एक पत्र मैं उन्हें साहित्यकार भी नहीं मानता
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"मध्यकालीन मनोवृत्ति से मनुष्य की मुक्ति के तीन पद-चिन्ह स्पष्ट हो गये हैं, पहला यह कि मनुष्य किसी परलोक में या परजन्म में मुक्ति पाने की बात अब नहीं सोचता। दूसरा यह कि मनुष्य ने ऐतिहासिक चेतना को सर्वथा अपना लिया है। सब-कुछ विकास-परम्परा के भीतर से गुज़रता आया है, गुज़रता रहेगा - धर्म भी, ईश्वर भी। तीसरा चिन्ह है व्यष्टि मुक्ति के स्थान पर समष्टि मुक्ति की धारणा। हम यह अनुभव करने लगे हैं कि किसी एक व्यक्ति को भय, शोक, मोह आदि से मुक्त करना पर्याप्त नहीं है। पूरे-के-पूरे समाज-मानव को ही शोषण के भय और मोह से मुक्त करना हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
जो साहित्य प्रगतिशील होता है उसमें ये तीनों चिन्ह अवश्य विद्यमान रहते हैं। जो लोग व्यक्तिगत कुण्ठा को प्रगति समझते हैं या अपनी चरित्रगत कमजोरियों को ही प्रगति मान लेते हैं, वे नितान्त व्यक्तिवादी हैं। उनकी रचनाओं में मध्यकालीन मनोवृत्ति से मुक्ति का कोई लक्षण नहीं मिलता। उन लोगों को मैं प्रगतिशील नहीं मानता बल्कि सच पूछिये तो उन्हें साहित्यकार भी नहीं मानता।
जो लोग केवल आख़िरी किनारे को जानते हैं वे सही अर्थों में प्रगतिशील नहीं हैं और जो उसके शुरू या बीच के किनारों को ही जानते हैं, वे भी नहीं है। प्रगतिशील चिन्तन सम्पूर्ण इतिहास की देन है। इसीलिए हर साहित्यकार से इतिहास उसकी माँग करता है। दलबन्दी बुरी बात है। साहित्य के क्षेत्र में और भी बुरी है, लेकिन अस्वाभाविक नहीं है। किसी शक्तिशाली व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द प्रभावित लोग अनादिकाल से इकट्ठे हो जाते रहे हैं और साहित्य में, धर्म में, राजनीति में दल बनाने का सूत्रपात करते हैं। ये दल पहले भी बन चुके हैं, अब भी बन रहे हैं और आगे भी बनेंगे। मगर आजकल हम लोग इनसे जितना चिन्तित हैं उतना कदाचित् पहले के लोग चिन्तित नहीं हुआ करते थे। आज भी जो लोग मध्ययुगीन मनोवृत्ति के हैं, वे अपेक्षाकृत कम परेशान होते हैं।"
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- हजारी प्रसाद द्विवेदी ( बलराज साहनी को लिखे अपने पत्र में )
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