| निर्मला कपिला जी |
परसों आलोक मोहन जी ने बाबा संस्कृति में आ गए दोषों पर प्रकाश डाला था, जिसमें उन्होंने कहा कि एक गवैया बाबा, या मृदु भाषी एक्टर मानिंद व्यक्ति किस तरह से भगवान् बन बैठता है. बाबाओं के झांसे में औरतें ही पहले आतीं हैं और अलोक जी के पोस्ट को जब मैंने लगाया तो एक सम्मानित महिला ब्लॉगर ने स्वयं यह टिपण्णी की तो मन को संतोष मिला कि सभी महिलाएं ऐसी नहीं जो धार्मिक अंधविश्वास के चपेटे में हैं. धार्मिक अन्धविश्वाश हर जगह है इसका किसी ख़ास ज़ात या धर्म से लेना देना नहीं हैं परन्तु भारत में जिस तरह कुकुरमुत्ते की तरह आये दिन भगवान् बनाने की जो होड़ लग रही है उसे संभालना बहुत ज़रूरी है वरना हमारे हाँथ कुछ बचेगा नहीं.
हमें संतों और पाखंडियों के बीच का अन्तर जानना अति आवश्यक है:::
यह तर्क थोडा ठोस लगता है लेकिन इससे भी बेहतर है कि हम क्यूँ संतों वन्तों के चक्कर में पड़ें, स्वयं ही अध्ययन करें बस जानकारी बढ़ाने के लिए अगर इनके पास जाएँ तो बेहतर है मगर वे तो अपने हांथों बनाई बातें ही कहते हैं...!

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