लूट मची, लुट गए खेल में भारत के करदाता,
आँख खोल के अब तो देखो भारत की भारतमाता.
ऐसा-वैसा नहीं! गज़ब का अजब हुआ घोटाला,
लुटी तिजोरी खेल गाँव में लगा रहा पर ताला.
दूध धुला जिसको समझा था वो निकला सर्वेश,
शशि थरूर ने खाता खोला पहली बार विदेश.
सब कहते कलमाडी ही है असली भ्रष्टाचारी,
'शिशु' और भी शामिल हैं कुछ इसमें खद्दरधारी.
नौकरशाह और नेता ही अब सबके हैं भाग्यविधाता
जन गण मन अधिनायक जय हे, उनकी भारतमाता
आँख खोल के अब तो देखो भारत की भारतमाता.
ऐसा-वैसा नहीं! गज़ब का अजब हुआ घोटाला,
लुटी तिजोरी खेल गाँव में लगा रहा पर ताला.
दूध धुला जिसको समझा था वो निकला सर्वेश,
शशि थरूर ने खाता खोला पहली बार विदेश.
सब कहते कलमाडी ही है असली भ्रष्टाचारी,
'शिशु' और भी शामिल हैं कुछ इसमें खद्दरधारी.
नौकरशाह और नेता ही अब सबके हैं भाग्यविधाता
जन गण मन अधिनायक जय हे, उनकी भारतमाता
समाज में व्याप्त अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार शोषण का सामना करते -करते एक दिन वह स्थिति आ जाती है जब अन्दर सोया पुरुषार्थ भी जागृत हो उठता है. नहीं ...अब ...और नहीं...., बहुत दिन सह लिया..बहुत ज्यादा सह लिया..अब और नहीं सहूंगा...मिटा डालूँगा इसे....अन्याय का यह अस्वीकार बोध मानव मन को दो विकल्प उपलब्ध कराता है - प्रथम, हम अन्याय और शोषण की ओर से पूरी तरह विरक्त हो जाय, यह मान लें कि हमारे चरों ओर जो कुछ घटित हो रहा है हम उसके सहभागी नहीं है. हम कुछ नहीं कर सकते. अतएव हमारा कोई दायित्व नहीं. द्वितीय, यह स्थिति अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार से सीधे प्रतिकार और टकराव का है. पहली स्थिति पलायनवादिता है, विवशता और पराधीनता की स्थिति है. दूसरी स्थिति अन्याय से आमने - सामने जूझने की स्थिति है जहां जीवन का मोह निरर्थक हो जाता है. और मृत्यु का वरण पहली अनिवार्य शर्त बन जाती है.जहां मृत्यु के अनजाने भय में भी दायित्व का सौन्दर्य और विवेक का प्रकाश दिखाई देने लगता है. मन बोल ही उठता है - 'पहिला मरण कबूल कर जीवन की छड़ आस', यहाँ मृत्यु की कोई चिंता नहीं और जीवन से कोई मोह भी नहीं. बिना तत्त्वज्ञान के यह होता भी नहीं, वह शक्ति -साहस और ऊर्जा तभी मिलती है जब व्यक्ति में ज्ञान और दायित्व का, कर्त्तव्यबोध का उदय होता है. जब ऐसा होता है तो वह अन्याय और भ्रष्टाचार को सहने से इनकार कर देता है.
समाज में व्याप्त अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार शोषण का सामना करते -करते एक दिन वह स्थिति आ जाती है जब अन्दर सोया पुरुषार्थ भी जागृत हो उठता है. नहीं ...अब ...और नहीं...., बहुत दिन सह लिया..बहुत ज्यादा सह लिया..अब और नहीं सहूंगा...मिटा डालूँगा इसे....अन्याय का यह अस्वीकार बोध मानव मन को दो विकल्प उपलब्ध कराता है - प्रथम, हम अन्याय और शोषण की ओर से पूरी तरह विरक्त हो जाय, यह मान लें कि हमारे चरों ओर जो कुछ घटित हो रहा है हम उसके सहभागी नहीं है. हम कुछ नहीं कर सकते. अतएव हमारा कोई दायित्व नहीं. द्वितीय, यह स्थिति अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार से सीधे प्रतिकार और टकराव का है. पहली स्थिति पलायनवादिता है, विवशता और पराधीनता की स्थिति है. दूसरी स्थिति अन्याय से आमने - सामने जूझने की स्थिति है जहां जीवन का मोह निरर्थक हो जाता है. और मृत्यु का वरण पहली अनिवार्य शर्त बन जाती है.जहां मृत्यु के अनजाने भय में भी दायित्व का सौन्दर्य और विवेक का प्रकाश दिखाई देने लगता है. मन बोल ही उठता है - 'पहिला मरण कबूल कर जीवन की छड़ आस', यहाँ मृत्यु की कोई चिंता नहीं और जीवन से कोई मोह भी नहीं. बिना तत्त्वज्ञान के यह होता भी नहीं, वह शक्ति -साहस और ऊर्जा तभी मिलती है जब व्यक्ति में ज्ञान और दायित्व का, कर्त्तव्यबोध का उदय होता है. जब ऐसा होता है तो वह अन्याय और भ्रष्टाचार को सहने से इनकार कर देता है.
सब कहते कलमाडी ही है असली भ्रष्टाचारी,
'शिशु' और भी शामिल हैं कुछ इसमें खद्दरधारी.