दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई महाभारत के बाद पूरे देश में घमासान मच गया है। रामदेव के मुद्दे ने राष्ट्रीय राजनीति में मृतप्राय हो चली बीजेपी के लिये संजीवनी बूटी का काम किया है। चारों तरफ़ रामदेव के हाईटेक और पाँचसितारा सत्याग्रह पर हुए पुलिसिया ताँडव की बर्बरता पर हाहाकार मचा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध प्रदर्शन के ज़रिये अपनी बात सरकार तक पहुँचाने वालों का दमन किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, लेकिन संवैधानिक अधिकार की आड़ में बाबा के कुकृत्यों पर पर्दा डालना भी आत्मघाती कदम से कम नहीं होगा। मीडिया बाबा को हठयोगी, महायोगी और ना जाने कौन-कौन सी पदवी से नवाज़ रहा है, मगर हाल के दिनों की उनकी करतूतें रामदेव को "शठ योगी" ही ठहराती हैं।
बीती बातों को बिसार कर बाबाजी के हाल के दिनों के आचरण पर ही बारीकी से नज़र डालें,तो रामदेव के योग की हकीकत पर कुछ भी कहने- सुनने को बाकी नहीं रह जाता । योग का सतत अभ्यास सांसारिक उलझनों में फ़ँसे लोगों के मन, वचन और कर्म की शुद्धि कर देता है, तो फ़िर संसार त्याग चुके संन्यासियों की बात ही कुछ और है। अष्टांग योग सिखाने का दावा करने वाले बाबाजी अगर यौगिक क्रियाओं का एक अंग भी अँगीकार कर लेते तो शायद सब पर उपकार करते। मगर रामदेव के आचरण और वाणी में यम, नियम, तप, जप, योग, ध्यान, समाधि और न्यास का कोई भी भग्नावशेष दिखाई नहीं दिये। योगी कभी दोगला या झूठा नहीं हो सकता मगर बाबा बड़ी सफ़ाई से अपने भक्तों और देश के लोगों को बरगलाते रहे। बाबा जब सरकार से डील कर ही चुके थे, तो फ़िर इतनी सफ़ाई से मीडिया के ज़रिये पूरे देश को बेवकूफ़ बनाने की क्या ज़रुरत थी? वास्तव में बाबा का काले धन के मुद्दे से कोई सरोकार है ही नहीं। अचानक हाथ आये पैसे और प्रसिद्धि से बौराए बाबाजी को अब पॉवर हासिल करने की उतावली है। इसीलिये एक्शन-इमोशन-सस्पेंस से भरा मेलोड्रामा टीआरपी की भूखे मीडिया को नित नये अँदाज़ में हर रोज़ परोस रहे हैं।
पँडाल में मनोज तिवारी देश भक्ति के गीतों से लोगों में जोश भर रहे थे और बाबाजी भी उनके सुर में सुर मिलाकर अलाप रहे थे "मेरा रंग दे बसंती चोला" और " सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है " लेकिन जब पुलिस पकडने आई, तो आधुनिक युग के भगत सिंग मंच पर गुंडों की तरह इधर-उधर भागते दिखाई दिए। ऎसे ही सरफ़रोश थे, तो गिरफ़्तारी से बचने के लिये समर्थकों को अपनी हिफ़ाज़त के लिये घेरा बनाने को क्यों कह रहे थे ? सत्याग्रह जारी रखने की "भीष्म प्रतिज्ञा" लेने वाले रामदेव इतने खोखले कैसे साबित को गये कि पुलिस की पहुँच से बचने के लिये महिलाओं की ओट में जा छिपे।