारत के भी महापुरूषों ने किया है। वही काम इस नाचीज़ बंदे ने शुरू किया तो लोगों ने भी वही किया जो कि उन महापुरूषों के साथ ज़ालिमों ने किया था।"
अबे गधे,
तुम अपने आप को समझते क्या हो? कोइ महापुरुश!! जो तू छ्दम बात उनके समान करे और तूं महापुरुशो जैसा पूजा जाय।
किस बात का रोना रोता है तूं हैसियत क्या है तेरी।
'
जाक़िर शाहबाज़ और मह्फ़ूज़ को तुम लोग बदनाम कर छोडोगे अपनी तरह्।
बाक़ी तुम सब केरवाणी के चेले हो, और यह सच तुम कबूल करते आये हो। मक़्सद खूल्ला हो चुका है। सभी को रोकर इमोसनल ब्लेकमेल मत करो, सभी जानते है।
मासूम तुम्हारा ही मुरगा है, बडे ब्लोगेर में पहूंच बनाने के लिये। जब मामला फेल होता लगा तो रो रहे हो? हमे सब पता है कहां कहां टिप्प्डीओ से एक दूसरे का पिछवाडा सहलाते हो?
राजेश उत्साही जी,यहाँ जो बहस हो रही; है उसका कोई मतलब मुझे समझ मैं नहीं आता?आप ज़रा उनलोगों को देखें जिन्होंने लेख़ या कविता; भेजी; है "अमन का पैग़ाम" पे; वोह बड़े और समझदार ब्लोगेर्स हैं. और हकीकत मैं काबिल ए इज्ज़त और काबिल ए फख्र हैं और आप बहुत ध्यान दे देखें उसको पढने वाले और तारीफ करने वाले वोह भी हैं , जिन्होंने कुछ दिन पहले ही ब्लॉगजगत के धर्म युद्ध मैं बड़े बड़े किरदार अदा किये हैं. आज जब वही लोग; अमन और शांति का सन्देश देते हैं, तो किसी को; यह अमन के पैग़ाम की कामयाबी; नहीं लगती . क्यों?कोई तो कारण होगा की आज कुछ लोग अलग अलग बहाने से "अमन का पैग़ाम" के खिलाफ बोल रहे हैं. क्यों? शायद इसका जवाब मैं खुद तलाश रहा हूँ?क्यों की यह तो सत्य है की शांती सन्देश देना कम से कम किसी धर्म के खिलाफ बोलने से तो अच्छा ही है.जबकि यहाँ की बहस; यह बता रही है की दूसरे के धर्म पे व्यंग करना अमन के पैग़ाम देने बेहतर काम है.. मेरे नाम से संबोधित करके बात कही जा रही थी; इसी कारण मेरे लिए कुछ कहना आवश्यक हो गया... ज़रा यह पोस्ट पढ़ लें; शायद आप समझ जाएं..ग़लत कहा हो रहा है..
Dr. गुप्ता Ji !@ वैज्ञानिक मिश्रा जी तो हमारे ब्लाग पर आकर पोस्ट को सराह रहे हैं और आप यहां बैठे बैठे अफ़वाह फैला रहे हैं कि वे हम जैसे लोगो की पोस्ट से दुखी हैं ।
आपने बताया है कि बकवास पोस्ट को 100 टिप्पणियां मिलती हैं और अच्छी को दो चार तो देखिये कि हमें दो चार टिप्पणियां ही मिलती हैं ।
हमारा गधा आपकी नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आज आपके ब्लाग पर रेंकेगा और शेख़चिल्ली आज अपने टॉयलेट में आपके दौलतख़ाने की तरफ़ मुंह करके बैठेगा।
आपने हमारी भी तौहीन की है और मिश्रा साहब की भी । फ़ौरन से पेशतर माफ़ी मांगिये वर्ना डागदर से वार्ड ब्वाय बना दिये जाओगे ।
* गुप्ता साहेब , इसे हल्के मूड में लीजियेगा , सिर्फ़ आपकी मुस्कुराहट के लिये लिखा है हमने ।
अच्छी पोस्ट !
चिपलूनकर से भी ज़्यादा ख़तरनाक धर्मान्ध ब्लॉगर हैं ये मिश्रा जी, इनका तो मुसलमान के m से ही राष्ट्रवादी खून (?) उबाल मारने लगता है.
@ सलीम - हा हा हा हा हा हा हा हा हा…।
अब तो काफ़ी दिनों के गैप में भी मैं तुम्हारे, जमालगोटे के, कैरानवी के ब्लॉग पर आता नहीं…
फ़िर भी मेरे नाम का भूत तुम्हारे दिमाग पर सवार है… कुछ झाड़-फ़ूंक करवाओ भाई…
एक साहित्यकार का फ़र्ज़ क्या होता है ?
@ जनाब राजेश उत्साही जी !
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/standard-scale-for-moral-values.html
यह सही है कि साहित्य समाज का दर्पण है लेकिन इसकी उपादेयता मात्र यही नहीं है। समाज के मार्गदर्शन में साहित्य की एक अहम भूमिका होती है। साहित्य समाज का दर्पण भी होता है और उसे दिशा भी देता है। ऐसा आप भी मानते होंगे।
इस संवाद की पूरी पृष्ठभूमि जानने के लिए देखें-
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/standard-scale-for-moral-values.html
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हाँ मैं नहीं देता कभी भी, पैगाम अमन का : मुझे झगड़े पसंद जो हैं !
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@ जनाब राजेष उत्साही जी ! आप कह रहे हैं कि अमन के पैग़ाम के लिए आपने इसलिए नहीं लिखा कि यह सब आपको नारेबाज़ी से आगे बढ़ता हुआ नहीं लगा लेकिन आप अब कुछ ही दिन बाद ‘अमन के पैग़ाम‘ की तारीफ़ फ़रमा रहे हैं। इसका मतलब है कि अब आपको समझ आ गया है कि यह मात्र नारेबाज़ी नहीं है बल्कि सचमुच एक आंदोलन है, जो समय के साथ और भी ज़्यादा बलवान होता जाएगा। अब जब आप इससे सहमत प्रतीत हो रहे हैं तो अपनी भूल सुधार करते हुए अब आप भी इस मंच से ‘अमन का पैग़ाम‘ दें वर्ना बताएं कि अब आपके पास क्या बहाना है ‘अमन का पैग़ाग‘ न देने का ?
2- सत्य आधार है और कल्पना मजबूरी। सत्य से मुक्ति है और कल्पना से बंधन। कल्पना सत्य भी हो सकती है और मिथ्या भी लेकिन सत्य कभी मिथ्या नहीं हो सकता। ईश्वर सत्य है और उस तक केवल सत्य के माध्यम से ही पहुंचना संभव है।
सही-ग़लत का ज्ञान कभी षटचक्रों के जागरण और समाधि से नहीं मिला करता। इसे पाने की रीत कुछ और ही है। वह सरल है इसीलिए मनुष्य उसे मूल्यहीन समझता है और आत्मघात के रास्ते पर चलने वालों को श्रेष्ठ समझता है। दुनिया का दस्तूर उल्टा है । मालिक की कृपा हवा पानी और रौशनी के रूप में सब पर बरस रही है और उसके ज्ञान की भी लेकिन आदमी हवा पानी और रौशनी की तरह उसके ज्ञान से लाभ नहीं उठा रहा है मात्र अपने तास्सुब के कारण।
कोई किसी का क्या बिगाड़ रहा है ?
अपना ही बिगाड़ रहा है ।
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आपने बड़ी खरी बात कही है|डटे रहिये हम आपके साथ हैं |