लघु कथा ....
- रथ चढि सिया सहित---
अन्तर्राष्ट्रीय अर्बुद संघ ( केन्सर असोसिएशन ) के एशिया अध्याय (एशिया-चेप्टर ) की त्रिवेन्द्रम बैठकमें मुझे ग्रास -नली के अर्बुद ( केन्सर ईसोफ़ेगस ) के तात्कालिक उपचार पर अपना पेपर ( वैज्ञानिक शोध आलेख ) प्रस्तुत करना था ।साथी चिकित्सक डा शर्मा को अगन्याशय( पेन्क्रियाज़ ) के केन्सर पर । विमान में बैठते ही डा शर्मा ने मन ही मन कुछ बुदबुदाया तो मैने पूछ लिया,’ क्या जप रहे हैं डा शर्मा?’ वे बोले- राम चरित मानस की चौपाई -- "रथ चढि सिया सहित दोऊ भाई ........" ताकि यात्रा निर्विघ्न रहे ।
मैंने आश्चर्यचकित होते हुए हैरानी भरे स्वर में पूछा--हैं, आप इस मुकाम पर आकर भी , विज्ञान के इस युग में भी एसी अन्धविश्वास की बातें कैसे सोच सकते हैं?
डा शर्मा हंसते हुए बोले-’ डा अग्रवाल, मैं तो जब गांव में साइकल से शहर स्कूल जाता था तब भी , फ़िर बस यात्रा, रेल यात्रा से लेकर अब विमान यात्रा तक सदैव ही यह उपाय अपनाता रहा हूं, और यात्रा व अन्य सारे कार्य सफ़लता पूर्वक पूरे होते रहे हैं । यह विश्वास की बात है।
मुझे हैरान देखकर वे पुनः कहने लगे, ’हमारा परिवार आम भारतीय परिवार की भांति धार्मिक परिवार रहा है। प्रत्येक वर्ष नव रात्रों में सस्वर रामचरित मानस का पाठ होता था जो उन्हीं नौ दिनों में पूरा करना होता था। हम सब खुशी खुशी भाग लेते थे। मानस में शेष तो जो बहुत कुछ है सभी जानते हैं परन्तु बचपन से ही मुझे कुछ चौपाइयां अपने काम की, मतलब की लगीं जो याद करलीं, जो इस तरह हैं--
’ जो विदेश चाहो कुशिलाई, तो यह सुमिरि चलहु चौपाई ।
रथ चढि सिया सहित दोऊ भाई, चले वनहि अवधहि सिर नाई ।’
’विश्व भरण पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।’
’जेहि के सुमिरन ते रिपु नासा, नाम शत्रुहन वेद प्रकासा ।’
’जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ।’
मैंने तो बचपन से ही इन चौपाइयों के प्रभाव को मन में धारण करके अपनाया है , माना है व अनुभव किया है , और आज भी यात्रा पर जाते समय मैं यह चौपाई अवश्य गुनगुनाता हूं ।
क्या ये अन्धविश्वास नहीं है? मैंने पूछा?
यह विश्वास है, वे बोले, अन्धविश्वास तो बचपन में था, जब माता-पिता, बडे लोगों के कथन व आस्था पर विश्वास रखकर आस्था पर विश्वास किया; क्योंकि तब ज्ञानचक्षु कब थे। प्रारम्भ में तो दूसरे के चक्षुओं से ही देखा जाता है। आज यह आस्था पर विश्वास है क्योंकि मैंने ज्ञान व अनुभव प्राप्ति के बाद , विवेचना-व्याख्या के उपरान्त अपनाया है । यात्रा पर जाते समय या परीक्षा, इन्टर्व्यू आदि के समय मैंने सदैव इन चौपाइयों को गुनगुनाने का प्रभाव अनुभव किया है व सफ़लताएं प्राप्त की हैं।
अच्छा तो ये स्वार्थ के लिये भगवान व आस्था का यूज़ ( प्रयोग) या मिसयूज़ है। मैंने हंसते हुए कहा, तो वे कहने लगे , ’हां, वस्तुतः तो हम स्वार्थ के लिये ही यह सब करते हैं। ’स्व’ के अर्थ में। स्व ही तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, आस्था, विश्वास है । जब हम ईश्वर को भज रहे होते हैं तो अपने स्व , आत्म, आत्मा, सेल्फ़ को ही दृढ़ कर रहे होते हैं। अपने आप पर विश्वास कररहे होते हैं। आत्मविश्वास को सुदृढ़- सुबल कर रहे होते हैं। यह मनो-विज्ञान है । विज्ञान इसे मनो-विज्ञान कहता है। यह दर्शन भी है ; जो दर्शन, धर्म, भक्ति है, मनो-विज्ञान भी है, विश्वास है तो अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ रूप में आस्था भी । और आस्था व ईश्वर कृपा की सोच से कर्तापन का मिथ्यादंभ व अहं भी नहीं रहता ।
