मुक्तिका:
कब किसको फांसे
संजीव 'सलिल'
*
*
सदा आ रही प्यार की है जहाँ से.
हैं वासी वहीं के, न पूछो कहाँ से?
लगी आग दिल में, कहें हम तो कैसे?
न तुम जान पाये हवा से, धुआँ से..
सियासत के महलों में जाकर न आयी
सचाई की बेटी, तभी हो रुआँसे..
बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..
अदालत का क्या है, करे न्याय अंधा.
चलें सिक्कों जैसे वकीलों के झाँसे..
बहू आई घर में, चचा की फजीहत.
घुसें बाद में, पहले देहरी से खाँसे..
नहीं दोस्ती, ना करो दुश्मनी ही.
भरोसा न नेता का कब किसको फांसे..
****************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
aag
acharya sanjiv 'salil'
contemporary hindi poetry
dil
hindi gazal
india
jabalpur
muktika
pyar
sada
samyik hindi kavita
sitasat
0 पाठकों ने अपनी राय दी है, कृपया आप भी दें!