पर्यावरण प्रदूषण व नैतिकता में अन्तः सम्बन्ध
( डा.श्याम् गुप्त् )
पर्यावरण प्रदूषण व नैतिकता में क्या सम्बन्ध हो सकता है? वस्तुतः अनैतिकता स्वयम में ही एक मानसिक प्रदूषण है, और प्रदूषित मानसिकता प्रत्येक प्रकार के प्रदूषण का मूल है। प्रदूषण के जितने भी कारण गिनाये जा सकते हैं, सभी मानव के अनैतिक कृत्यों के प्रतिफ़ल हैं।
सदियों से आस्था रूपी कर्म , अस्थियां, शव, पुष्प-फ़ल, पूजा सामग्री, दीप-दान आदि गंगा व अन्य नदियों में प्रवाहित किये जाते रहे हैं, परन्तु नदियां कब प्रदूषित हुईं। नियमानुसार ,पूर्ण भस्मी- भूत अस्थियां, असन्क्रमित व फास्फ़ोरस आदि से ,जल शुद्दीकरण का स्रोत होती हैं। जल में केवल प्राकृतिक मृत्यु प्राप्त शिशुओं को ही प्रवाहित करने का विधान था जो असन्क्रमित व रोग रहित होते हैं।परन्तु मानव-लिप्सा, प्रमाद व स्वार्थ वश-मानव शव, पशु पक्षीके मृत शरीर, अधजले शव, कागज़ व प्लास्टिक आदि विनष्ट न होने वाली वस्तुएं प्रवाहित होना प्रारम्भ हो गया।
कल कारखानों का प्रदूषित व रासायनिक उच्छिष्ट, नगरों का मल-मूत्र, कूडा करकट, (मालिक, कर्मी, नागरिक, शासन सभी की स्वार्थ, लिप्सा, भ्रष्टाचार–युत मिली भगत से); नहर, बांध, नाले आदि द्वारा नदियों के प्रवाह का रुकना; अति भौतिकवादी जीवन यापन व्यवस्था हेतु पशु पक्षी मानव अन्गों का प्रयोग; वनों की कटाई; पर्वतों का दोहन; वतावरण प्रदूषण आदि कोई अति आवश्यक क्रिया कलाप नहीं हैं एवं सभीके उपयुक्त निर्धारित शास्त्रीय, धार्मिक व कानूनी नियम निर्देश हैं। परन्तु प्रदूषित मानसिकता से ग्रसित मानव, अनैतिक कर्मों, लिप्सा, स्वार्थ व लालचवश इनका पालन नहीं करता। यदि हम (मानव—व्यक्ति, समाज़, शासन) सभी प्राकृतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व शासन द्वारा स्थापित नियमों व नीति-निर्देशों का उल्लन्घन न करें तो समस्या का समाधान स्वतः ही हो जाता है।
पर्यावरण-प्रदूषण व नैतिकता के अन्तःसम्बन्धॊ पर वैदिक युग से आज तक सदैव कहा, लिखा व स्पष्ट किया जाता रहा है, ताकि व्यक्ति व समाज की स्वार्थ-लिप्सा पर्यावरण को भ्रष्ट व नष्ट न करे। विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ, ऋग्वेद्-४/१८ में कहा है-
“अयं पन्था अनुबित्तः पुराणो मतां देवां उपजायंत् विश्वे ।
अतश्चिदा जनयीष्ट् प्रबुद्दो मा मातरममुया पन्तवेः कः ॥ “
अर्थात् यह् पन्थ् सनातन् है( यह सदैव सुनिश्चित् तथ्य है )कि प्रबुद्द लोग् अपनी आधार भूता माता (प्रकृति व पर्यावरण्) को विनष्ट् न करें, यह् उनका प्रथम् कर्तव्य् है। तथा अथर्व् वेद् ४/७ में कथन् हे—
“ यदस्या कश्मैचिद् भोगाय् बलात् कश्मिद्द प्रक्रतान्ते ।
ततं क्रिस्तेण् म्रियन्ते वत्सोश्च् धानुकोः ब्रकः ॥
अर्थात् जो (व्यक्ति, समाज़्, शासन् ) केवल भोग् विलास् व लिप्सावश प्रकृति का कर्तन्, दोहन् करते हैं, उनकी सन्तानें, पशु-पक्षी मृत्यु को प्राप्त् होते हैं।
व्यक्ति समाज़् व राष्ट्र का नैतिक् कर्तव्य् निर्धारित् करते हुए अथर्व् वेद् कहता है—
“ यदस्य् गोपदो सत्यालोप् अज़ोहितः ।
तत्कुमारा म्रियन्ते ,यक्ष्मो विन्दत् नाशयात् ॥ “
अर्थात् जिस् गृह, नगर्, ग्राम्, समाज्, राष्ट्र मेंपर्यावरण् नष्ट् होता है वहां सन्तति ( ज़ैविक् धन् ,पशु,पक्षी, मानव्-सन्तान् ) को यक्ष्मा (विभिन्न रोग् व विकार ) जकड कर् हानि पहुंचाते हैं। इस् अन्तः सम्बन्ध् का रामचरित मानस में सुन्दर् वर्णन् है। पार्वती जी (उत्तम् चरित्र्,अनुशासन्,तप्,साधना,स्वाध्याय आदि उदात्त गुणों की प्रतीक् ) के जन्म मात्र् का पर्यावरण् पर् प्रभाव् देखें—
" सदा सुमन् फ़ल् सहित् सब् ,द्रुम् नव् नाना भांति ।
प्रकटीं सुन्दर् सैल पर्, मनि आकर् बहु भांति ॥"
आधुनिक् नवीन् कवियों, कलाकारों, साहित्य्कारों ने भी इस् अन्तः सम्बंध् में विभिन्न भाव् प्रदर्शित्
किये हैं ,यथा—
निज़ी स्वार्थ् के कारण् मानव्,
अति दोहन् कर् रहा प्रक्रति का।
प्रति दिन् एक् ही स्वर्ण् अन्ड् से,
उसका लालच् नहीं सिमटता ।------श्रष्टि महाकाव्य् से ।
* * *
धीरे धीरे बादल् अम्बर् ,
सबने खींच् हाथ्।
सूख् गया अनुराग् नदी का ,
जलचर् हुए अनाथ् ।
दोष् नहीं है कंकरीट् का ,
दूषित् हुआ विधान्। -----निर्मल् शुक्ल्
* * *
सावन् सूखा बीत् गया तो,
दोष बहारों को मत् देना ;
तुमने सागर् किया प्रदूषित् । ---- डा श्याम् गुप्त्
* * *
आशन्कित् नूतन् मानव् प्रहार् से, आतन्कित् बिकास् के प्रहार् से ।
,चाहता है बस् अन्त् प्राक्रतिक्, न जीवित् है , न मृत है वो ॥ --त्रिवेनी प्रसाद् दुबे
प्रस्तुति--- डा. श्याम् गुप्त् , के-३४८ ,आशियाना, लखनऊ-२२६०१२
मो. ०९४१५१५६४६४
पर्यावरण का महत्व समझ सभी रहे हैं। क्या करें एक तरफ़ खजाने की पडी रहती है लोगों को तो दूसरी ओर मँहगाई गरीबी बेरोजगारी से जूझ रहे एक तबके को खा जाने को तत्पर है। अच्छा आलेख।……आभार।
बहुत खूब कहा जी !!!!
धन्यवाद