26 जनवरी पर एक ख़ास अपील
कुदरत क़ानून की पाबंद है लेकिन इंसान क़ानून की पाबंदी को अपने लिए लाज़िम नहीं मानता। इंसान जिस चीज़ के बारे में अच्छी तरह जानता है कि वे चीज़ें उसे नुक्सान देंगी। वह उन्हें तब भी इस्तेमाल करता है। गुटखा, तंबाकू और शराब जैसी चीज़ों की गिनती ऐसी ही चीज़ों में होती है। दहेज लेने देने और ब्याज लेने देने को भी इंसान नुक्सानदेह मानता है लेकिन इन जैसी घृणित परंपराओं में भी कोई कमी नहीं आ रही है बल्कि ये रोज़ ब रोज़ बढ़ती ही जा रही हैं। हम अपनी सेहत और अपने समाज के प्रति किसी उसूल को सामूहिक रूप से नहीं अपना पाए हैं। यही ग़ैर ज़िम्मेदारी हमारी क़ानून और प्रशासन व्यवस्था को लेकर है। आये दिन हड़ताल करना, रोड जाम करना, जुलूस निकालना, भड़काऊ भाषण देकर समाज की शांति भंग कर देना और मौक़े पर हालात का जायज़ा लेने गए प्रशासनिक अधिकारियों से दुव्र्यवहार करना ऐसे काम हैं जो मुल्क के क़ानून के खि़लाफ़ भी हैं और इनसे आम आदमी बेहद परेशान हो जाता है और कई बार इनमें बेकसूरों की जान तक चली जाती है।
इस देश में क़ानून को क़ायम करने की ज़िम्मेदारी केवल सरकारी अफ़सरों की ही नहीं है बल्कि आम आदमी की भी है, हरेक नागरिक की है। 26 जनवरी के मौक़े पर इस बार हमें यही सोचना है और खुद को हरेक ऐसे काम से दूर रखना है जो कि मुल्क के क़ानून के खि़लाफ़ हो। मुल्क के हालात बनाने के लिए दूसरों के सुधरने की उम्मीद करने के बजाय आपको खुद के सुधार पर ध्यान देना होगा। इसी तरह अगर हरेक आदमी महज़ केवल एक आदमी को ही, यानि कि खुद अपने आप को ही सुधार ले तो हमारे पूरे मुल्क का सुधार हो जाएगा।
गुस्से को मिटाइये मत बल्कि उस पर क़ाबू पाना सीखिये
समाज में सबके साथ रहना है तो दूसरों की ग़लतियों को नज़रअंदाज़ भी करना पड़ता है और कभी कभी उन्हें ढकना भी पड़ता है। हरेक परिवार अपने सभी सदस्यों को इसी रीति से जोड़ता है। क़स्बे और कॉलोनी के लोग भी इसी उसूल के तहत एक दूसरे से जुड़े रह पाते हैं। ब्लाग जगत भी एक परिवार है और यहां भी इसी उसूल को अपनाया जाना चाहिए।
इस कोशिश के बावजूद कभी कभी मुझे गुस्सा आ जाता है और तब मैं यह सोचता हूं कि आखि़र मुझे गुस्सा आया क्यों ?
