दक्षिण कोरिया की बहुराष्ट्रीय कंपनी समसुंग इंडिया और भारत की केंद्रीय साहित्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधन में भारतीय भाषाओं के लेखकों को ‘टैगोर साहित्य पुरस्कार’ देने के पफैसले का हिंदी के कई लेखकों ने विरोध् किया। विरोध् का सिलसिला इस योजना का पता लगने के साथ ही शुरू हो गया था। विरोध् में ज्यादातर हिंदी के लेखक सामने आए। कापफी बाद में इक्का-दुक्का दूसरी भाषाओं के कुछ लेखकों के नाम विरोध् करने वालों में सुनने को मिले। पुरस्कार वितरण वाले दिन कुछ लेखकों ने साहित्य अकादमी के बाहर मानव श्रृंखला बना कर सक्रिय विरोध् दर्ज किया। लेकिन कंपनी और अकादमी पर लेखकों के विरोध् का कोई असर नहीं हुआ। अकादमी की तरपफ से कोई स्पष्टीकरण भी नहीं आया। कंपनी पहले ही यह घोषणा कर चुकी है कि वह ये पुरस्कार सामाजिक दायित्व निभाने के उद्देश्य से देने जा रही है। पहली खेप में 25 जनवरी को हिंदी समेत आठ भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत किया गया। 61वें गणतंत्रा दिवस पर मुख्य मेहमान के रूप में भारत आए दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति की पत्नी ने ये पुरस्कार लेखकों को प्रदान किए। पिछले कई सालों से उड़ीसा के आदिवासियों के अस्तित्व का संकट बनी पोस्को कंपनी दक्षिण कोरिया की है। इसी वजह से वहां के राष्ट्राध््यक्ष को मुख्य मेहमान बनाया गया। यह भारत सरकार की आदिवासियों को दुत्कार और पोस्को को चुमकार है।
कहने की जरूरत नहीं कि पुरस्कार की योजना और कार्यक्रम लेखकों के सहयोग से सपफल हुए। अकेले अकादमी अध््यक्ष, उपाध््यक्ष और विभिन्न भाषाओं की समितियों के सदस्य चयन-प्रव्रिफया को अंजाम नहीं दे सकते थे। उसमें पुरस्कृत भाषाओं के बहुत-से लेखकों का सहयोग हुआ है। पुरस्कृत लेखकों का तो हुआ ही है। यानी भारतीय भाषाओं के लेखकों की सहमति से ही कंपनी और अकादमी का यह गठजोड़ संभव हुआ है और आगे भी बना रह सकता है। भविष्य में समर्थक लेखकों की संख्या और ज्यादा बढ़ सकती है। साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का सबसे ज्यादा महत्व है। जिन्हें वह नहीं मिल पाता वे कंपनी की स्टैंप वाला पुरस्कार पाकर ही संतोष कर सकते हैं। जाहिर है, उसके लिए उन्हें अपना सहयोग और समर्थन कंपनी-अकादमी गठजोड़ को देना होगा। बाजार की कीच में पिफसलने वाले ही नहीं, गंभीर लेखक भी उनमें शामिल होंगे।विरोध् करने वाले लेखकों के मत में इस तरह के गठजोड़ से साहित्य अकादमी की स्वायत्ता खंडित होती है। कुछ ने इसे स्वयत्तता का अंत माना है। यह बिल्कुल सही है कि साहित्य अकादमी की स्वायत्तता बरकरार रहनी चाहिए। अतीत में वह कापफी हद तक रही है। साहित्य अकादमी में सरकारों और नेताओं की दखलंदाजी उस तरह से कभी नहीं रही जैसी राज्य-स्तर की अकादमियों में होती है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकारें और पार्टियां लेखकों को आगे करके साहित्य अकादमी सहित अन्य केंद्रीय अकादमियों में अपना हस्तक्षेप नहीं करती रही हैं। उस तरह से नामित हुए लेखक कई बार सुविधओं व पुरस्कारों का बांट-बखरा भी करते हैं। अपने शासनकाल में भाजपा के नेताओं ने उर्दू के लेखक प्रोपफेसर गोपीचंद नारंग को आगे करके अकादमी के अध््यक्ष पद के चुनाव में दखलंदाजी की थी। वह चुनाव कापफी विवादास्पद बन गया था। महाश्वेता देवी से चुनाव जीतने के बाद प्रोपफेसर नारंग ने अकादमी में कापफी मनमानी की। प्रोपफेसर नामवर सिंह ने उनके जीतने पर अकादमी में जाना बंद कर दिया था। उन्हें यह आशा रही होगी कि उनके एहसानमंद लेखक अकादमी न जाने में उनका साथ देंगे। लेकिन प्रोपफेसर नारंग को लेखकों के सहयोग की कमी नहीं रही। कहने का आशय है कि अकादमी तभी स्वायत्त बनी रह सकती है जब लेखक अपनी स्वायत्तता बना कर रख सकें।