परन्तु मानलें कि एक ही स्थान के लिये साक्षात्कार आदि के लिये यदि सभी अभ्यर्थी यही चौपाई पढकर जायें तो.......।, मैंने हंसते हुए तर्क किया ? वे भी हंसने लगे । बोले,’ सफ़ल तो बही होगा जो अपना सर्वश्रेष्ट प्रदर्शित कर पायेगा ।’ शेष परीक्षार्थी यदि वास्तव में आस्थावान हैं तो उन्हें यह सोचना चाहिये कि सफ़ल अभ्यर्थी की आस्था, कर्म, अनुभव व ज्ञान हमसे अधिक था। यह गुणात्मक सोच है ।क्योंकि आस्था के साथ-साथ शास्त्रों में यह भी तो कथन हैं---कि ,
’उद्योगिनी पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी , देवेन देयमिति कापुरुषः वदन्ति।’
’कर्मण्ये वाधिकारास्ते मा फ़लेषु कदाचनः।’
’ न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंते मुखे मृगाः ।’ ---आदि...
कम से कम इस आस्था-विश्वास का यह परिणाम तो होगा कि इसी बहाने लोग अपना सर्वश्रेष्ठ जान पायेंगे, प्रदर्शित कर पायेंगे, यहां नहीं तो अन्य स्थान पर सफ़ल होंगे। यहां सामाजिकता प्रवेश करती है। जब सभी आस्थावान होंगे, अपना सार्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेंगे, तो समाज व राष्ट्र-विश्व स्वयं ही समुन्नति की ओर प्रयाण करेगा । यही तो विज्ञान का भी, धर्म का भी, दर्शन का भी, समाज-विज्ञान का भी एवं मानव मात्र का भी उद्देश्य है। ’
’क्या हुआ भई?’ मुझे चुप देखकर डा शर्मा बोले, पुनः स्वयं ही हंसकर कहने लगे,’ अब तुम्हारी स्थिति, " हर्ष विषाद न कछु उर आवा.." वाली स्थित-प्रज्ञ स्थिति है ।
मैंने आश्चर्यचकित होते हुए हैरानी भरे स्वर में पूछा--हैं, आप इस मुकाम पर आकर भी , विज्ञान के इस युग में भी एसी अन्धविश्वास की बातें कैसे सोच सकते हैं?
डा शर्मा हंसते हुए बोले-’ डा अग्रवाल, मैं तो जब गांव में साइकल से शहर स्कूल जाता था तब भी , फ़िर बस यात्रा, रेल यात्रा से लेकर अब विमान यात्रा तक सदैव ही यह उपाय अपनाता रहा हूं, और यात्रा व अन्य सारे कार्य सफ़लता पूर्वक पूरे होते रहे हैं । यह विश्वास की बात है।
मुझे हैरान देखकर वे पुनः कहने लगे, ’हमारा परिवार आम भारतीय परिवार की भांति धार्मिक परिवार रहा है। प्रत्येक वर्ष नव रात्रों में सस्वर रामचरित मानस का पाठ होता था जो उन्हीं नौ दिनों में पूरा करना होता था। हम सब खुशी खुशी भाग लेते थे। मानस में शेष तो जो बहुत कुछ है सभी जानते हैं परन्तु बचपन से ही मुझे कुछ चौपाइयां अपने काम की, मतलब की लगीं जो याद करलीं, जो इस तरह हैं--
’ जो विदेश चाहो कुशिलाई, तो यह सुमिरि चलहु चौपाई ।
रथ चढि सिया सहित दोऊ भाई, चले वनहि अवधहि सिर नाई ।’
’विश्व भरण पोषण कर जोई, ताकर नाम भरत अस होई।’
’जेहि के सुमिरन ते रिपु नासा, नाम शत्रुहन वेद प्रकासा ।’
’जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू ।’
मैंने तो बचपन से ही इन चौपाइयों के प्रभाव को मन में धारण करके अपनाया है , माना है व अनुभव किया है , और आज भी यात्रा पर जाते समय मैं यह चौपाई अवश्य गुनगुनाता हूं ।
क्या ये अन्धविश्वास नहीं है? मैंने पूछा?