हमारे ऋषियों ने जिन पांच महाविकारों को इंसान के लिए सबसे ज़्यादा घातक माना है उनमें से क्रोध भी एक है। हज़रत मुहम्मद साहब स. ने भी उस शख्स को पहलवान बताया है जो कि गुस्से पर क़ाबू पा ले।
इसके बावजूद हम देखते हैं कि कुछ हालात में ऋषियों को भी क्रोध आया है, खुद अंतिम ऋषि हज़रत मुहम्मद साहब स. को भी क्रोधित होते हुए देखा गया है।
हिंदू साहित्य में ऋषियों के चरित्र आज में वैसे शेष नहीं हैं जैसे कि वास्तव में वे पवित्र थे। कल्पना और अतिरंजना का पहलू भी उनमें पाया जाता है लेकिन हदीसों में जहां पैग़म्बर साहब स. के क्रोधित होने का ज़िक्र आया है तो वे तमाम ऐसी घटनाएं हैं जबकि किसी कमज़ोर पर ज़ुल्म किया गया और उसका हक़ अदा करने के बारे में मालिक के हुक्म को भुला दिया गया। उन्होंने अपने लिए कभी क्रोध नहीं किया, खुद पर जुल्म करने वाले दुश्मनों को हमेशा माफ़ किया। अपनी प्यारी बेटी की मौत के ज़िम्मेदारों को भी माफ़ कर दिया। अपने प्यारे चाचा हमज़ा के क़ातिल ‘वहशी‘ को भी माफ़ कर दिया और उनका कलेजा चबाने वाली ‘हिन्दा‘ को भी माफ़ कर और मक्का के उन सभी सरदारों को भी माफ़ कर दिया जिन्होंने उन्हें लगभग ढाई साल के लिए पूरे क़बीले के साथ ‘इब्ने अबी तालिब की घाटी‘ में क़ैद कर दिया था और मक्का के सभी व्यापारियों को उन्हें कपड़ा, भोजन और दवा बेचने पर भी पाबंदी लगा दी थी। ऐसे तमाम जुल्म सहकर भी उन्होंने उनके लिए अपने रब से दुआ की और उन्हें माफ़ कर दिया। इसका मक़सद साफ़ है कि अस्ल उद्देश्य अपना और अपने आस-पास के लोगों का सुधार है। अगर यह मक़सद माफ़ी से हासिल हो तो उन्हें माफ़ किया जाए और अगर उनके जुर्म के प्रति अपना गुस्सा ज़ाहिर करके सुधार की उम्मीद हो तो फिर गुस्सा किया जाए।
जो भी किया जाए उसका अंजाम देख लिया जाए, अपनी नीयत देख ली जाए, संभावित परिस्थितियों का आकलन और पूर्वानुमान कर लिया जाए।
वे आदर्श हैं। उनका अमल एक मिसाल है। उनके अमल को सामने रखकर हम अपने अमल को जांच-परख सकते हैं, उसे सुधार सकते हैं।
मुझे गुस्सा कम आता है लेकिन आता है।
आखि़र आदमी को गुस्सा आता क्यों है ?
हार्वर्ड डिसीज़न लैबोरेट्री की जेनिफ़र लर्नर और उनकी टीम ने गुस्से पर रिसर्च की है। उसके मुताबिक़ हमारे भीतर का गुस्सा कहीं हमें भरोसा दिलाता है कि हम अपने हालात बदल सकते हैं। अपने आने वाले कल को तय सकते हैं। जेनिफ़र का यक़ीन है कि अगर हम अपने गुस्से को सही रास्ता दिखा दें तो ज़िंदगी बदल सकते हैं।
हम अपने गुस्से को लेकर परेशान रहते हैं। अक्सर सोचते हैं कि काश हमें गुस्सा नहीं आता। लेकिन गुस्सा है कि क़ाबू में ही नहीं रहता। गुस्सा आना कोई अनहोनी नहीं है। हमें गुस्सा आता ही तब है, जब ज़िंदगी हमारे मुताबिक़ नहीं चल रही होती। कहीं कोई अधूरापन है, जो हमें भीतर से गुस्सैल बनाता है। दरअस्ल, इसी अधूरेपन को ठीक से समझने की ज़रूरत होती है। अगर हम इसे क़ायदे से समझ लें, तो बात बन जाती है।
जब हमें अधूरेपन का एहसास होता है, तो हम उसे भरने की कोशिश करते हैं। और यही भरने की कोशिश हमें कहीं से कहीं ले जाती है। हम पूरे होकर कहीं नहीं पहुंचते। हम अधूरे होते हैं, तभी कहीं पहुंचने की कसमसाहट होती है। यही कसमसाहट हमें भीतर से गुस्से में भर देती है। उस गुस्से में हम कुछ कर गुज़रने को तैयार हो जाते हैं। हम जमकर अपने पर काम करते हैं। उसे होमवर्क भी कह सकते हैं और धीरे धीरे हम अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते चले जाते हैं।
असल में यह गुस्सा एक टॉनिक का काम करता है। हमें भीतर से कुछ करने को झकझोरता है। अगर हमारा गुस्सा हमें कुछ करने को मजबूर करता है, तो वह तो अच्छा है न।
(हिन्दुस्तान, 6 जनवरी 2011, पृष्ठ 10)
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- हां तो फिर क्या सोचा एलबीए के पदाधिकारीगणों ने ?
