- हरिगोविन्द उपाध्याय
वे आम, कटहल, नींबू, पाकड़, जामुन, नीम, अमरूद, आदि के वृक्ष साईकिल पर लेकर घर-घर घूमते हुए नजर आयेंगे। जिस किसी को भी वृक्ष की जरूरत हो उसे वह मुफ्त में देते हैं और कहते हैं कि इस वृक्ष को उसी तरह से देखें जिस तरह से अपने बच्चे को देखते हैं।खादी का कुर्ता पैजामा और पौकेट, कंधे पर खादी का झोला लगाये चन्द्रभूषण तिवारी, लखनऊ शहर में एक लाख वृक्ष लगाने का लक्ष्य लेकर साइकिल से भ्रमण करते, ठण्ड के दिनों में गरीब बच्चों के लिए पुराने कपड़े बांटते आपको किसी समय दिखाई दे सकते हैं। चन्द्रभूषण तिवारी का कहना है कि उ.प्र. के राज्यपाल महामहिम श्री बी. एल. जोशी उनके साथ हैं। एक दिन सायं काल उनके घर महामहिम राज्यपाल का एक व्यक्ति आया और 15 अक्टूबर, 2009 को सायं 5.30 बजे स्वल्पाहार के लिए आमंत्रित किया। मिलने के दौरान महामहिम अति प्रसन्न हुये और उन्होंने कहा कि आचार्य जी इस कार्य में आप अकेले नहीं, मैं भी आपके साथ हूं और वृक्षारोपण के लिये मैं 5000 रुपए की धनराशि आपको दे रहा हूं।
मान अपमान से ऊपर उठ चुके श्री तिवारी का जीवन वृक्ष लगाने एवं गरीब मजबूर व मजदूरों के बच्चों के लिये समर्पित है। अब तक शहर में 58,000 वृक्ष लगा चुके श्री तिवारी का लक्ष्य लखनऊ शहर को बागों के शहर के रूप में पुनर्स्थापित करना है। वह कहते हैंµ
बगिया के शहर उजरि गयिले बाबा
बनि गयिले ईटा के मकान हो
ओहि के शहरिया में पत्थर दिल बसि गयिलें
नाहि करें मन में विचार हो,
जहां रहे चारबाग, आलमबाग, कैसरबाग,
नीबूबाग के नाहीं बा निशान हो।
आग्रह करने पर चन्द्रभूषण तिवारी ऐसे ही गाने बहुत ही अच्छे ढंग से गाते हैं, लखनऊ से गुलबर्गा (कर्नाटक) की यात्रा में हमारी उनसे मुलाकात हुयी। उनसे मुलाकात के दौरान पता चला कि कम खर्चे में जीवन चलाने वाले तिवारी जी को अकूत सम्पत्ति अर्जित करने वाले शहरी अमीरी लोग पागल लगते हैं। उनका कहना है कि अमीरों का लक्ष्य धन अर्जित करना है और मेरा लक्ष्य निर्धनों के आस-पास रहकर वृक्ष लगाना है। वे आम, कटहल, नींबू, पाकड़, जामुन, नीम, अमरूद, आदि के वृक्ष घर-घर साईकिल पर लेकर घूमते हुए नजर आयेंगे। जिस किसी को भी वृक्ष की जरूरत हो उसे वह मुफ्त में देते हैं और कहते हैं कि इस वृक्ष को उसी तरह से देखें जिस तरह से अपने बच्चे को देखते हैं। कारण यह कि वृक्ष फल और आक्सीजन मुफ्त देता है। धनवान लोग उन्हें पागल इसलिए समझते हैं क्योंकि उनका मानना है कि समझदार व्यक्ति अपनी रोजी-रोटी में लगता है न कि घर-घर घूमकर वृक्ष बांटता है।
मूलत: देवरिया जिले के रहने वाले चन्द्रभूषण तिवारी बी.ए. करने के निमित्त लखनऊ आये। अखबार बेचकर बी.ए. की पढ़ाई पूरी की, उसके बाद आचार्य की डिग्री लेने के कुछ समय पश्चात् गरीब बच्चों को पढ़ाने के काम में लग गये। इसी बीच उन्हें सेन्ट्रल स्कूल सम्बलपुर उड़ीसा में अध्यापक के रूप में नौकरी मिल जाने के कारण वहां जाना पड़ा।
