सभी राष्ट्रीय,राष्ट्रमंडल ,अन्तर्राष्ट्रीय व व्यवसायिक संस्थानों में खेल आयोजन बंद होने चाहिए.....डा श्याम गुप्त
----- वस्तुतः खेल हम क्यों खेलते हैं , मूलतः शारीरिक क्षमता वाले ---व्यायाम, स्वास्थ्य के लिए ; व मानसिक खेल मानसिक क्षमता के लिए , न कि प्रतियोगिता के लिए , कमाई के लिए, देश का नाम ऊंचा करने के लिए ( खेल से देश का क्या नाम ऊंचा होता है? अधिकतर तो बदनाम ही होता है; नाम ऊंचा तो प्रगति कारक कृतियों , वैज्ञानिक, सामाजिक उपलब्धियों से होता है |) खेल आदि सिर्फ स्कूल- कालेज स्तर पर होकर वहीं समाप्त होजाने चाहिए |आगे जीवन में खेलों का क्या काम ? सभी व्यवसायिक संस्थानों आदि में खेल कोटा - नौकरी , भव्य खेल आयोजनों को बंद करा देना चाहिए |
---- इतिहास गवाह है जब भी खेल, मनोरंजन आदि को व्यवसायिक-भाव, प्रतियोगिता-भाव, कमाई, धंधा से देखा गया , राष्ट्र व समाज-संस्कृति का विनाश ही हुआ है |हमारे शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि मनोरंजन व्यवसाय नहीं बनना चाहिए |( खेल गाँव में ३ दिन में ६००० कंडोम समाप्त होगये ....क्यों , खेलने आते हैं या कंडोम प्रयोग करने , कौन करता है , क्यों ,किस पर, किस प्रयोजन के लिए , खिलाड़ियों व अधिकारियों के एस्कोर्ट के लिए लड़कियां ही क्यों ...पुरुष क्यों नहीं ????)|
रोम के विनाश में ओलम्पिक आदि खेलों का महत्वपूर्ण योगदान था, अति-खेल प्रियता, प्रतियोगिता -व्यर्थ की अप-संस्कृति, भ्रष्टाचार, भ्रष्ट -आचरण ,राजनीतीकरण , राजनैतिक अपराधीकरण व व्यक्तिगत -सामाजिक कुटिलता को जन्म देती है | 'जब रोम जलरहा था तो नीरो बांसुरी बजारहा था '- -कूट वाक्य का अर्थ यही है कि स्वयम शासक व जनता, अधिकारी सभी मनो-विनोद , आमोद-प्रमोद में , खेल-कूद आदि में मगन थे; शासकीय , सामाजिक , नैतिक कार्यों से विमुख होगये थे | कितने आपराधिक -कार्य , कहानियां , कथाएं व जघन्य क्रिया -कलाप जुड़े हैं रोमन-खेलों से किसी से छिपा नहीं है | और आज भी |
-----हमारे यहाँ गाँवों , कस्बों में सदा से ही ये खेल -कूद आदि होते रहे हैं परन्तु सिर्फ मेलों -सामाजिक उत्सवों आदि में जब सभी इनमें सहज रूप से भाग लेते हैं , कहीं कोई धंधे -पैसे की बात नहीं | अलग से व्यवसाय बनाकर कमाई का जरिया नहीं | सभी वर्ष भर अपने सामान्य दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं न कि झूठे विज्ञापन आदि की भ्रष्ट कमाई में , जो देश की अर्थ व्यवस्था के समान्तर एक अर्थ व्यवस्था पैदा करती है, और सामाजिक असंतुलन |
---- इतिहास गवाह है जब भी खेल, मनोरंजन आदि को व्यवसायिक-भाव, प्रतियोगिता-भाव, कमाई, धंधा से देखा गया , राष्ट्र व समाज-संस्कृति का विनाश ही हुआ है |हमारे शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि मनोरंजन व्यवसाय नहीं बनना चाहिए |( खेल गाँव में ३ दिन में ६००० कंडोम समाप्त होगये ....क्यों , खेलने आते हैं या कंडोम प्रयोग करने , कौन करता है , क्यों ,किस पर, किस प्रयोजन के लिए , खिलाड़ियों व अधिकारियों के एस्कोर्ट के लिए लड़कियां ही क्यों ...पुरुष क्यों नहीं ????)|
रोम के विनाश में ओलम्पिक आदि खेलों का महत्वपूर्ण योगदान था, अति-खेल प्रियता, प्रतियोगिता -व्यर्थ की अप-संस्कृति, भ्रष्टाचार, भ्रष्ट -आचरण ,राजनीतीकरण , राजनैतिक अपराधीकरण व व्यक्तिगत -सामाजिक कुटिलता को जन्म देती है | 'जब रोम जलरहा था तो नीरो बांसुरी बजारहा था '- -कूट वाक्य का अर्थ यही है कि स्वयम शासक व जनता, अधिकारी सभी मनो-विनोद , आमोद-प्रमोद में , खेल-कूद आदि में मगन थे; शासकीय , सामाजिक , नैतिक कार्यों से विमुख होगये थे | कितने आपराधिक -कार्य , कहानियां , कथाएं व जघन्य क्रिया -कलाप जुड़े हैं रोमन-खेलों से किसी से छिपा नहीं है | और आज भी |
-----हमारे यहाँ गाँवों , कस्बों में सदा से ही ये खेल -कूद आदि होते रहे हैं परन्तु सिर्फ मेलों -सामाजिक उत्सवों आदि में जब सभी इनमें सहज रूप से भाग लेते हैं , कहीं कोई धंधे -पैसे की बात नहीं | अलग से व्यवसाय बनाकर कमाई का जरिया नहीं | सभी वर्ष भर अपने सामान्य दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं न कि झूठे विज्ञापन आदि की भ्रष्ट कमाई में , जो देश की अर्थ व्यवस्था के समान्तर एक अर्थ व्यवस्था पैदा करती है, और सामाजिक असंतुलन |
जो देश की अर्थ व्यवस्था के समान्तर एक अर्थ व्यवस्था पैदा करती है, और सामाजिक असंतुलन |
syah our sfed hr jgh hai . jb tk hum naitik roop se mjboot nhi honge tb tk ye asntulan bna rhega .fir bhi umeed pe duniya kaym hai .