इस संस्था के नियम हमारे सामने लाये जाएँ और बताया जाये कि डाक्टर अनवर जमाल साहब कि किस पोस्ट कि कौन सी लाइन ग़लत है और तब हम बताएँगे कि यहाँ कौन दूध का धुला है ?
Nice post.
हार्दिक शुभकामनायें.
जय हिन्द
@ डाक्टर अयाज़ ! आपका शुक्रिया सच का साथ देने के लिए ।
अपना विश्लेषण करें दूसरों का विश्लेषण करने वाले LBA पदाचारी
@ शिव शंकर जी ! आपका शुक्रिया शुभकामनाएं देने के लिए । आपने यहाँ टिप्पणी देकर मिथिलेश दुबे जी के बहिष्कार की अपील पर ठोकर मार कर एक प्रशंसनीय काम किया है । आपकी निष्पक्षता की रौशनी में LBA के पदाधिकारियों का तास्सुब बेनक़ाब हो गया है । ये लोग पक्षपात और नफ़रत में इतने अंधे हो चुके हैं कि ये 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्व पर भी एक मुसलमान की पोस्ट पर आने के लिए तैयार नहीं है जबकि पोस्ट भी ऐसी है जिसमें देश और समाज की भलाई के लिए सबसे कहा गया है कि 'आप अपने आप को क़ायदे-क़ानून का पाबंद बनाईये ।'
1. क्या इस पोस्ट का बहिष्कार करके ये लोग अपनी मूढ़ता और संकीर्णता का परिचय नहीं दे रहे है ?
2. जब ये लोग राष्ट्रीय पर्व पर भी निष्पक्ष होकर एकजुट नहीं हो सकते तो फिर देश के लिए कुछ और क्या कर पाएंगे ?
3. ये लोग लेख लिखकर केवल अपना नाम चमकाना चाहते हैं । अपना नाम चमकाने के लिए तो ये लंबे लंबे विश्लेषण का धारावाहिक लिख देंगे लेकिन राष्ट्रीय पर्व पर शुभकामना की एक छोटी सी टिप्पणी तक नहीं दे सकते आपकी तरह ।
आपको भी मेरी ओर से शुभकामनाएं ।
जिसकी भावनाएं शुद्ध होंगी।
उसका सदा शुभ ही होगा॥
देखिए - Comment's garden
--.- सब कुछ ठीक कहते हुए भी निम्न उद्ध्रत वाक्य की क्या आवश्यकता थी....यह प्रोवोकेटिव..होता है और प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है इससे बचना चाहिये....
...".हिंदू साहित्य में ऋषियों के चरित्र आज में वैसे शेष नहीं हैं जैसे कि वास्तव में वे पवित्र थे। कल्पना और अतिरंजना का पहलू भी उनमें पाया जाता है लेकिन हदीसों में जहां...."
मैंने आपके कई लेख पढ़े है अनवर भाई. आपने यह पोस्ट बहुत अच्छी लिखी है. समाज का जो हाल है वह निश्चय ही चिंताजनक है. २६ जन. को मुझे कई जगह जाना था. सबसे अधिक समय लगा अरविन्द सिंह जी के यहाँ जो हमारे मित्र और दैनिक जागरण के संवाद दाता है. उनका भतीजा धीरज सिंह [२५] जो एल एल बी कर रहा था. एक ट्रक कि चपेट में आकर असमय मौत के आगोश में समां गया, मैं जहा रहता हू वहा से उनका घर करीब ४० किलोमीटर है. सुबह गणतंत्र दिवस में व्यस्तता फिर वहा जाना. दिन बीत गया. { हो सकता है मैं झूठ बोल रहा हू लिहाजा अरविन्द जी का न. यह है सच पता लगा ले. 09451229415 } मैं किसी कि पोस्ट पर टिप्पणी नहीं कर पाया. और आप फिर हिन्दू मुसलमान कि बात करने लगे. भाई साहब आप एक अच्छे साहित्यकार है. आप अच्छी तरह जानते है कि कभी छोटी-छोटी बाते हमें उलझाकर रख देती हैं. आप का ही कहना है कि क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है. किसी भी बात को कहने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि उस बात का असर सामने वाले पर क्या पड़ेगा. हो सके तो उसकी जगह एक बार खुद को अपने आप को रखकर सोच ले. हमारी सबसे बड़ी कमी यही रहती है कि खुद को सही और सबको गलत मान लेते है. ऐसा नहीं है कि किसी परिवार में विवाद नहीं होता, सभी में विवाद होता है. किन्तु उस तरह का पारिवारिक विवाद यहाँ नहीं है, यहाँ तो विचारों का विवाद होता है और वह कभी न कभी होता ही रहेगा. इसके बावजूद भी हम सभी एक परिवार के सदस्य है. भाई साहब सारी बाते हमें ठीक लगती हैं किन्तु बार-बार हिन्दू मुस्लिम कि बात करके आप कितने लोंगो के दिल पर चोट पहुँच रहे है. यह कभी आप शायद सोचते ही नहीं.
