डॉ. क्रिश्चियन फ्राइडरिक सैमुअल हैनिमेन होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के जन्मदाता थे। इतिहास लिखने वालों के अनुसार हैनीमैन का जन्म १०-०४-१७५५ को हुआ था और ०२-०७-१८४३ को शरीर त्यागने की तिथि बतलाई है| लेकिन ऐसे महान पुरुष सदा सदा के लिए अमर हैं| संसार में उनकी कीर्ति और यश हमेशा के लिए बना रहेगा| उन्होंने कई वर्षों तक खोज करके, विष-विज्ञान का अध्ययन करके और स्वयं ही कई प्रकार के विष का सेवन करके सम्पूर्ण मानव जगन के कल्याण के लिए होम्योपैथिक चिकित्सा प्रणाली का विकास किया| उन्होंने अपना जीवन अभावों और गरीबी में बिताया था| हैनिमेन एलोपैथी चिकित्सा में ऍम डी की उपाधि प्राप्त चिकित्सक थे तथा कई दूसरी भाषाओं के भी ज्ञाता थे| जीविकोपार्जन के लिए वे चिकित्सक तथा अंग्रेजी भाषा के ग्रंथों का अनुवाद जर्मन और अन्य भाषाओं में करते थे। एक बार जब अंगरेज डाक्टर विलियम कलेन की लिखी “कलेन्स मेटेरिया मेडिका” मे वर्णित कुनैन नाम की जडी के बारे मे अंगरेजी भाषा का अनुवाद जर्मन भाषा में कर रहे डा0 हैनिमेन का ध्यान डा0 विलियम कलेन के उस वर्णन की ओर गया, जहां कुनैन के बारे में कहा गया कि ‘’ यद्यपि कुनैन मलेरिया रोग को आरोग्य करती है, लेकिन यह स्वस्थ शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा करती है।
कलेन की कही गयी यह बात डा0 हैनिमेन के दिमाग में बैठ गयी। उन्होंनें तर्कपूर्वक विचार करके क्विनाइन जड़ी की थोड़ी थोड़ी मात्रा रोज खानीं शुरू कर दी। लगभग दो हफ्ते बाद इनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा हुये। जड़ी खाना बन्द कर देनें के बाद मलेरिया रोग अपनें आप आरोग्य हो गया। इस प्रयोग को डा0 हैनिमेन ने कई बार दोहराया और हर बार उनके शरीर में मलेरिया जैसे लक्षण पैदा हुये। क्विनीन जड़ी के इस प्रकार से किये गये प्रयोग का जिक्र डा0 हैनिमेन नें अपनें एक चिकित्सक मित्र से किया। इस मित्र चिकित्सक नें भी डा0 हैनिमेन के बताये अनुसार जड़ी का सेवन किया और उसे भी मलेरिया बुखार जैसे लक्षण पैदा हो गये। कुछ समय बाद उन्होंनें शरीर और मन में औषधियों द्वारा उत्पन्न किये गये लक्षणों, अनुभवो और प्रभावों को लिपिबद्ध करना शुरू किया। हैनिमेन की अति सूच्छ्म द्रष्टि और ज्ञानेन्द्रियों नें यह निष्कर्ष निकाला कि और अधिक औषधियो को इसी तरह परीक्षण करके परखा जाए। इस प्रकार से किये गये परीक्षणों और अपने अनुभवों को डा0 हैनिमेन नें तत्कालीन मेडिकल पत्रिकाओं में ‘मेडिसिन आंफ एक्सपीरियन्सेस ’’ शीर्षक से लेख लिखकर प्रकाशित कराया । इसे होम्योपैथी के अवतरण का प्रारम्भिक स्वरूप कहा जा सकता है।
यह घटना १७९० की है जब इस चमत्कारी विज्ञान का जन्म हुआ, जिसमें दर्द नहीं होता, जादू सा महसूस होता है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसमे बड़ी शांति मिलती है|इस आधार पर उन्होंने एक सिद्दान्त का निर्धारण किया जिसे “सदृश्य विधान” कहते हैं अर्थात विष की ओषधि विष ही है| सरल अर्थ यह है कि रोग के जो लक्षण जिस औषधि से प्रकट होते हैं उन्ही लक्षणों की रोग में सदृश्यता होने पर उन्हें औषधि द्वारा ठीक किया जा सकता है| उन्होंने औषधि की मात्रा और शक्ति के निर्धारण के लिए भी अध्ययन किया| जो औषधि स्वस्थ व्यक्ति में विकार उन्पन्न करती है उसी औषधि की कम मात्रा वैसे लक्षण वाले रोगी व्यक्ति को स्वस्थ बना देती है| कुनैन बनाने वाली एक वृक्ष की छाल और उसमें ९९ गुना पानी मिला दिया और दो सप्ताह तक उस घोल को छाल सहित पानी में मसल कर हिला – हिला कर रखे रहे और फिर छान लिया| इतने पतले घोल को पीने पर भी स्वस्थ व्यक्ति में मलेरिया के लक्षण