कुछ फूल भी ज़ख्म दे देते हैं यक़ीन मानों मेरा
दिल ज़ख़्मी हो सिर्फ़ ख़ार से ज़रूरी तो नहीं
चाही जो मैंने थोड़ी सी ख़ुशी ज़िन्दगी में
ख़ुशी के बदले ख़ुशी ही मिले ज़रूरी तो नहीं
चाही जो मैंने थोड़ी सी मोहब्बत ज़िन्दगी में
मोहब्बत के बदले मोहब्बत मिले ज़रूरी तो नहीं
हो क़िस्मत पर सबका इखित्यार ज़रूरी तो नहीं
ग़म में रो सके जो आँखें ज़ार-ज़ार ज़रूरी तो नहीं
रोने से क्या फायेदा मिलेगा अब 'ऐ सलीम'
ज़ीस्त से हों जाएँ सब बेज़ार ज़रूरी तो नहीं.
कुछ फूल भी ज़ख्म दे देते हैं यक़ीन मानों मेरा
दिल ज़ख़्मी हो सिर्फ़ ख़ार से ज़रूरी तो नहीं
सही कह रहे हैं और आजकल तो फूल ही ज़ख्म देते हैं तो लोग काँटों के आगोश मे पनाह लेते हैं।
बेहद उम्दा, खान साहब !
बेहतरीन ग़ज़ल लिखी आपने सलीम साहब ! हमारी ओर से आपको मुबारकबाद !
हो क़िस्मत पर सबका इखित्यार ज़रूरी तो नहीं
ग़म में रो सके जो आँखें ज़ार-ज़ार ज़रूरी तो नहीं
हो क़िस्मत पर सबका इखित्यार ज़रूरी तो नहीं
ग़म में रो सके जो आँखें ज़ार-ज़ार ज़रूरी तो नहीं
सलीम भाई बहुत सुन्दर बात कही. हर चीज अपने मन मुताबिक तो होती ही नहीं है और अपने पर भी कभी कभी हक़ चीन जाता है.
bahut sunder ghazal...
रोने से क्या फायेदा मिलेगा अब 'ऐ सलीम'
ज़ीस्त से हों जाएँ सब बेज़ार ज़रूरी तो नहीं.
सही कहा आपने , सभी शब्द अनमोल शब्द
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