मैं आपको बता दू मेरे अधिकतर मित्र मुस्लिम है. इद व बकरीद के दिन मैं इदगाहो पर जाकर उन्हें मुबारक बाद देता हू, आपकी तरह मैं भी ईद पर नए कपडे पहनता हू. मैं मुस्लिम त्योहारों कि कमान सँभालने वाली संस्था : इन्डियन इस्लामिक कमिटी का मेंबर भी हू. कहिये तो अपने कई मुस्लिम भाईयो का मो.नंबर दे दू. बात कर लीजिये, इसके बावजूद भी मैं कोई काम आंख- कान बंद करके नहीं करता, बाते किसी भी धर्म कि हो यदि समाज के हित में मानवता के हित में नहीं है तो उस पर सोचना होगा. आपसे छोटा होने के कारण मैं माफ़ी मांग चुका हू फिर मांगता हू किन्तु ऐसी बात कदापि न करे जिससे किसी कि भावनाए आहत होती हो.
पुनः .......
आपका यह लेख बहुत ही अच्छा है. आपसे गुजारिश है कि एक आप खुद पढ़े और सोचे कि एक अच्छी सोच रखने वाले व्यक्ति के मुह से ऐसी बाते शोभा देंगी. जो आप बार-बार कर रहे है.
‘डंके की चोट पर‘
@ मेरे अज़ीज़ भाई हरीश जी ! आज हरेक आदमी एक नक़ाब लगाकर समाज में घूम रहा है। उसके अवचेतन में बहुत कुछ दबा हुआ रहता है और उसका चेतन मन उसके मन की भीतरी पर्त से बहुत सी ऐसी चीज़ों को प्रकट होने से रोकता रहता है जिन्हें ज़ाहिर करने से उसे नुक्सान पहुंचने का डर होता है। समाज में दूसरे समुदायों के साथ मुसलमान भी रहते हैं। आप उनसे मिलते हैं, यह आपकी मजबूरी है। इसके बावजूद सच यह है कि आपके अवचेतन मन की गहराईयों में यह बैठा हुआ है कि अधिकतर मुसलमान बुरे हैं। आपने यह बात ‘डंके की चोट पर‘ कही है। यह बात इतनी ज़्यादा ग़लत और असामाजिक है कि आपके ऐसा कहते ही ‘हमारी वाणी‘ ने क़ानूनी डर से तुरंत अपने बोर्ड से आपकी पोस्ट को ही नहीं हटाया बल्कि आपके ब्लाग का पंजीकरण भी रद्द कर दिया। आप कहने को तो कह गए लेकिन जैसे ही आपका क्रोध शांत हुआ और आपका चेतन मन पुनः सक्रिय हुआ तो उसने आपको बताया कि आप ग़लती कर गए हैं। ग़लती का अहसास होते ही आपने तुरंत माफ़ी भी मांग ली, यह आपकी अच्छाई है, इसीलिए मैं आपको एक अच्छा आदमी कहता हूं।
http://charchashalimanch.blogspot.com/2011/01/purification-of-human-heart.html
कुरआन पढने का सही तरीक़ा
आप कहते हैं कि आपने हिंदी का कुरआन भी पढ़ा है।
अब मैं आपको बताता हूं कि आपने कुरआन कैसे पढ़ा है ?