यह विश्वास है, वे बोले, अन्धविश्वास तो बचपन में था, जब माता-पिता, बडे लोगों के कथन व आस्था पर विश्वास रखकर आस्था पर विश्वास किया; क्योंकि तब ज्ञानचक्षु कब थे। प्रारम्भ में तो दूसरे के चक्षुओं से ही देखा जाता है। आज यह आस्था पर विश्वास है क्योंकि मैंने ज्ञान व अनुभव प्राप्ति के बाद , विवेचना-व्याख्या के उपरान्त अपनाया है । यात्रा पर जाते समय या परीक्षा, इन्टर्व्यू आदि के समय मैंने सदैव इन चौपाइयों को गुनगुनाने का प्रभाव अनुभव किया है व सफ़लताएं प्राप्त की हैं।
अच्छा तो ये स्वार्थ के लिये भगवान व आस्था का यूज़ ( प्रयोग) या मिसयूज़ है। मैंने हंसते हुए कहा, तो वे कहने लगे , ’हां, वस्तुतः तो हम स्वार्थ के लिये ही यह सब करते हैं। ’स्व’ के अर्थ में। स्व ही तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, आस्था, विश्वास है । जब हम ईश्वर को भज रहे होते हैं तो अपने स्व , आत्म, आत्मा, सेल्फ़ को ही दृढ़ कर रहे होते हैं। अपने आप पर विश्वास कररहे होते हैं। आत्मविश्वास को सुदृढ़- सुबल कर रहे होते हैं। यह मनो-विज्ञान है । विज्ञान इसे मनो-विज्ञान कहता है। यह दर्शन भी है ; जो दर्शन, धर्म, भक्ति है, मनो-विज्ञान भी है, विश्वास है तो अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ रूप में आस्था भी । और आस्था व ईश्वर कृपा की सोच से कर्तापन का मिथ्यादंभ व अहं भी नहीं रहता ।
परन्तु मानलें कि एक ही स्थान के लिये साक्षात्कार आदि के लिये यदि सभी अभ्यर्थी यही चौपाई पढकर जायें तो.......।, मैंने हंसते हुए तर्क किया ? वे भी हंसने लगे । बोले,’ सफ़ल तो बही होगा जो अपना सर्वश्रेष्ट प्रदर्शित कर पायेगा ।’ शेष परीक्षार्थी यदि वास्तव में आस्थावान हैं तो उन्हें यह सोचना चाहिये कि सफ़ल अभ्यर्थी की आस्था, कर्म, अनुभव व ज्ञान हमसे अधिक था। यह गुणात्मक सोच है ।क्योंकि आस्था के साथ-साथ शास्त्रों में यह भी तो कथन हैं---कि ,
’उद्योगिनी पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी , देवेन देयमिति कापुरुषः वदन्ति।’
’कर्मण्ये वाधिकारास्ते मा फ़लेषु कदाचनः।’
’ न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंते मुखे मृगाः ।’ ---आदि...
कम से कम इस आस्था-विश्वास का यह परिणाम तो होगा कि इसी बहाने लोग अपना सर्वश्रेष्ठ जान पायेंगे, प्रदर्शित कर पायेंगे, यहां नहीं तो अन्य स्थान पर सफ़ल होंगे। यहां सामाजिकता प्रवेश करती है। जब सभी आस्थावान होंगे, अपना सार्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने का प्रयत्न करेंगे, तो समाज व राष्ट्र-विश्व स्वयं ही समुन्नति की ओर प्रयाण करेगा । यही तो विज्ञान का भी, धर्म का भी, दर्शन का भी, समाज-विज्ञान का भी एवं मानव मात्र का भी उद्देश्य है। ’
’क्या हुआ भई?’ मुझे चुप देखकर डा शर्मा बोले, पुनः स्वयं ही हंसकर कहने लगे,’ अब तुम्हारी स्थिति, " हर्ष विषाद न कछु उर आवा.." वाली स्थित-प्रज्ञ स्थिति है ।
achchha post.
Thanx tongchen,
--- I am in INDIA.UP.lucknow...
---I visited your blog...sorry I can not read chiana languese....