वे समझते ही नहीं मेरी मजबूरी
इसीलिए बच्चों पे गुस्सा नहीं आता
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा है सज़ा देने से क्या हासिल
ये ज़िद करते हैं बच्चे जब गुब्बारा देख लेते हैं
बच्चों की फ़ीस उनकी किताबें क़लम दवात
मेरी ग़रीब आंखों में स्कूल चुभ गया
ऐ खुदा तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे
मेरे बच्चों को भी यूनिवर्सिटी अच्छी लगी
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते
मैं हूं मेरा बच्चा है खिलौनों की दुकां है
अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है
भूख से बेहाल बच्चे तो नहीं रोए मगर
घर का चूल्हा मुफ़लिसी की चुग़लियां खाने लगा
वो खुश है कि बाज़ार में गाली मुझे दे दी
मैं खुश हूं कि एहसान की क़ीमत निकल आई
वो अपने कांधों पे कुन्बे का बोझ रखता है
इसीलिए तो क़दम सोचकर उठाता है
ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन
किसी बच्चे के रोने की सदाएं रोज़ आती हैं
इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे
इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा
हमारे साथ चलकर देख लें ये भी चमन वाले
यहां अब कोयला चुनते हैं फूलों से बदन वाले
कुछ खिलौने कभी आंगन में दिखाई देते
काश ! हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते
जो लोग कम हों तो कांधा ज़रूर दे देना
सरहाने आके मगर भाई-भाई मत कहना
कम से कम बच्चों के होंठों की हंसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊं
मुख्तलिफ़ अशआर
शायर - मुनव्वर राना
इसीलिए बच्चों पे गुस्सा नहीं आता
ये फ़ितरत का तक़ाज़ा है सज़ा देने से क्या हासिल
ये ज़िद करते हैं बच्चे जब गुब्बारा देख लेते हैं
बच्चों की फ़ीस उनकी किताबें क़लम दवात
मेरी ग़रीब आंखों में स्कूल चुभ गया
ऐ खुदा तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे
मेरे बच्चों को भी यूनिवर्सिटी अच्छी लगी
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते
मैं हूं मेरा बच्चा है खिलौनों की दुकां है
अब कोई मेरे पास बहाना भी नहीं है
भूख से बेहाल बच्चे तो नहीं रोए मगर
घर का चूल्हा मुफ़लिसी की चुग़लियां खाने लगा
वो खुश है कि बाज़ार में गाली मुझे दे दी
मैं खुश हूं कि एहसान की क़ीमत निकल आई
वो अपने कांधों पे कुन्बे का बोझ रखता है
इसीलिए तो क़दम सोचकर उठाता है
ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन
किसी बच्चे के रोने की सदाएं रोज़ आती हैं
इन्हें फ़िरक़ापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मीं से चूमकर तितली के टूटे पर उठाते हैं
मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे
इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा
हमारे साथ चलकर देख लें ये भी चमन वाले
यहां अब कोयला चुनते हैं फूलों से बदन वाले
कुछ खिलौने कभी आंगन में दिखाई देते
काश ! हम भी किसी बच्चे को मिठाई देते
जो लोग कम हों तो कांधा ज़रूर दे देना
सरहाने आके मगर भाई-भाई मत कहना
कम से कम बच्चों के होंठों की हंसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊं
मुख्तलिफ़ अशआर
शायर - मुनव्वर राना
इसीलिए तो मुनव्वर राणा जी मेरे पसंदीदा शायरों में से एक है.. वे जुग जुग जियें.
bahut khub
yaqeenan bahoot khoob !
जमीनी हकीकत के करीब रहते हुये लिखते हैं मुनब्बर राणा जी। धन्यवाद उन्हें पढवाने के लिये।
@ राजीव जी ! मैं भी उनके लिए लंबी उम्र की दुआ करता हूँ । कृप्या आप टिप्पणी जरूर दिया करें । धन्यवाद ।
@ भाई गिरी जी आज मैं आपका नाम फोरम के पेज पर देखना चाहता हूँ ।
@ सलीम साहब ! UP के ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे बड़े हिंदी ब्लाग्स में से एक है अपना LBA , इस मंच पर आपने मुझे यह कलाम पेश करने का मौका दिया मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ ।
@ निर्मला जी ! आपकी मौजूदगी ही यह महसूस कराने के लिए काफी है कि पोस्ट अच्छी है । हौसला बढ़ाने के लिए आपका शुक्रिया !
bahut khub