जिन बच्चों को पढ़ाया करते थे वे अब चिट्ठी आचार्य जी को लिखते। उसमें लिखा होता था- ”आचार्य जी आप कब आयेंगे, खिलौने कब तक लायेगें।” आचार्य जी के मन मस्तिष्क को लगा कि मेरी जरूरत यहां कहां है। अत: नौकरी छोड़कर 1994 में लखनऊ आ गये। शहर आकर पुन: बच्चों को पढ़ाना शुरू किया इस समय उनके स्कूल में लगभग 350 बच्चे हैं। यह ऐसे बच्चे हैं जिनकी फीस उनके माता-पिता नहीं दे सकते हैं। अत: यह स्कूल नि:शुल्क चलता है। किसी बच्चे से कोई फीस नहीं ली जाती है। अध्यापकों को दिये जाने वाले पारिश्रमिक की व्यवस्था आचार्य जी पर ही है। आचार्य जी बताते हैं कि यह व्यवस्था सज्जन शक्तियों के कारण सुगमता से हो जाती है। उनका लक्ष्य है कि लखनऊ शहर बागों का शहर हो और शहर के चारों तरफ ऐसे स्कूल हों जहां गरीब और मजदूरों के बच्चे पढ़ सके।
आचार्य चन्द्रभूषण तिवारी कहते हैं कि गांव भी शहर की नकल से अछूते नहीं हैं। गांव की पुरानी संस्कृति पहले से बदल चुकी है। वहां भी रिजर्व रहना बड़प्पन की निशानी है। गांव के सम्पन्न परिवार यह कहने लगे हैं कि मेरा लड़का रिजर्व रहता है, किसी से मिलता-जुलता नहीं है। वे बताते हैं कि जब मैं पढ़ता था तो हाई स्कूल की पढ़ाई करते समय मेरा स्कूल घर से 10 कि.मी. दूर होने के कारण वहां साइकिल से जाना पड़ता था। रास्ते में किसी बूढ़े को देखकर मैं उसको साइकिल पर बैठा लिया करता था। बच्चे आकर इसकी शिकायत भी करते थे। मेरे पिताजी भी उन अमीर पिताओं से बहुत प्रभावित थे। मैंने बूढ़े असहाय वृध्द व्यक्ति को अपनी साइकिल पर बैठाकर उसके गांव क्यों छोड़ा, इस बात पर मेरी पिटाई भी होती थी। कभी-कभी तो यह काम न करने पर भी शिकायत होने पर मेरी पिटाई होती थी। आचार्य जी का कहना है कि कोई भी पिता यह नहीं चाहता कि उसका पुत्र लायक हो, वह यह चाहता है कि उसका पुत्र कमाऊ बने। हमारी शिक्षा पध्दति ऐसी है जिसमें हमने खुद को मेकैनिकल बना लिया है। हमारा समाज संस्कृति और राष्ट्र से कोई लेना-देना नहीं है। वृक्षों को काटकर, नदियों को प्रदूषित कर, वातावरण को विषाक्त बनाकर हमने उसे रहने लायक नहीं छोड़ा है। अब इसे ठीक करने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। पशु-पक्षी, वृक्ष, हवा, नदियां सब मनुष्य का स्वागत ही करते हैं। मनुष्य जब चलता है, हवा बहती है, पशु-पक्षी सहयोग करते ही हैं। वृक्ष आक्सीजन देता है। नदियां पानी-पीने से कभी मना नहीं करती हैं। किन्तु मनुष्य भ्रमित है। पशु-पक्षी भोजन करने के पश्चात् न तो भोजन की इच्छा रखेंगे और हिंसक होने के बावजूद किसी जीव का शिकार नहीं करेंगे। किन्तु मनुष्य पेट भरने के बाद भी हिंसक हो जाता है। पशु का आचरण निश्चित है, मनुष्य का आचरण अनिश्चित है। पढ़े-लिखे लोगों की वजह से संकट ज्यादा है। अनपढ़ लोग प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करते हैं। पढ़े-लिखे लोग धनवान होने के लिये अधिक से अधिक प्रकृति से छेड़छाड़ करते हैं। सुविधा संग्रह की वृत्ति ने मनुष्य के बीच घृणा और द्वेष पैदा कर दिया है, मनुष्य जाति के वजूद पर आज प्रश्नचिह्न। इस सबके बावजूद आचार्य जी को किसी से कोई शिकायत नहीं है। वह कहते हैं कि लोग शरीर से बड़े हो गये हैं किन्तु विकसित नहीं हुए हैं। अविकसित लोग करुणा, कृपा, दया के पात्र हैं। चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार का कारण अविकसित मान्यता है। सुविधा से सुखी होने का भ्रम है। वे कहते हैं कि यदि सुविधा और धन संग्रह से सुख मिलता तो मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी अलग क्यों होते।
