देखो ऋतुराज बसंत है आया
तन मन जन का है हर्षाया.
खेतों में निकली है सरसों पीली-पीली
शबनम की बूंदों से धरती की होंठ है गीली-गीली.
कलियों ने नैन-कपाट हैं खोले
भवरों ने मीठे-मीठे बैन हैं बोले.
कवियों का हृदय हुआ आह्लादित
विविध शब्द-रस हुआ उदघाटित.
चारों दिशाएं झूम के गाएं
आंगन मोरे ऋतुराज हैं आएं.
हवा चली आज बसंती
महक रहे जन आज बसंती.
खोल पुराने छोड़-छाड़कर
पीत वस्त्र पहन निकला है दिवाकर.
नदियां,साहिल और समुन्दर मारे पींगे
बसंती धार से सत, रज, तम सब गुन भींगे.
बरस भर के सूखे फूल खिले
बयार बसंती में मुरझे हृदय-कमल खिले.
'प्रबल' बसंती 'प्रणवीर' बसंती
हुए पाकर 'धुन', 'शुभ्र', 'वत्सल' बसंती.
(प्रणवीर- अग्रज भाई, धुन- बड़ी भांजी, शुभ्र- बड़ी भतीजी, वत्सल- छोटी भतीजी.)
प्रबल भाई बड़ी जोरदार कविता है ठण्ड भगाऊ !
सुन्दर शब्द चयन ....बसंती भावो से सजी रचना !!