अन्ना के लोकपाल बिल पर सत्याग्रह से जनता के वर्षों से सुलगते असंतोष को एक अभिव्यक्ति मिली । यह स्पष्ट हो गया है कि जनता एक भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था चाहती है और वर्तमान राजनेताओंसे उसका मोहभंग गया है ।
अन्ना की आंधी को रोकने में विफल सरकार के जब सभी अस्त्र बेकार चले गये तो प्रशासन बैकफुट पर दिखाई दिया । पहले अन्ना व साथियों को गिरफ्तार किया गया । फिर जनता के उग्र तेवर देख कर उन्हें रिहा किया गया । अन्ना ने जब जेल छोड़ने से इंकार कर दिया तो अन्ना की सारी शर्तें मान ली गयी केवल अनशन की समय सीमा पर सहमति नहीं हो पायी।
विपक्ष ने भी अन्ना की मुहिम को एकजुट होकर समर्थन दिया । विपक्ष को सरकार को घेरने का एक अच्छा मौका दिखाई दिया । उसने भी बहती गंगा में हाथ धोने का अच्छा अवसर पाया । बाल ठाकरे .मायावती, नायडू,मुलायम सिंह सहित सभी नेता ,जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, ने अन्ना की मुहिम को समर्थन दिया।
सरकार ने संसद में अन्ना की मुहिम को असंवैधानिक व गलत बताया । सरकार ने अन्ना के सत्याग्रह को संसद की सर्वोच्चता के खी;लफ़ बताया । लालू यादव ने भी कुछ ऐसा ही कहा । काग्रेस के नये प्रवक्ता राशिद अल्वी को अन्ना के जन-आन्दोलन के पीछे अमेरिकी हाथ दिखा तो लालू यादव को सांप्रदायिक तत्वों का हाथ ।
पर इस मुहिम के पीछे जन सैलाब निरंतर बढ़ता ही जा रहा है । इसका प्रमाण है तिहाड़ जेल के सामने जमा हुआ जन समूह एवं इंडिया गेट से जंतर मंतर तक मशाल जुलूस में हजारों लोगों की सहभागिता । बाबा रामदेव एवं रवि शंकर ने भी इस मुहिम में उपस्थित हो कर इस आन्दोलन के महत्त्व का अहसास कराया ।
अन्ना को मिले जन समर्थन ने यद्यपि महात्मा गाँधी के सत्याग्रह एवं जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की याद दिला दी पर सवाल यह उठता है कि इस आन्दोलन की परिणति क्या होगी ? अनशन कि अनुमति मिल ही गयी है , समय सीमा पर भी सरकार झुक ही रही है ,पर सरकार ने लोकपाल बिल संसद में पेश कर दिया है और उस पर स्थायी समिति में विचार हो रहा है । सरकार यदि चाहे भी तो अब इस बिल को वापस नहीं ले सकती। हाँ स्थायी समिति में विचार के दौरान अन्ना के लोकपाल बिल के प्राविधानों को शामिल किया जा सकता है और संशोधनों के जरिये उन्हें लोकपाल बिल का अंग बनाया जा सकता है । पर इसके लिये सरकार और सासदों की सहमति जरूरी होगी । क्या विपक्ष के वे सांसद जो अन्ना हजारे को अनशन करने के लोकतान्त्रिक अधिकार पर समर्थन दे रहे हैं ,उनके जन लोकपाल बिल के प्राविधानों को लोकपाल कानून में संसोधनों के जरिये शामिल करने पर सहमत होगें ?यह अभी स्पष्ट नहीं है । ऐसी स्थिति में यह आन्दोलन कितना फलदायी हो सकेगा?
यह कहना कि जनता जाग गयी है और व्यवस्था परिवर्तन के लिये कटिबद्ध है ,जल्दबाजी होगी। अभी चुनाव दूर हैं और जनता की याददास्त बड़ी ही अल्प होती है । भावनाओं का यह आवेग निर्वाचनों में भ्रष्टाचारियों के प्रतिनिधित्व को नकार देगा अथवा लोग जाती ,धर्म,या दलगत आधार पर वोट नहीं करेंगे ,यह मानना अभी दिवास्वप्न देखना ही होगा ।
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