इस समय सम्पूर्ण विश्व में लोभ-उन्मादी, काम-उन्मादी, और भोग-उन्मादी संस्कृति पनप चुकी है। आप किसी बच्चे से पूछ लीजिये कि पढ़कर क्या करोगे तो कहेगा नौकरी। बहुत अच्छा निकला तो मां-बाप को साथ रखेगा, नहीं तो यदि विकसित हो गया तो पत्नी के साथ विदेश चला जायेगा। उसकी पढ़ाई में समाज या राष्ट्र नामक चीज नहीं है। वह यह नहीं सोचता कि मेरा पालन-पोषण भी इसी समाज और राष्ट्र की देन है। मुझे ऐसा लगता है कि एक गांव का अनपढ़ बालक जो खेती करता है, वह कम से कम प्रकृति का दोहन करता है और समाज का भी पोषण करता है, मां-बाप के साथ रहता है, अतिथियों का भी आदर और सम्मान यथा शक्ति करता ही है, जबकि आई.आई.टी. पढ़ने-लिखने वाले बालक के मन में न तो समाज है, न राष्ट्र और न कर्तव्य, क्योंकि आधुनिक शिक्षा पध्दति में समाज-निर्माण या राष्ट्र-निर्माण की कोई डिजाईन नहीं है।
आचार्य जी का मानना है कि एक हाईस्कूल का विद्यार्थी कम से कम 4 गांव के लोगों को जाने और आस-पास के चार गांव उसे जाने-पहचाने, इण्टर का विद्यार्थी एक ब्लाक को जाने और उसे पूरा ब्लाक जाने पहचाने। यदि इस आधार पर पढ़ाई आगे बढ़ेगी तो आगे चलकर एक बालक राष्ट्र को जानेगा और राष्ट्र उसे जाने-पहचानेगा और दूसरा बालक विश्व को जानेगा और विश्व उसे जाने पहचानेगा। ऐसी दशा में राष्ट्र भाव जाग्रत नहीं होने की समस्या नहीं रहेगी। आज पढ़ा-लिखा व्यक्ति न तो स्वयं पर विश्वास करता है और न ही समाज पर। जबकि एक गांव का अनपढ़ व्यक्ति जो खेती करता है, खेती पर पल रहा है और खेती को पोषित करता है, वह स्वयं पर भी भरोसा करता है और समाज पर भी। आचार्य जी के लिए वृक्षारोपण पर्यावरण सुधारने के साथ-साथ समाज और संस्कृति को भी बेहतर करने का माध्यम है।
संपर्क : ई-4/192, सेक्टर-एम, अलीगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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http://hbfint.blogspot.com/
"पशु-पक्षी भोजन करने के पश्चात् न तो भोजन की इच्छा रखेंगे और हिंसक होने के बावजूद किसी जीव का शिकार नहीं करेंगे। किन्तु मनुष्य पेट भरने के बाद भी हिंसक हो जाता है। पशु का आचरण निश्चित है, मनुष्य का आचरण अनिश्चित है। पढ़े-लिखे लोगों की वजह से संकट ज्यादा है। अनपढ़ लोग प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करते हैं। "---
---तो प्रश्न उठता है कि प्रकृति/ ईश्वर ने मनुष्य को जानवरों से विकास करके क्यों बनाया .....तो हम जानवर ही क्यों न बने रहें ...और फिर हम क्यों पढ़ें व लिखें ??
--ये पेड़ लगाने से क्या होगा....तिवारी जी जहां जहाँ एक तरफ से पेड़ लगाते जाते हैं दूसरी ओर से वे पेड़ नष्ट होते जाते हैं ...कोई उनकी देखभाल नहीं करता...एक स्थान से लगे हुए पेड़ नष्ट और होजाते हैं ....हमने देखा है ..उसी स्थान पर बार बार वही पेड़ लगा दिए जाते हैं....
----हाँ लगाने वाला अपना नाम अवश्य कर लेता है..
--हर व्यक्ति सिर्फ एक पेड़ लगाए व उसे पाले-पोषे तो अधिक अच्छा होगा ..बजाय दिखावट के लिए १ लाख पेड़ लगाना ...