अयोध्या में
मंदिर औ' मस्जिद
दोनों खामोश है.
उन्हें नहीं इन्तजार
क्या मिलना उनपर
अदालत का आदेश है.
निस्पृह, निर्विकार और निस्तेज भी
उनकी आवाज क्या सुनी किसी ने?
बेवजह खो बैठे हैं
अपने संयम और धैर्य को
तलवार तेज करने में जुटे हैं
वे कौन हैं?
अफवाहों ने सशंकित कर दिया,
क्या होगा? अब क्या होगा?
इसी में हर इंसां बहदवास है.
शक की निगाहों से
देख रहे हैं
कल तक जिन्हें अपना कहा
ये हालत उनकी भी है
परेशान हर आम और खास है.
सोचते है कि कल क्या खायेंगे?
अगर बलवा हो गया तो?
रोटी क्या मंदिर और मस्जिद से पायेंगे?
अमन और चैन नहीं बचा ,
अब इनके भी साए में,
बस सेंकने को तैयार हैं--
राजनीति की रोटियां
तवे तो ये गरीब बनाये जाते हैं.
अपने हित सोच कर
भोले भाले बरगलाये जाते हैं
मशालें थमा कर
औरों के घर जलाये जाते हैं.
कौन जला इसमें ?
किसकी टूटी चूड़ियाँ?
किसके घर का चूल्हा बुझ गया?
किस घर के चराग को गुल किया?
हिसाब नहीं है हमारे पास.
फिर क्यों?
हम इंसां बनकर इंसां को
अमन से जीने नहीं देते हैं.
थाम लें गर हाथ कसकर
शांति की मशाल को
कोई ताकत नहीं कि उसको
बुझाने की हिमाकत करे.
हम जुड़ें औ' जुड़ते रहें
वे खुद टूट जायेंगे
छोड़ कर अपने इरादे
हम में ही मिल जायेंगे.
bahut sahi, aur samay kii mang par khari!
वाह …………बहुत सुन्दर संदेश देती रचना।
सुन्दर रचना।
रोचक, और प्रभावी! आपकी कविता में धार है!
अल्लाह और भगवान् दोनों से दुआ है आप और आगे जाएँ.
हम जुड़ें औ' जुड़ते रहें
वे खुद टूट जायेंगे
छोड़ कर अपने इरादे
हम में ही मिल जायें
Ati sunder