आप एक मीडियाकर्मी हैं। आए दिन आपके सामने कुरआन की आलोचना से संबंधित बातें गुज़रती रहती हैं। ख़ास तौर से आपके हाथ वह पर्चा लगा जिसमें इंसानियत के दुश्मनों ने कुरआन के बारे में यह अफ़वाह फैला रखी है कि कुरआन हिंदुओं को काफ़िर घोषित करता है, मुसलमानों को हिंदुओं से दोस्ती से रोकता है और कहता है उन्हें जहां पाओ वहीं क़त्ल कर डालो।
आपको यक़ीन नहीं आया कि कोई भी धर्मग्रंथ ऐसी घिनौनी तालीम कैसे दे सकता है ?
आपने कुरआन हासिल किया।
यह तो आपने अच्छा किया लेकिन आपने उसके साथ सबसे ग़लत यह किया कि आपको उसे सिलसिलेवार पूरी तरह पढ़ना चाहिए था और उसके साथ आपको पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब की जीवनी भी पढ़नी चाहिए थी कि उन्होंने कुरआन के हुक्म का पालन खुद कैसे किया और अपने अनुयायियों से अपने जीवन में कैसे कराया ?
आपने ऐसा नहीं किया बल्कि आपने केवल उन पर्चों में छपे हुए आधे-अधूरे उद्धरणों को कुरआन से मिलाया और कुरआन को उठाकर अलमारी में रख दिया। आपने उसमें जगह-जगह निशान भी लगा दिये। आप समझते हैं कि आपने कुरआन पढ़ लिया लेकिन आप खुद बताईये कि क्या वाक़ई इसे कुरआन पढ़ना कहा जा सकता है ?
यही बेढंगापन आदमी को कुरआन के बारे में बदगुमान करता है।
जो सवाल आज आपके मन की गहराईयों में दफ़्न हैं, उनमें से शायद ही कोई बाक़ी बचेगा अगर आप कुरआन को क्रमबद्ध रूप से थोड़ा-थोड़ा शुरू से आखि़र तक पढ़ें और उसे पैग़म्बर साहब के जीवन की घटनाओं से जोड़कर समझने की कोशिश करें। कुरआन का मात्र अनुवाद ही काफ़ी नहीं है बल्कि आपको कुरआन की आयतों का संदर्भ भी जानना होगा कि कौन सी आयतें किन हालात में अवतरित हुईं और उनका पालन कब और कैसे किया गया ?
मैं अपने साथ भेदभाव की शिकायत करता हूं कि मेरे साथ भेदभाव किया जाता है। आप बताईये कि मेरी पोस्ट एलबीए के अध्यक्ष ने डिलीट कर दी, उन्होंने ऐसा क्यों किया ?
उन्होंने मेरी पोस्ट डिलीट कर दी तो क्या आपने उनकी इस ग़लत हरकत पर कोई ऐतराज़ जताया ?
आप मुझे सवाल दीजिए मैं आपको जवाब दूंगा।
अध्यक्ष जी ने मेरी ऐसी पोस्ट क्यों डिलीट कर दी जिसमें मैंने किसी भी हिंदू भाई को या उनके किसी महापुरूष को या उनकी किसी भी परंपरा को बुरा नहीं कहा, उनके किसी धर्मग्रंथ को बुरा नहीं कहा ?
जबकि आपकी पोस्ट को उन्होंने डिलीट नहीं किया जिसमें आपने अधिकतर मुसलमानों को बुरा बताया, जिसमें आपने कुरआन पर ऐतराज़ जताया और उसकी भाषा इतनी उत्तेजक है कि उसे हमारी वाणी के मार्गदर्शक मंडल ने अपने बोर्ड के डिस्पले से हटा दिया।
आपकी जिस पोस्ट को हमारी वाणी के मार्गदर्शक मंडल ने भी आपत्तिजनक पाया जिसमें कि पांच में से चार भाई हिंदू हैं, उसे आपके अध्यक्ष जी ने क्यों नहीं हटाया ?
और
मेरी अनापत्तिजनक पोस्ट को क्यों हटा दिया ?
मैंने उसे दोबारा फिर एलबीए पर डाला, अगर वह आपत्तिजनक थी तो उसे दोबारा क्यों नहीं हटाया गया ?
