इक उमर गुज़र गई बहारों के ख्वाब में
इक उमर गुज़र जाएगी एक पैग शराब में.
निगाहों की रौशनी मद्धम हो गई है
जिगर जूझ रहा ज़िंदगी के जवाब में.
ढूंढता है जवानी का जोश नादां
मुर्दों के कबाब में.
जमाले-ज़िंदगी को ज़ाहिल बना
ढूंढता है मन जमाल हुस्नो-शवाब में.
कैसे करूं यकीं उसका "प्रताप" मैं
कुछ भी नज़र न आये तुम सा जनाब में.
इक उमर गुज़र जाएगी एक पैग शराब में.
निगाहों की रौशनी मद्धम हो गई है
जिगर जूझ रहा ज़िंदगी के जवाब में.
ढूंढता है जवानी का जोश नादां
मुर्दों के कबाब में.
जमाले-ज़िंदगी को ज़ाहिल बना
ढूंढता है मन जमाल हुस्नो-शवाब में.
कैसे करूं यकीं उसका "प्रताप" मैं
कुछ भी नज़र न आये तुम सा जनाब में.
प्रबल प्रताप सिंह
बहुत सुन्दर लिखा है।
सुन्दर है जी--पर ये तीसरा शे’र ७५% कैसे रहगया..
comment ke liey dhanyvaad vandnaji or shyamji...!!