हिन्दी नागप्पा ---कर्नाटक में हिन्दी के अलख निरंजन .....
<--युवा नागप्पा जब वे गांधीजी से मिले
हिन्दी नागप्पा ------>
बेंगलूरू पहुँच कर मैंने डा ललिताम्मा , अव प्रा प्रोफ एवं विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग ,मैसूर वि वि से फोन पर संपर्क किया , उन्होंने तुरंत ही पुनः फोन करके कहा कि तुरंत आयें हमारे गुरूजी नागप्पा जी की प्रथम बर्षी है, सारे साहित्यकार भी एकत्र होंगे | बहाँ पहुंचकर ललिताम्बा जी ने कई हिन्दी विद्वानों से मुलाक़ात कराई कहा कि अब आप हिन्दी में बात करिए | मुझे कर्नाटक में हिन्दी व नागप्पा जी के बारे में और अधिक जानने की इच्छा हुई।
गांधीजी ने हिन्दी के प्रचार के लिए अपने पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण भेजा । गांधीजी के रचनात्मक कार्यों की आंधी में उन दिनों हज़ारों नवजवान बहगये, लोगों ने अपना वर्ग, स्वर्ग अपवर्ग छोड़ा। उन्हीं नौजवानों में कर्नाटक के नागराज नागप्पा भी थे जिन्होंने हिन्दी का क्षेत्र चुना । बेलगावं सम्मलेन में उन्होंने गांधीजी के दर्शन किये और फिर हिन्दी के होकर रहगये। उस समय युवक नागराज नागप्पा गणित ( सांख्यकीय ) में बी ऐ कर चुके थे तथा कहीं भी अच्छी नौकरी पा सकते थे परन्तु उन्होंने दक्षिण भाषा प्रचार सभा से राष्ट्र भाषा परिक्षा पास की तथा काशी जाकर वनारस हिन्दू वि वि से हिन्दी में एम् ऐ किया, जहां उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल ,श्याम सुन्दर दास जैसे हिन्दी के महारथियों के चरणों में बैठकर हिन्दी सीखी। । इस प्रकार वे दक्षिण भारत में हिन्दी से एम् ऐ करने वाले प्रथम विद्वान् बने।
१९३५ में इंदौर सम्मलेन में गांधीजी व आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के परामर्श पर वे पुनः अगस्त्य की भांति दक्षिण लौटे एवं मद्रास में हिन्दी प्रचारक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। धारवाड़ , मैसूर,आदि कर्नाटक के सभी कालेजों में हिन्दी पठन पाठन, शोध आदि प्रारम्भ करने में उन्हीं का योगदान था । यद्यपि कन्नड़ के कवि-कुल गुरु व राष्ट्र कवि के वी पुटप्पा ( कु वें पू ) हिन्दी के पक्षधर नहीं थे परन्तु नागप्पा जी ने उन्हें भी मना कर हिन्दी का ध्वज फहराया। इस प्रकार सारे कर्नाटक व दक्षिण भारत में अपने अथक परिश्रम से जन जन में हिन्दी के प्रसार-प्रचार के प्रणेता बन कर वे 'हिन्दी नागप्पा" के नाम से प्रसिद्ध हुए । उनके शिष्य- शिष्याओं , प्रसंशकों की संख्या समस्त दक्षिण भारत कर्नाटक व देश भर में फ़ैली है। सेवा निवृत्ति के बाद भी वे कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति से जुड़े रहे एवं 'भाषा पीयूष' नामक पत्रिका प्रारम्भ की। वे भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों के अध्यक्ष, परामेश समितियों के सदस्य व केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के अध्यक्ष रहे। उन्हें देश भर से तमाम पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त हुए | २००२ ई में ९० वर्ष की आयु में पूर्ण करने पर उन्हें 'पूर्ण-कुंभ’ अभिनन्दन ग्रन्थ भी समर्पित किया गया।
नागप्पा जी तुलसी दास के अनन्य भक्त व प्रशंसक थे। उनके मुंह से दोहे व चौपाई धडाधड निकलते थे। अतः उन के बारे में ' नागप्पा जी व हिन्दी --कहियत भिन्न न भिन्न ' कहाजाता है। एसे हिन्दी नागप्पा ०६-०७-२००९ को स्मृति-शेष हो गए। डा वी वेंकटेश साहित्यालंकार का कथन है--
" ना नागप्पा नमस्तुभ्यं , अमित सुबल सम्पन्नम
ज्ञान उर्वर कर्नाटक क्षेत्रे -संजात धीमनतम
सुललित हिन्दी भाषा कल्पतरु रोपण समुद्भवं
प्रणतोअस्मि आचार्य नानागुरुवर्य कीर्तिशेषं ॥"
...Nagappa ji ke jiwan vrat ka parichay karne ke liya dhanyavaad.. abhar