मेरे साथ भेदभाव होता रहा और आपने एक बार भी अपनी आपत्ति ज़ाहिर नहीं की। यह है आपका भेदभाव। आपने ही नहीं बल्कि कार्यकारिणी के किसी भी हिंदू भाई ने इस जुल्म के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई, क्यों ?
जबकि श्री पवन कुमार मिश्रा जी ने इस डिक्टेटरशिप के प्रति अपना रोष प्रकट किया। क्योंकि उन्होंने इस मामले को न्याय की दृष्टि से देखा। उनका नाम आज तक मेरे कट्टर विरोधियों में ही लिया जाता है। इसके बावजूद उन्होंने वह बात कही जो आप नहीं कह पाए, क्यों ?
जो अनवर जमाल के साथ किया जा रहा है वह हरीश सिंह के साथ नहीं किया जाता , दोनों में ऐसा क्या फ़र्क़ है ?
सिवाय इसके कि अनवर जमाल एक मुसलमान है और हरीश सिंह एक हिन्दू.
और अगर मैं इस बात को बार बार आपके सामने लाता हूँ तो आप कहते हैं कि मेरे ऐसा करने से आपका दिल दुखी होता है .
सच सुनने से आपका दिल दुखी क्यों होता है?
आप अपने भेदभाव को त्याग दीजिये फिर मैं आपसे आपकी शिकायत नहीं करूँगा और तब आपका दिल भी दुखी नहीं होगा .
अपने दिल को दुःख से बचाना खुद आपके हाथ में है क्योंकि हमारे ऋषियों ने बताया है कि अपने दुखों के पीछे कारण है खुद उसी मनुष्य के पाप जो कि दुखी है .
आप कहते हैं कि आप दुखी हैं तो आप अपने कर्मों का विश्लेषण कीजिये और पापमार्ग छोड़कर प्रायश्चित कीजिये.
आपका दुःख निर्मूल हो जायेगा , मेरी गारंटी है .
आप व्यस्त थे, मैं मान लेता हूं लेकिन हमारे अध्यक्ष जी तो यहां एलबीए की कई पोस्ट्स पर गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं देते घूमते रहे लेकिन मुझे शुभकामनाएं देने नहीं आए, क्यों ?
उनके इस रवैये को दुराग्रहपूर्ण और पक्षपात वाला क्यों न माना जाए ?
जो आदमी सबको समान नज़र से न देख सके वह अध्यक्ष बनने के लायक़ कैसे हो सकता है ?
दूसरों से अपील कर रहे हैं कि कोई काम ऐसा न किया जाए कि दूसरों की भावनाएं आहत हों और खुद हमारी भावनाएं वे आहत कर रहे हैं, क्यों ?
अध्यक्ष वह होता है जिसके पास न्यायदृष्टि हो, सबके लिए प्रेम हो और जो बात वह दूसरों से कहे उसे खुद करके भी दिखाए। ये तीनों ही बातें मुझे तो श्री रवीन्द्र प्रभात जी में नज़र आई नहीं।
ब्लागिंग एक ऐसा मंच है कि यहां आपको हरेक सवाल का सामना करना होगा। या तो सवालों का संतोषजनक उत्तर देना होगा।
जो सवालों से बचना चाहे, वह ब्लागिंग में न आए।
मैं सवालों से बचना नहीं चाहता बल्कि मैं चाहता हूं कि जो सवाल आज तक आप लोगों के मन में दबे पड़े हैं, उन्हें आप मेरे सामने लाईये। इंशा अल्लाह मैं उनका जवाब दूंगा।
आपके हरेक सवाल को मैं अकेला फ़ेस करूंगा और आप सबको जवाब भी दूंगा लेकिन आप सब मिलकर भी मेरे सवालों को न तो फ़ेस कर सकते हैं और न ही उनके जवाब आप दे पाएंगे।
या तो आप एलबीए पर सवाल जवाब चलने दीजिए या फिर उन्हें बंद करना चाहें तो जो भी नियम बनाएं उसे सब पर लागू कीजिए।
मेरे ब्लाग चर्चाशाली मंच पर आईये, यहां आप पर कोई पाबंदी नहीं है। आईये आपके अवचेतन में दबी पड़ी हरेक ग्रंथी से मैं आपको मुक्ति दूंगा।
आप मुझे सवाल दीजिए मैं आपको जवाब दूंगा।
क्या अच्छा सिला दिया हमने अपने साथ भलाई करने वालों को ?
