आज चन्द्रशेखर आजाद के ८० वें शहीद दिवस पर हम सभी की भाव भीनी श्रद्धांजलि।
आज़ाद देश की आज़ादी के उन नामचीन शहीदों में से हैं जिन्होंने अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी और तब भी उनके हाथ नहीं आये। हमें तो आज़ादी आँखें खोलते ही मिल गयी तो हमने उस गुलामी के दर्द और यंत्रणा को जाना ही कहाँ है? जब इतिहास में पढ़ा या इन वीरों की कहानी में पढ़ा तो लगा कि क्या आज़ादी का जूनून इतनी कम उम्र में ऐसा जज्बा भर देता है कि वे आज़ादी कि अलख जगा कर पूरे देश में क्रांति की आग लगा कर चले गए और उनके पीछे एक हुजूम चला जिसने क्रांति को ही अपना रास्ता मान लिया था। युवाओं की रगों में दौड़ता हुआ गर्म खून कुछ कर गुज़रने के लिए ही बेताब रहता है। वे इतनी कम उम्र में ही चले गए और अपने नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित कर गए।
चंद्रशेखर तिवारी का जन्म मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भवर गाँव में २३ जुलाई १९०६ को हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई किन्तु आगे कि शिक्षा के लिए परिवार की परंपरा के अनुसार संस्कृत पाठशाला वाराणसी आ गए और यही पर उनको क्रांति की हवा लगी। किशोरावस्था से ही वे क्रांतिकारी बन चुके थे। सबसे पहले १९१९ में हुए जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने उनको आंदोलित किया और उन्होंने गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में शामिल होने का निश्चय किया। वे इसी के तहत क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त पाए गए और उनको पुलिस द्वारा पकड़ा गया। जब मजिस्ट्रेट ने उनसे उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम "आज़ाद " ही बताया। उनके पास हर प्रश्न का एक ही उत्तर था। उनको इसके लिए १५ कोड़ों की सजा सुनाई गयी। हर कोड़े के मार पर वे "भारत माता की जय" बोल रहे थे। उस दिन के बाद से "आज़ाद" उनके नाम के साथ जुड़ गया और उन्होंने शपथ ली कि वे कभी अंग्रेजी पुलिस के हाथ नहीं आयेंगे । गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन वापस लेने के बाद आज़ाद अलग होकर सक्रिय राजनीति से जुड़ गए और उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलाकर "हिंदुस्तान सोशिलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन " का गठन किया , जिसका उद्देश्य भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का सपना और स्वतन्त्र भारत में समाजवादी मूल्यों पर शासन को लागू करने का था। इसके लिए उनके साथ सरदार भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, सुखदेव आदि क्रांतिकारी थे।
आज़ाद १९२६ में काकोरी ट्रेन डकैती , वाइसराय की ट्रेन को उड़ाने और लाहौर में १९२८ में लाला लाजपत राय की मौत के जिम्मेदार सांडर्स को गोली से उड़ाने के लिए वांछित थे।
अंग्रेजी पुलिस उनको जिन्दा या मुर्दा किसी भी हालत में पकड़ना चाहती थी। वे अंग्रेजी पुलिस के लिए आतंक का पर्याय बन चुके थे और उनकी लिस्ट में सबसे ऊपर उनका नाम था। २७ फरवरी १९३१ को आज़ाद अपने दो साथियों से मिलने के लिए इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पहुंचे थे और उनके ही एक साथी वीरभद्र तिवारी ने मुखबरी की और अंग्रेजी पुलिस को उनके बारे में जानकारी दे दी। पार्क को पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया और आज़ाद को आत्मसमर्पण के लिए चेतावनी भी दी लेकिन वे आज़ाद ख्याल के आज़ाद मना कब इन शर्तों को मनाने वाले थे । उन्होंने अकेले ही मुकाबला किया और तीन पुलिस वालों को मार गिराया लेकिन एक पिस्तौल से अकेले कहाँ तकपूरी फ़ोर्स का मुकाबला कर सकते थे और आख़िर में जब उन्होंने अपने को चारों तरफ से घिरा पाया तो एक गोली खुदको मार कर खुद को ख़त्म कर लिया। और अपनी शपथ कि "आज़ाद ही रहूँगा और आज़ाद ही मारूंगा " को पूरी तरहसे निभा कर दिखा दिया।
आज अस्सी साल बाद भी जब उस वीर की तस्वीरों या प्रतिमाओं को देखते हैं तो लगता है कि भारत माँको ऐसे ही सपूतों की जरूरत है।
आपने याद दिलाकर शहीद को नमन करने का अवसर दिया ।..आभार।
रेख जी , चन्द्रशेखर आजाद को याद करते हुए आपने सभी को उनकी क़ुरबानी को याद दिलाया इसके लिए आपका आभार .
आज भी हमारे देश को वैसे वीर सपूत की आवश्यकता है जिन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजो के नाक में दम कर दिया था ऐसे वीर सपूत को हमारे तरफ से भी शहीद दिवस पर भाव भीनी श्रद्धांजलि।
आपने याद दिलाकर शहीद को नमन करने का अवसर दिया ।..आभार।
सही कह रही हैं आज एक बार फिर ऐसे ही सपूतो की जरूरत है।
देश के महान वीर को शत शत नमन हैं्।
अच्छा किया जो याद दिलाया...अब शहीदों की मज़ारों पर नहीं लगते कहीं मेले...
सच है .