अक्सर रातों की तन्हाई में.
मैं सोचता हूँ.
मैं कौन हूँ.
क्या पतझड़ का वह पत्ता हूँ.
जो वक्त के थपेड़ो से टूटकर.
जमीं पर पड़ा हूँ.
जो हल्के से हवा के झोंके से,
थरथरा जाता हूँ.
या फिर बरसात की वह पहली बूँद हूँ.
जो बादलों से निकलकर
तपती जमीं पर गिरकर
अपना वजूद समाप्त कर देती है
या फिर डाली का वह फूल हूँ
जो सूखकर जमीं पर पड़ा है
और याद कर रहा है
अपने बीते हुए अतीत को
जब फिजा में खुशबू बिखेरता था.अफ़सोस कर रहा था
अपने बीते हुए लम्हों को याद करके
तभी दिल के किसी कोने से यह आवाज़ उठी
मैं पतझड़ का पत्ता ही सही
जो टूटकर गिरा हूँ
पर आने वाले नए पत्तो को
हरियाली का न्योता दे आया हूँ
मैं बारिश की पहली बूद ही सही
भले ही तपती जमीं पर गिरकर
अपना अस्तित्व खो दिया हूँ
किन्तु आने वाली बारिश का
सन्देश लेकर आया हूँ
मैं डाली का टूटा फूल ही सहीलेकिन फिज़ाओ को
नई महक देने के लिए
नया राश्ता दिखाकर आया हूँ
शायद मैं जान गया हूँ
मैं कौन हूँ
मैं मिटकर भी अमित हूँ
मैं टूटकर भी अटूट हूँ
मैं गिरकर भी खड़ा हूँ
क्योंकि मैं नए ज़माने का
सन्देशवाहक हूँ.
मित्रो मैं कविता नहीं लिखता यह मेरा पहला प्रयास है लिहाजा अपनी राय से अवश्य अवगत कराये. टिप्पणी अवश्य दे.
पहली ही रचना इतनी उत्तम है तो आगे तो गज़ब ही होगा…………………आपका स्वागत है।एक सशक्त रचना………बधाई।
हरीश जी कृपया करके आप इस कविता को संजो कर रखेंगे। मैं भी रखने की कोशिश करूंगा। यह यादगार रहेगा। पहली कविता और इनती अनोखी शब्दों का संबल चित्रण अतुल है।
शुभकामनाओं सहित
बहुत खूब