दर्द उसने दिया मुझे फ़स्ल-ए-बहार में
चैन उसने ले लिया मेरे एक क़रार* में
मेरे दम से अब तो ये क़ायनात है
शब्-ओ-माहताब हैं अख्तियार में
जुदाई का मज़ा भी क्या अजीब है
ऐसा मज़ा कहाँ विसाल-ए-यार* में
आओ एक बार और आ जाओ
देखूं क्या बचा अब हुस्न यार में
जीस्त* की स्याह मेरी दास्तान में
कुछ नहीं बचा दिल-ए-दाग़दार में
कैसे गया उलझ 'सलीम' प्यार में
मेरे हाथ काँटों में, पाँव अँगार में
(क़रार= एग्रीमेंट, विसाल= मिलन, जीस्त= ज़िन्दगी)
जुदाई का मज़ा भी क्या अजीब है
ऐसा मज़ा कहाँ विसाल-ए-यार* में
बहुत खूब
वाह!!!
खूबसूरत गज़ल....
दाद हाज़िर है.