भारतीय संस्कृति में यदि कोई फकीर दमन, अत्याचार और भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल फूंकता है तो जन मानस को लगता है की अपना आदमी है, अपने बीच का आदमी है… और अगर सम्पन्न ऐसा करता है तो शक होता है उसकी निष्ठां पर उसके आन्दोलन के मुख्य उद्देश्य पर …
उदहारण हैं आचार्य शंकर, विवेकानद, महात्मा गांधी और न जाने कितने, जिन्होंने निर्विवादित नेतृत्व किया एक विशाल जन समूह का और बदल डाला न सिर्फ सत्ताओं को बल्कि जन मानस की आध्यात्मिक पराकाष्ठाओं को, रुढियों को ओर यहाँ तक कि अन्तस्थल तक जड़ें जमाये परमात्मा के स्वरूपों को…. क्यों… क्योंकि उनके आन्दोलन में स्वार्थ की बू नहीं आती और इसीलिए एक विशाल जन-समूह उनके लिए उठ खड़ा होता है …. ऐसा व्यक्ति डरता नहीं क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ होता नहीं और जो होती है उसके पास उसके आत्मविश्वास, संवेदना एवं स्वाभिमान की पूंजी जिस पर आघात से ही वह विचलित होता है और आन्दोलन करता ….
बस यही अंतर बाबा रामदेव के आन्दोलन को शाक्ति नहीं दे पा रहा…. जिन्होंने अकूत दौलत कमाई है अपने ही देशवासियों से योग शिक्षा के नाम पर… क्योंकि योग शिक्षा तो पुरातन है, धरोहर है हमारे ऋषियों की, पर बाबा ने उसे व्यावसायिक कर दिया है…. अकूत दौलत कमाई है अपनी चिकित्सा के भ्रामक प्रचार से जबकि मात्र छह दिनों के अनशन से आघातित अपना उपचार उन्होंने सरकारी च्कित्सालय में कराया है….. एक साम्राज्य बनाया है मात्र कुछ समय में ,,,
हो सकता है कि बाबा का उद्देश्य निःस्वार्थ हो पर भ्रमित करता है क्योंकि बाबा अपने साम्राज्य को राजनितिक बल भी देना चाहते है और फकीर भी दिखना चाहते है …… विगत जो भी गुजरा है उनके साथ उससे सन्न है बाबा, भ्रमित है कि रास्ता कहाँ छुट गया, फिर कहाँ से शुरू करे… …यह भी समझते है बाबा की उनका साम्राज्य उनके नाम की बदौलत है नाम ने धुल चाटी नहीं कि साम्राज्य मिटते देर नहीं लगेगी ……. बड़े व्यथित है बाबा मन से शरीर से .
उदहारण हैं आचार्य शंकर, विवेकानद, महात्मा गांधी और न जाने कितने, जिन्होंने निर्विवादित नेतृत्व किया एक विशाल जन समूह का और बदल डाला न सिर्फ सत्ताओं को बल्कि जन मानस की आध्यात्मिक पराकाष्ठाओं को, रुढियों को ओर यहाँ तक कि अन्तस्थल तक जड़ें जमाये परमात्मा के स्वरूपों को…. क्यों… क्योंकि उनके आन्दोलन में स्वार्थ की बू नहीं आती और इसीलिए एक विशाल जन-समूह उनके लिए उठ खड़ा होता है …. ऐसा व्यक्ति डरता नहीं क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ होता नहीं और जो होती है उसके पास उसके आत्मविश्वास, संवेदना एवं स्वाभिमान की पूंजी जिस पर आघात से ही वह विचलित होता है और आन्दोलन करता ….
बस यही अंतर बाबा रामदेव के आन्दोलन को शाक्ति नहीं दे पा रहा…. जिन्होंने अकूत दौलत कमाई है अपने ही देशवासियों से योग शिक्षा के नाम पर… क्योंकि योग शिक्षा तो पुरातन है, धरोहर है हमारे ऋषियों की, पर बाबा ने उसे व्यावसायिक कर दिया है…. अकूत दौलत कमाई है अपनी चिकित्सा के भ्रामक प्रचार से जबकि मात्र छह दिनों के अनशन से आघातित अपना उपचार उन्होंने सरकारी च्कित्सालय में कराया है….. एक साम्राज्य बनाया है मात्र कुछ समय में ,,,
हो सकता है कि बाबा का उद्देश्य निःस्वार्थ हो पर भ्रमित करता है क्योंकि बाबा अपने साम्राज्य को राजनितिक बल भी देना चाहते है और फकीर भी दिखना चाहते है …… विगत जो भी गुजरा है उनके साथ उससे सन्न है बाबा, भ्रमित है कि रास्ता कहाँ छुट गया, फिर कहाँ से शुरू करे… …यह भी समझते है बाबा की उनका साम्राज्य उनके नाम की बदौलत है नाम ने धुल चाटी नहीं कि साम्राज्य मिटते देर नहीं लगेगी ……. बड़े व्यथित है बाबा मन से शरीर से .
गोपालजी
bahut hi saarthak lekh badhaai.
महात्मा गांधी संत नहीं, वकील थे..राजनैतिक में आये..वे भी कई बार असफल हुए ,उनहोंने भी नेहरू जैसे अमीर खानदान का सहारा लिया.......रामदेव भी संत नहीं हैं..योग शिक्षक व आयुर्वेदाचार्य हैं... अज्ञान के कारण ही कुछ लोग भ्रमित होते हैं ....
आप का बलाँग मूझे आच्चछा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
I think you are correct; "Baba ji"has been confused . " josh men hosh kho dene " vali baat sabit hoti hai.
bahut achha lekh likha hai , aapne.
badhai ho !
Meenakshi Srivastava
I think you are correct; "Baba ji"has been confused . " josh men hosh kho dene " vali baat sabit hoti hai.
bahut achha lekh likha hai , aapne.
badhai ho !
Meenakshi Srivastava