
संजीव 'सलिल'
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नेह-छोह रखाब सदा, आपन मन के जोश.
सत्ता दान बल पाइ त, 'सलिल; न छाँड़ब होश..
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कइसे बिसरब नियति के, मन में लगल कचोट.
खरे-खरे पीछे रहल, आगे आइल खोट..
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जीए के सहरा गइल, आरच्छन के हाथ.
अनदेखी काबलियत कs, लख- हरि पीटल माथ..
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आस बन गइल सांस के, हाथ न पड़ल नकेल.
खाली बतिय जरत बा, बाकी बचल न तेल..
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दामन दोस्तन से बचा, दुसमन से मत भाग.
नहीं पराया आपना, ला लगावत आग..
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प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.
सूरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..
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शीशा के जेकर मकां, ऊहै पाथर फेंक.
अपने घर खुद बार के, हाथ काय बर सेंक?.
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राउर व्यथा बुझा ला राउर कबिता में... एक एक छंद में रउआ जान भर देले बानीं जा...
प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.
सूरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..
बहुत सुन्दर बात माटी की बोली में
बहुत अच्छे लगे दोहे!
शानदार प्रस्तुती,ब्लॉग को सार्थकता की ओर ले जाती पोस्ट /
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