नवउदारवादी दौर में पिछले करीब 20 सालों से देश की संप्रभुता पर गहरा संकट है। नवसाम्राज्यवादी गुलामी की चर्चा अक्सर होती है। इस दौर में भारत सरकारों ने ऐसे सौदे और समझौते किए हैं जिनके चलते संवैधनिक और आजादी की विरासत के मूल्यों को गहरी ठेस पहुंची है। देश की लगभग समूची मुख्यधरा राजनीति इस ध्त्कर्म में शामिल है। लेखक गहरी नजर रखने वाले लोग होते हैं। उनसे यह सब व्यापार छिपा नहीं है। लेखकों से यह भी नहीं छिपा है कि विश्व बैंक, अंतरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के डिक्टेट पर जो ‘नया भारत’ बनाया जा रहा है, वह पूंजीवादी-उपभोक्तावादी भारत है। वहां हर मनुष्य और मानवीय उद्यम की कसौटी बाजार है। सरोकारध्र्मी लेखक यह भी जानते हैं कि ‘नए भारत’ में देश की विशाल वंचित आबादी के लिए कोई जगह नहीं है। समानता, स्वतंत्राता या सम्मान की बात तो जाने ही दीजिए।
ऐसे परिदृश्य में साहित्य एवं कला की अकादमियां स्वायत्त नहीं बनी रह सकतीं, यह भी लेखकगण जानते हैं। जानते वे यह भी हैं कि अकादमी की स्वायत्तता का अंत करना या बचाना उसके मौजूदा लेखक पदाध्किारियों के वश का काम नहीं है। पुरस्कार वितरण समारोह में अध््यक्ष सुनील गंगोपाध््याय ने बताया है कि कंपनी और अकादमी के बीच का यह समझौता भारत और कोरिया सरकारों के बीच हुआ है। तो साहित्य अकादमी की स्वयत्ता का अपहरण सीध्े केंद्र सरकार ने किया है। केंद्र सरकार कोई निर्गुण सत्ता नहीं है। न ही संस्कृति मंत्रालय जिसके अंतर्गत साहित्य अकादमी आती है। संस्कृति मंत्रालय प्रधनमंत्राी के पास है। यानी साहित्य को साहित्य अकादमी के स्वायत्त क्षेत्रा से निकाल कर पूंजी;वादद्ध के क्षेत्रा में ले आने का काम खुद प्रधनमंत्राी ने किया है। उसी प्रधनमंत्राी ने जिसने पिछली संसद में अमेरिकी ध्न-बल से पूरी निर्लज्जता के साथ परमाणु करार पास कराया था। प्रधनमंत्राी भी कोई निर्गुण सत्ता नहीं है। मनमोहन सिंह देश के दूसरी बार प्रधनमंत्राी हैं। हमने ऊपर जो नवउदारवादी यथार्थ बताया है, वह वाया कांग्रेस और सोनिया गांध्ी मनमोहन सिंह के नेतृत्व का नतीजा है। जिनके लिए देश की संसद की कोई कीमत नहीं रही, उनके लिए साहित्य अकादमी की स्वयत्तता क्या मायने रखती है!
लिहाजा, निर्गुण विरोध् का कोई अर्थ नहीं है। विरोध् सगुण होना वाहिए। अगर आज ही देश के ज्यादातर लेखक अपने पुरस्कार अकादमी को राशि-सहित वापस पफेर देंऋ जो समितियों में नामित हैं, अपने नाम वापस ले लेंऋ और एक कड़ा पत्रा सोनिया गांध्ी, मनमोहन सिंह व उनकी मंडली को लिखें, तो कल ही कंपनी और अकादमी के बीच कायम किया गया यह गठजोड़ निरस्त हो सकता है। बस अपने नाम सहित इतना लिखना है कि ‘आप महानुभावों ने देश लगभग बेच डाला है, कला और साहित्य को हम बाजार में नहीं बेचने देंगे। हमें वैसे पुरस्कार नहीं चाहिए। हम देश और नतीजतन कला व साहित्य बेचने वाले आप लोगों का संपूर्ण विरोध् करते हैं।’ सभी भाषाओं के लेखकों को विरोध् में शामिल करना चाहिए। दूसरे विषयों के बु(िजीवी और नागरिक समाज के लोग भी उसमें आ सकते हैं। अपने अस्तित्व के लिए जूझने वाली मेहनतकश जनता भी उसमें आएगी। अगर ऐसा नहीं होता है, तो माना जाएगा कि यह विरोध् भी हिंदी अकादमी के विरोध् जैसा हो कर रह जाना है।
प्रेम सिंह
लोकसंघर्ष पत्रिका के मार्च अंक में प्रकाशित होगा
सहमत हूँ।
साथी प्रेम सिंह ने सही कहा ।
paper me chhap gaya hai yah!!!! badhaaee!!!