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने बाबाजी को नये दौर का स्वामी विवेकानंद ठहराया है। मगर सवाल यह भी है कि बसंती चोला रंगाने की चाहत रखने वाले बाबाजी ने गेरुआ त्याग सफ़ेद सलवार क्यों पहना? मुसीबत के वक्त ही व्यक्तित्व की सही पहचान होती है। मगर बाबाजी की शख्सियत में ना धीरता दिखी और ना ही गंभीरता। देश का नेतृत्व करने की चाहत रखने वाला बाबा खाकी के रौब से इतना खौफ़ज़दा हो गया कि अपने समर्थकों को मुसीबत में छोड़कर भेस बदलकर दुम दबाकर भाग निकला। ऎसे ही आँदोलनकारी थे, देशभक्त थे, क्राँतिकारी थे, तो मँच से शान से अपनी गिरफ़्तारी देते और भगतसिंग की तरह "रंग दे बसंती" का नारा बुलंद करते। बाबाजी अब तो आप जान ही गये होंगे कि जोश भरे फ़िल्मी गीतों पर एक्टिंग करना और हकीकत में देश के लिये जान की बाज़ी लगाने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क होता है। आँदोलन के अगुवाई के लिये पुलिस का घेरा तोड़ने की गरज से भेस बदलने के किस्से तो खुब देखे-सुने थे,मगर "आज़ादी की दूसरी लड़ाई" के स्वयंभू क्राँतिकारी का यह रणछोड़ अँदाज़ बेहद हास्यास्पद है। गनीमत है ऎसे फ़िल्मी केरेक्टर स्वाधीनता सँग्राम के दौर में पैदा नहीं हुए।
केन्द्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों के स्वार्थ के चलते देश में रामदेव जैसे तमाम फ़र्ज़ी बाबाओं की पौ बारह है। सरकारें अपने राजनीतिक हित साधने के लिये इन बाबाओं आगे बढ़ाती हैं, जिसका खमियाज़ादेश की भोलीभाली जनता को उठाना पड़ता है। मीडिया की साँठगाँठ भी इस साज़िश में बराबर की हिस्सेदार है। बाबा के अनर्गल प्रलाप का पिछले चर दिनों से लाइव कवरेज दिखाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में क्या सारे बिकाऊ या अधकचरे लोग भरे पड़े हैं,जो बाबा के चेहरे से टपकी धूर्तता को देखकर भी देख नहीं पा रहे हैं। सजीव तस्वीरें कभी झूठ नहीं बोलतीं। उस रात मंच पर कुर्सियाँ फ़ाँदते, भीड़ में छलाँग लगाते, शाम से लोगों को मरने-मारने के लिये उकसाते और पुलिस से बचने के लिये महिलाओं की आड़ लेने का पेशेवराना तरीका कुछ और ही कह रहा है। आज तो बाबा ने हद ही कर दी। प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान उन्होंने किसी की वल्दियत तक पर सवाल खड़ा कर दिया। जिस अँदाज़ में उन्होंने इस वाक्यांश का इस्तेमाल किया, वह हरियाण, पंजाब, राजस्थान के हिस्सों में अपमानजनक समझा जाता है। ऎसे ही एक चैनल पर पँडाल में बाबा के विश्राम के लिये बनाये गये कक्ष में अत्याधुनिक साज-सज्जा और डनलप का गद्दा देखकर आँखें फ़टी रह गईं। हमने तो सुना था कि योगियों का आधुनिक सुख-सुविधाओं से कोई वास्ता नहीं होता।
मूल सवाल वही है कि जिसका वाणी पर संयम नहीं,जिसके विचार स्थिर और शुध्द नहीं, जिसके मन से लोभ-लालच नहीं गया, जिसमें भोग विलास की लिप्सा बाकी है,जिसके आचरण में क्रूरता, कुटिलता और धूर्तता भरी पड़ी हो वो क्या वो योगी हो सकता है? खास तौर से जो शख्स करीब तीस सालों से भी ज़्यादा वक्त से लगातार योगाभ्यास का दावा कर रहा हो और अपने योग के ज़रिये देश को स्वस्थ बनाने का दम भरता हो, उसका इतना गैरज़िम्मेदाराना बर्ताव उसकी ठग प्रवृत्ति की गवाही देने के लिये पर्याप्त हैं। ये मुद्दे भी आम जनता के सामने लाने की ज़रुरत है। बाबाजी ने तीन दिनों के घटनाक्रम के दौरान खुद ही आम जनता और मीडिया को अपने छिपे हुए रुप या यूँ कहें कि असली रुप की झलक बारंबार दी है। बाबाजी तो अपना नकाब उतार चुके अब यदि लोग हकीकत को देखकर भी नज़र अँदाज़ कर दें तो ये लोगों की निगाहों का ही कसूर होगा।
