आज हम देश की आजादी की 63वीं सालगिरह मना रहे हैं। इस मौके पर एनबीटी ने अपने युवा पाठकों से पूछा था कि आजादी के उनके लिए मायने क्या है
आज हम देश की आजादी की 63वीं सालगिरह मना रहे हैं। इस मौके पर एनबीटी ने अपने युवा पाठकों से पूछा था कि आजादी के उनके लिए मायने क्या हैं और उन्हें किससे आजादी चाहिए? हमें बंपर रेस्पॉन्स मिला और सैकड़ों पाठकों ने अपनी राय लिखकर हमारे पास भेजी। इनसे हमें पता चला कि देश का युवा सिर्फ अपने बारे में नहीं सोच रहा। उसे फिक्र है अपने देश की और उसकी आजादी, संस्कृति और विरासत को बचाए रखने की।वह आगे जरूर बढ़ना चाहता है लेकिन अपना मजबूत हाथआगे बढ़ाकर पूरे मुल्क को अपने साथ तरक्की की राह पर कदमताल कराना चाहता है। वह अपने सपनों की जीना चाहता है, पर इन सपनों में उसने अपने 'इंडिया' के लिए लिए जगह बचाए रखी है। वह लिवाइस पहनता है और अरमानी पहनने की चाहत रखता है, पर दीवाली पर पूजा करने के बाद पैर छूकर बड़ों का आशीर्वाद लेना नहीं भूलता।
अपनी तहजीब को गले से लगाए रखनेवाले इस युवा के मन में एक नाराजगी है। नाराजगी है देश में पसरे करप्शन के प्रति। करीब 80 फीसदी पाठकों ने कहा कि उन्हें भ्रष्टाचार और इसे बढ़ावा देनेवाली एजेंसियों से आजादी चाहिए। महंगाई, गरीबी, अपराध, बेरोजगारी, आतंकवाद जैसे मुद्दे भी बड़ी संख्या में लोगों ने उठाए। इनसे आजादी की चाहत भी बहुतों ने जताई। वैसे, पाठकों के जवाब कुछ सवाल भी खड़े कर गए। मसलन, हम जातिवाद, क्षेत्रवाद और महिलाओं के साथ भेदभाव से कब मुक्त होंगे?
कब हम सबको एक बराबर नजर से देखेंगे? कब जिंदगी अपनी मर्जी से जी पाएंगे? वैसे, एक हताशा भी नजर आती है, जब कुछ लोगों ने कहा कि ऐसी आजादी का क्या फायदा, जब हम जाति-धर्म के नाम पर बंट गए हैं, जब हम विदेशी मानसिकता के गुलाम होते जा रहे हैं? राहत की बात यह है कि स्वतंत्रता और स्वतंत्रता का फर्क समझने की हिमायत करनेवाले भी काफी लोग हैं। यानी आजादी सिर्फ अपनी बात को रखने और अपने मुताबिक जीने की, न कि दूसरों पर अपने विचारों को थोपने और उनकी आजादी में दखल देने की।
अब बात करते हैं सबसे बड़ी चिंता करप्शन की। ज्यादातर युवाओं का मानना है कि करप्शन और राजनीति सिक्के के दो पहलू हैं, इसलिए नेताओं से आजादी की ख्वाहिश जतानेवाले भी कम नहीं हैं। दरअसल, करप्शन वाकई देश की सबसे बड़ी समस्या बन गया है। हमारे देश में भ्रष्टाचार, घोटाले और धांधलियां बेहद आम हैं। चीनी घोटाला, चारा घोटाला, टेलिकॉम घोटाला, यूरिया घोटाला, स्टाम्प पेपर घोटाला, बाढ़ घोटाला, सत्यम घोटाला... यह लिस्ट इतनी लंबी है कि हिसाब रखना भी मुश्किल लगता है, जबकि जिन मामलों का खुलासा हो ही नहीं सका, वे इससे कई गुना ज्यादा हैं।
वेबसाइट http://www.corruptioninindia.org/scams की मानें तो 1992 से अभी तक देश में 73 लाख करोड़ रुपये घोटाले की भेंट चढ़ चुके हैं। इतनी बड़ी रकम से 2.4 करोड़ प्राइमरी हेल्थकेयर सेंटर बनाए जा सकते हैं, 14.6 करोड़ कम बजट के मकान बन सकते थे, नरेगा जैसी 90 स्कीमें शुरू हो सकती हैं, 60.8 करोड़ लोगों को नैनो मिल सकती है, हर भारतीय को 56 हजार रुपये या बीपीएल से नीचे रहनेवाले सभी 40 करोड़ लोगों में से हर किसी को 1.82 लाख रुपये मिल सकते हैं। यानी पूरे देश की तस्वीर बदल सकती है। अनुमान है कि जीडीपी के करीब आधे हिस्से के बराबर रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल द्वारा 2009 के लिए जारी करप्शन इंडेक्स में कुल 169 देशों में से हम 84वें नंबर पर पाए गए, यानी लिस्ट में करीब-करीब बीच में। न्यू जीलैंड को सबसे कम करप्ट देश पाया गया। इसके बाद डेनमार्क, सिंगापुर, स्वीडन, स्विट्जरलैंड आदि का नंबर है। बड़े देशों की बात करें तो जर्मनी 14वें, ब्रिटेन 18वें, अमेरिका 19वें और फ्रांस 24वें नंबर पर थे। यह लिस्ट सबसे कम करप्ट के मुताबिक बनाई जाती है।
सवाल यह है कि जब हम एक इकॉनमी के रूप में तेजी से विकसित हो रहे हैं और आनेवाले वक्त में खुद को ग्लोबल पावर के रूप में देखते हैं तो फिर विकसित देशों के मुकाबले हम इतने करप्ट क्यों हैं? पॉलिटिक्स, जूडिशरी, सेना, कस्टम, मेडिकल, एजुकेशन, स्पोर्ट्स, ट्रांसपोर्ट सभी में करप्शन पसरा हुआ है। नेताओं, ब्यूरोक्रेट्स और अपराधियों के बीच साठगांठ तो 1993 में वोहरा रिपोर्ट में चिंता जताई गई थी लेकिन उसके बाद से अपराधियों का राजनीति में प्रवेश बढ़ा ही है।
अब भी नेता दागी हैं। इसी तरह, हाल में राज्यसभा में पेश ब्यौरे के मुताबिक 84 आईएएस और 33 आईपीएस अधिकारियों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। बीते साल एक सर्वे में सिंगापुर, थाइलैंड, साउथ कोरिया, जापान, मलयेशिया, चीन आदि एशियाई देशों के ब्यूरोक्रेट्स में हमारे ब्यूरोक्रेट्स सबसे कम लायक पाए गए और उनके साथ काम करना काफी धीमा और मुश्किल भरा लगा। ये वे लोग हैं, जिनके कंधे पर देश का दारोमदार है। कॉमनवेल्थ गेम्स में करप्शन का उजागर होना इस फेहरिस्त में ताजा मामला है। सब जानते हैं कि सीवीसी ने कॉमनवेल्थ गेम्स में करप्शन कम से कम 16 प्रोजेक्ट पर सवाल उठाया है, जिन पर जनता के 2500 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। यह सिर्फ एक झलक भर है, असलियत इससे कहीं भयानक होगी।
नेताओं, ब्यूरोक्रेट्स और ठेकेदारों की यह सांठगांठ देश की साख को डुबोएगी नहीं, ऐसी उम्मीदें कम ही हैं। शायद खेल मंत्री का कॉमनवेल्थ गेम्स को भगवान भरोसे कहना इस बात को साबित करता है कि हालत कंट्रोल में नहीं और अब भगवान ही इसका मालिक है।
लेकिन दूसरों पर उंगली उठाने से पहले हम जरा खुद को भी आंक लें। हममें से कितने लोग ऐसे हैं, जो चौराहे पर ट्रैफिक पुलिसवाला न होने पर खुद को रेड लाइट जंप करने से रोक पाता है, खासकर रात के अंधेरे में। कितने लोग ऐसे हैं, जो किसी भी इवेंट का पास होने के बावजूद टिकट खरीदना पसंद करता है। खुद को वीआईपी और नियमों से परे दिखाने में किसको गर्व महसूस नहीं होता? किसी बाबू की मुट्ठी गरम करके शॉर्टकट से अपना काम नहीं निकलवाना चाहता। बीते साल एक सर्वे में पता चला कि हममें से 50 फीसदी लोगों को पब्लिक ऑफिस में अपना काम निकलवाने के लिए रिश्वत देने का फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस है। जाहिर है, हम खिलाते हैं, इसलिए वे खाते हैं।
भ्रष्टाचार से लड़ाई के तमाम साधन हैं हमारे पास। कैग, सीवीसी, आईबी, सेबी, ऑम्ब्ड्समैन, आरबीआई, जैसे कई एंटी करप्शन वॉच डॉग हैं। इनसे भी बड़ा आरटीआई का हथियार हमारे हाथ में है। हालांकि यह राह आसान नहीं है। 2009 में आठ लोगों को सच बोलने या करप्शन के खिलाफ आवाज उठाने के बदले में अपनी जान गंवानी पड़ी।
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