@ Dr. Shyam Gupta ji ! एक हदीस के मुताबिक़ इनकी कुल संख्या लगभग एक लाख चैबीस हज़ार है। अगर दुनिया में आज माता-पिता, भाई-बहन का रिश्ता पवित्र माना जाता है तो यह इन्हीं सत्पुरूषों की पवित्र शिक्षा का नतीजा है वर्ना दुनिया के सारे वैज्ञानिक और दार्शनिक मिलकर भी रिश्तों की पवित्रता क़ायम नहीं कर सकते और न ही इसके लिए कोई वैज्ञानिक कारण बता सकते हैं।
पवित्रता विज्ञान की समझ से परे का विषय है। रिश्तों की पवित्रता ही एक इंसान को जानवर से अलग करती है। जानवर के लेवल से ऊपर उठाने वाले, मानव जाति को उसकी पवित्रता और उसकी असल मंज़िल का ज्ञान कराने वाले यही सत्पुरूष थे जो इस धरती के हरेक हिस्से में अलग-अलग दौर में आए। उनकी भाषाएं तो बेशक जुदा थीं लेकिन उन सबका संदेश एक ही था, उन सबका आचरण पवित्र था। सभी ने अपने फ़र्ज़ को अदा करने के लिए, हमें इंसान बनाने के लिए भीषण अत्याचार सहे, अपना अपमान सहा और अपनी जानें भी दीं। उन्होंने तो हमें सब कुछ दिया लेकिन हमने उन्हें क्या दिया ?
हमने उन्हें बदनामी दी, हमने उनके नामों का मज़ाक़ उड़ाया, हमने उनकी शिक्षा को भुलाया, उनके आदर्श इतिहास को भुलाया और अपने मन की बेहूदा कल्पनाओं को उनकी कथा कहकर समाज में फैलाया। उनकी कुर्बानियों का उन्हें हमने यह सिला दिया।
क्या अच्छा सिला दिया हमने अपने साथ भलाई करने वालों को ?
इन सत्पुरूषों को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग उपाधियों से पुकारा जाता है। अरबी-हिब्रू में इन्हें नबी और रसूल कहा जाता है, फ़ारसी में इन्हें पैग़म्बर कहा जाता है और संस्कृत में इन्हें ‘ऋषि‘ कहा गया है।
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/do-you-know-truth-about-great-rishies.html
ऋषि का अर्थ क्या है ?
‘साक्षात्कृंतधर्माण ऋषयो बभूवुः‘। (नि. 1 , 20)
अर्थ- धर्म को साक्षात करने वाले मनुष्य ऋषि कहलाते हैं।
जो धर्म को साक्षात करने वाले मनुष्य हैं, वे कभी अधर्म नहीं कर सकते यह स्वयंसिद्ध है। इसके बावजूद हिन्दू साहित्य में ऋषियों के बारे में ऐसी कहानियां मिलती हैं जो कि अधर्म के सिवा कुछ भी नहीं हैं। रामायण में भी ऐसी कहानियों की भरमार है। संकेत मात्र के लिए एक श्लोक का अनुवाद पेश है-
‘अयोध्या कांड (सर्ग 91, 52) में लिखा है कि भरत के साथ आए अयोध्यावासियों का सत्कार करते हुए ऋषि भरद्वाज ने शराबियों के लिए शराब और मांस खाने वालों के लिए अच्छे अच्छे मांस जुटाए।‘
(क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म ?, पृष्ठ 63)
क्या यह कहानी एक ऋषि के आचरण से मेल खाती है ?
इन कहानी लिखने वालों ने सिर्फ़ इतना ही नहीं किया कि ऋषियों के बारे में झूठी कहानियां लिखकर लोगों को उनसे नफ़रत दिलाई बल्कि उनके आचरण को इतना कलंकित दिखाया कि लोग उन्हें आदर्श मानना तो दूर उनके नाम से भी नफ़रत करने लगें। ऋषि भरद्वाज के साथ भी ही जुल्म किया गया। उनके पैदा होने के पीछे एक ऐसी गंदी कहानी जोड़ दी गई जो कि कभी सच नहीं हो सकती। देखिए-
श्रीमद्भागवतपुराण में आता है कि अपने बड़े भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ बृहस्पति ने बलात्कारपूर्वक संभोग किया और उसके वीर्य से भरद्वाज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ.