साभार विस्फोट.कॉम : http://visfot.com/home/index.php/permalink/4394.html?print
greAT
जब भारत का विभाजन हुआ था तो लोग सोचे होंगे जो मुसलमान यहाँ रह गए वे देश प्रेमी होंगे, पर तुम लोग आज भी देश को खोखला कर रहे हो. जिस तरह कुत्ते बेटी बहन नहीं पहचानते उसी तरह तुम लोंगो की जात है कहा से किसी का सम्मान करोगे, बाबा की बुराई ढूंढना तो तू लोंगो की आदत है. एक भी मुस्लिम नाम बताओ जो देश के लिए समर्पित हो कर संघर्ष कर रहा हो. और यह अनवर तो ऐसी रचनाएँ ढूढ़ कर लता है. जो जयचंदों से मिलती हैं. कुत्तो की जात अपनी माँ को भी नहीं छोड़ते तो भारत माँ की क्या परवाह करेंगे.
भारतीय संस्कृति में यदि कोई फकीर दमन, अत्याचार और भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल फूंकता है तो जन मानस को लगता है की अपना आदमी है, अपने बीच का आदमी है… और अगर सम्पन्न ऐसा करता है तो शक होता है उसकी निष्ठां पर उसके आन्दोलन के मुख्य उद्देश्य पर …
उदहारण हैं आचार्य शंकर, विवेकानद, महात्मा गांधी और न जाने कितने, जिन्होंने निर्विवादित नेतृत्व किया एक विशाल जन समूह का और बदल डाला न सिर्फ सत्ताओं को बल्कि जन मानस की आध्यात्मिक पराकाष्ठाओं को, रुढियों को ओर यहाँ तक कि अन्तस्थल तक जड़ें जमाये परमात्मा के स्वरूपों को…. क्यों… क्योंकि उनके आन्दोलन में स्वार्थ की बू नहीं आती और इसीलिए एक विशाल जन-समूह उनके लिए उठ खड़ा होता है …. ऐसा व्यक्ति डरता नहीं क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ होता नहीं और जो होती है उसके पास उसके आत्मविश्वास, संवेदना एवं स्वाभिमान की पूंजी जिस पर आघात से ही वह विचलित होता है और आन्दोलन करता ….
बस यही अंतर बाबा रामदेव के आन्दोलन को शाक्ति नहीं दे पा रहा…. जिन्होंने अकूत दौलत कमाई है अपने ही देशवासियों से योग शिक्षा के नाम पर… क्योंकि योग शिक्षा तो पुरातन है, धरोहर है हमारे ऋषियों की, पर बाबा ने उसे व्यावसायिक कर दिया है…. अकूत दौलत कमाई है अपनी चिकित्सा के भ्रामक प्रचार से जबकि मात्र छह दिनों के अनशन से आघातित अपना उपचार उन्होंने सरकारी च्कित्सालय में कराया है….. एक साम्राज्य बनाया है मात्र कुछ समय में ,,,
हो सकता है कि बाबा का उद्देश्य निःस्वार्थ हो पर भ्रमित करता है क्योंकि बाबा अपने साम्राज्य को राजनितिक बल भी देना चाहते है और फकीर भी दिखना चाहते है …… विगत जो भी गुजरा है उनके साथ उससे सन्न है बाबा, भ्रमित है कि रास्ता कहाँ छुट गया, फिर कहाँ से शुरू करे… …यह भी समझते है बाबा की उनका साम्राज्य उनके नाम की बदौलत है नाम ने धुल चाटी नहीं कि साम्राज्य मिटते देर नहीं लगेगी ……. बड़े व्यथित है बाबा मन से शरीर से .
गोपालजी