प्रकट हो जाते और घोल को पीना बंद करने पर मलेरिया के लक्षण हट जाते थे| इतना ही नहीं मलेरिया के रोगी इस घोल की कुछ बुँदे पीकर स्वस्थ हो जाते थे| यह एक बड़ी उपलब्धि थी कि कुनैन कि अनगिनत गोलियाँ खाने के बदले उस घोल कि थोड़ी सी बुँदे रोगी को निरोग कर देती थीं| घोल को पतला करने की क्रिया में असली द्रव्य की मात्रा का अंश केवल एक था और पानी की मात्रा थी ९९ अर्थात दवा के हर अंश में असल दवा की मात्रा थी केवल एक और पानी की मात्रा ९९ थी| हैनिमन ने औषधि की मात्रा को और भी कम करने का निश्चय किया उन्होंने ऊपर लिखे घोल से एक चम्मच घोल लेकर उसमे ९९ गुना पानी मिलाया और फेट फेट कर मिलाते रहे| इस घोल के प्रत्येक अंश में द्रव्य की मात्रा थी पहले घोल का भी सौवां भाग,इस घोल के गुण भी वैसे ही थे- स्वस्थ व्यक्ति में मलेरिया के लक्षण आ जाना और मलेरिया के रोगियों का ठीक हो जाना| वस्तुतः रोगी इस घोल की केवल एक या दो बुँदे पीने से जल्दी ठीक हो जाते थे और कुनैन की अधिक मात्रा के सेवन से जो दुष्परिणाम आते थे वो भी ठीक हो जाते थे| बाद में पानी के स्थान पर अल्कोहल अथवा मिल्क शुगर से मूल द्रव्य को पतला किया जाने लगा| डा0 हैनिमेन इस प्रकार का क्रम पतले से पतला तथा फिर पतले से और पतला करने की क्रिया करते रहे| उन्होंने इन घोलों का नामकरण भी कर दिया—सिनकोना-१, सिनकोना-२ इत्यादि| सिनकोना-६ का अर्थ था कि द्रव्य को ६ बार पतला फिर पतले से पतला किया गया है और हर बार पतला करने से द्रव्य कि सामर्थ्यता बढ़तीचली गयी|
पतला करने की इस क्रिया को नाम दिया गया शक्तिकृत(Potencialization) करना| इस प्रकार पुनः और शक्तिकृत करने हेतु और पतला से पतला किया गया | लेकिन ओषधि के मूल द्रव्य को अल्कोहल या मिल्क सुगर से पतला करना या मिलाना ही नहीं बल्कि उसमें उचित ढंग से फेटा अर्थात स्ट्रोक लगाना जरूरी होता है| आजकल यह काम आटोमेटिक मशीनों द्वारा होता है|
इसमे भी दसवें क्रम की प्रक्रिया, सौवें क्रम की प्रक्रिया तथा पचास हजारवें क्रम तक की प्रक्रियाएं निर्धारित की गयी हैं| हेनिमन का दूसरा सिद्धांत था कि सदृश्य- विधान के पश्चात मूल द्रव्य की उचित शक्ति की न्यूनतम मात्रा से रोग ठीक हो जाता है| हेनिमन ने यह भी निर्धारित किया कि सिर्फ रोग के नाम के आधार पर रोगी को दवा दे दिया जाना उचित नहीं है| रोग का नाम कुछ भी हो रोगी के शारीरिक एवं मानसिक लक्षणों का अध्ययन करने के पश्चात ही दवा का निर्धारण करना चाहिए| मानसिक लक्षणों में डरपोकपन, निडरता, गुस्सा,ठंडापन, गर्मप्रविती, खानापीना ,रहनसहन, किसी प्रकार का एक्सीडेंट, मीठा या नमकीन भोजन की रूचि का अध्ययन के अतिरिक्त चाय, काफ़ी, शराब और तम्बाकू पर पूरी तरह से रोक लगाने की उन्होंने सलाह दी| उन्होंने सलाह दी की रोगी के मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक पहलुओं पर विचार करने के पश्चात ही औषधि का चुनाव किया जाये| इसके अलावा शारीरिक व्यायाम को भी उन्होंने अति आवश्यक बतलाया| लेकिन व्यायाम के समय किसी भी प्रकार का मानसिक तनाव या चिंता बिलकुल नहीं होनी चाहिए| इसके अलावा बीमारों को एक समय में एक ही दवा दिये जाने तथा औषधि कि मात्रा न्यूनतम देने का निर्देश दिया| हैनिमन के ये सिद्धांत हानि रहित और बिना किसी साइडअफेक्ट के काम करते हैं, साथ ही ये सस्ते भी है| हैनिमन ने कोशिश करके, त्याग करके मानव जाति की भलाई के लिए जो कार्य किये, उन्हें मानव जाति एक महात्मा के रूप में याद रखेगी| तभी तो उनकी कब्र पर यह वर्णित किया गया है “मेरी जिन्दगी व्यर्थ नहीं गयी”| ऐसे महात्मा को मेरा शत शत नमन|
atyant jankari bhara lekh.
dhanyvaad
Good Article