अंतर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनायां मैथुनाय बृहस्पतिः,
प्रवृत्ते वारितो गर्भ शप्त्वा वीर्यमवासृजत .
तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशंकिताम्,
नामनिर्वचनं तस्य श्लोकमेकं सुरा जगुः .
मूढ़े भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पतेः
यातौ तदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् .
चोद्यामाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्, व्यसृजत् .
-श्रीमद्भागवतपुराण, 9,20,36-39
अर्थात, बृहस्पति गर्भवती भावज से संभोग में प्रवृत्त हुआ. उसे रोका. वह गर्भ को शाप दे कर संभोगरत हुआ और उसका वीर्य स्खलित हुआ. उस वीर्य को भावज फेंकना चाहती थी ताकि उस का पति उससे नाराज हो कर उसे त्याग न दे. तब देवताओं ने कहा- हे मूर्ख औरत, इस द्वाज (वीर्य) को भर (धारण किए रह). उसने उसे धारण किया और जिस पुत्र को उसने जन्म दिया वह ‘भरद्वाज‘ कहलाया.
क्या यह कहानी सच हो सकती है ?
नहीं न ?
मैं भी ऐसी बातों को सच नहीं मानता। दरअस्ल ये कहानियां धर्म की गद्दी पर विराजमान हिन्दू कवियों ने अपने मन खुद ही लिख ली हैं ताकि वे किसी की भी औरत और दौलत से मनमानी कर सकें और जब कोई टोके तो ऋषियों की कहानी सुनाकर उन्हें संतुष्ट कर सकें कि वे पाप नहीं कर रहे हैं बल्कि उनका कल्याण कर रहे हैं।
आज अनवर जमाल भरद्वाज ऋषि के बारे में गालियों से भी गंदी कहानी को धो-मांझ रहा है जो खुद को उनकी औलाद बताते हैं वे भारद्वाज गोत्र वाले मज़े से कोट पैंट पहनकर भागवत की कथाएं सुन रहे हैं। जहां उनके बाप पर गंदे आरोप लगाए जाते हैं, वहां वे मज़े से जाते हैं और जो इस्लाम उनके बाप भरद्वाज को ही नहीं बल्कि हरेक ऋषि को पवित्र घोषित करता है, उससे उन्हें घिन आती है। जो सत्य को अपने अहंकार के कारण तुच्छ जानकर उसका तिरस्कार करता है, वह जहां भी जाएगा, ज़िल्लत ही पाएगा। यही उनका दंड है, चाहे उन्हें उसका पता चले या न चले।
आज हिन्दू साहित्य में हरेक ऋषि के चरित्र को भरद्वाज जी की तरह ही दूषित दिखाया जाता है और उनके वंशज मज़े से उस साहित्य का प्रचार कर रहे हैं।
है न ताज्जुब की बात ?
भारत का उद्धार होगा ऋषियों के अनुकरण से
जब धर्म को भुला दिया जाए और उसे धंधा बना लिया जाए तब इंसान की ग़ैरत ऐसे ही मर जाती है।
ऋषियों के सच्चे चरित्र का लोप होने के कारण ही आज भारत दुर्दशा का शिकार है और जब तक ऋषियों का सच्चा चरित्र लोगों के सामने नहीं आएगा और लोग उनका अनुकरण नहीं करेंगे तब तक भारत का उद्धार हरगिज़ हरगिज़ होने वाला नहीं है। यह मेरा दृढ़ मत है।
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यह संवाद डा. श्याम गुप्ता जी के लिए क्रिएट किया गया है। उन्होंने मुझसे पूछा था कि -
‘...सब कुछ ठीक कहते हुए भी निम्न उद्धृत वाक्य की क्या आवश्यकता थी। यह प्रोवोकेटिव ... होता है और प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। इससे बचना चाहिये।
‘‘...हिंदू साहित्य में ऋषियों के चरित्र आज वैसे शेष नहीं हैं जैसे कि वास्तव में वे पवित्र थे। कल्पना और अतिरंजना का पहलू भी उनमें पाया जाता है।‘‘
http://forum.thiazi.net/showthread.php?p=1703163