पुरोवाक्:
'असीम आस्था' मानव और मानवता पर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कविता
कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत कर, उसका उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है। कविता बहुप्रयोजनीय विधा है जो संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में आदिकाल से पाई जाती है। संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में व्यस्त मनुष्य की मानुषी प्रकृति और प्रवृत्ति के संरक्षण व संवर्धन हेतु कविता रामबाण उपाय है। कविता मनुष्य को प्रकृति की और उन्मुख कर समन्वय, साहचर्यं, सद्भाव, सहकार, सहिष्णुता के बीज बोती है। काव्य- प्रेरणा से कार्य में प्रवृत्ति बढ़ जाती है। केवल लाभ-हानि का अनुमानकर मनुष्य किसी काम के करने या न करने के लिए तैयार नहीं होता किंतु हर्ष, आह्लाद, करुणा, प्रेरणा, क्रोध या द्वेष वश विचलित होकर वः काम करने या न करने के लिए प्रस्तुत होता है। कार्य प्रेरणा केवल मस्तिष्क (बुद्धि) नहीं अपितु मन (भावना) से उत्प्रेरित होती है। कार्य-प्रवृत्ति के लिए मन में आवेग - संवेग होना आवश्यक है।
सैनिक
सैनिक कर्मव्रती और कर्मवीर होता है। वह निष्काम कर्म नहीं करता। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचिन' सैनिक का आदर्श होकर भी नहीं होता। सैनिक कर्म करता है तो उसे परिणाम चाहिए, इसलिए उसका कर्म सकाम है किंतु उसका कर्म वैयक्तिक राग-द्वेष, हानि-लाभ से जुड़ा नहीं है, इसलिए वह अनासक्त है। प्रस्तुत कृति 'असीम आस्था' के कवि कैप्टेन हरबिंदर सिंह गिल सैन्याधिकारी रहे हैं। निरासक्त भाव से कर्मकर प्राप्त फल 'सर्वजनहिताय, सर्वजन सुखाय' अर्पित करते रहना उनका स्वभाव है। विवेच्य कृति 'असीम आस्था' तथा पूर्वकृति 'बर्लिन की दीवार' दोनों के मूल में मानव हित की भावना तथा सर्व कल्याण की कामना अंतर्निहित है। 'बर्लिन की दीवार' का कवि मानव मूल्यों के पहरेदार की तरह निष्प्राण पाषाण में अन्तर्निहित चेतना से साक्षात करते हुए विश्वइतिहास में विविध कालखंडों में घटित घटनाओं को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में विवेचित करते हुए पत्थर के माध्यम से गहन विमर्शकर सम्यक संदेश देता है। हरबिंदर जी का सैनिक मन कर्तव्य भाव को सर्वोपरि रखकर 'आस्था' को जीवन का उसकी रक्षार्थ विविध आयुधों की तरह काव्य रचनाओं में सत्य-शिव-सुंदर का संधान करता है। कवि की चिंता 'आष्टा' को विखंडित-कलंकित होने से बचाने की है-
कैसा समय आ गया है
शब्दों के अर्थ
इतनी तीव्र गति से
बदल रहे हैं (कि)
वाक्य तो वाक्य
पूरे का पूरा पाठ
अपना अर्थ खो रहा है।
मानव सभ्यता के विकसित और चिरजीवी होने का कारण स्वयं में, अपने चितन में, अपने प्रयासों में, अपने लक्ष्य में आस्था होना ही है। संशय आस्था का शत्रु है। 'शब्द ब्रह्म' मानव चेतना का प्रागट्य है। शब्दों के अर्थ खोने लगें तो 'वाक्य' और 'पाठ' ही नहीं 'पुस्तकें' और 'रचना कर्म भी' अर्थहीन हो जाएगा और बिना रचना कर्म के मनुष्य ही अर्थहीन हो जाएगा।
'एक शब्द मानव स्वयं है ..... मानव अपना अस्तित्व खोता जा रहा है ..... काश, मानव, मानवता की महत्ता जान ले ..... हो जाएगा उजाला ही उजाला' गागर में सागर भर दिया है कवि ने कम से कम शब्दों में।
'आस्था' मानुष को सीमातीत सामर्थ्य प्रदान करती है -
काश, मानव
इन परिधियों की सीमाएँ
आसमान के क्षितिज तक
सकता
शब्दों के अर्थ में आ जाती
सच्चाई प्रकृति की
और हो प्रसन्नचित्त
झूमने लगती
मेरी उदास माँ मानवता।
साहित्य रसानंद या सच्चिदानंद प्राप्ति का माध्यम है। साहित्य ही संकुचित हो जाए तो मानवता के सम्मुख खतरा उपस्थित हो जाता है। कवि समकालिक साहित्यिक प्रवृत्तियों में वैयक्तिक दृष्टि और हितों की प्रधानता देख कर चिंतित है-
साहित्य तोते की तरह
एक खूबसूरत पालतू
पक्षी बनकर रह गया है।
सिखाया है,
रटाया जाता है कि
क्या बोलना है?
(साहित्य) वही बोलता है
जो मालिक चाहता है।
साहित्य व्यक्तिगत हित साधन का उपक्रम मात्र बना लिया जाए तो मानवता के समक्ष नष्ट होने के खतरा बढ़ जाता है।
(साहित्य) दर्पण में आई दरार
मनुष्य के मुख पर ही नहीं
उसकी अंतरात्मा पर भी
एक प्रश्न चिन्ह छोड़ जाएगी।
प्रश्न चिन्ह किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता किंतु वह समय की सार्थकता को कटघरे में अवश्य खड़ा करता है। कवि भली-भाँति जानता है कि -
मानव ने आज तक
शब्दों को
अहं के गहने के रूप में
सजाया और सँवारा है
उन्हें कभी
आस्था के फूल समझ
मानवता को अर्पण नहीं किया है।
मानव मूल्यों और मानवीय आचरण का पहरुआ कवि स्पष्ट शब्दों में चेतावनी देता है-
इसलिए मानव
यह भूल न कर लेना
मानवता को ही बना मूर्ख ,
भगवान की आँखों में
कभी धूल झोंक पाएगा।
आस्था पर अडिग आस्था रखता कवि-मन जानता है कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना निष्फल नहीं होती-
यह प्रकृति का सत्य है
प्रार्थना
कभी व्यर्थ नहीं जाती।
यह तभी होता है
जब उसके शब्द
कंठ से न निकलकर
आत्मा से निकलें।
चतुर्दिक पूजास्थलों की भरमार होने के बाद भी भगवान के भक्तों की मनोकामना पूर्ण न होने का कारण मस्तिष्क (स्वार्थ) द्वारा मन (परमार्थ) को गुलाम बना लेना है। अर्थहीन शब्दों को सजा-सँवारकर आधुनिकता कहना की चादर पहनाना मानव की बड़ी भूल है। शब्दों से खिलवाड़ का दुष्परिणाम शब्दों में अन्तर्निहित अर्थ खो जाना और कविता का शब्दकोष बनते जाना है-
कंप्यूटर के युग में
शब्द तो दूर की बात है
अक्षर भी
अपनी मौलिकता खोने लगे हैं। यह शायद इसलिए हो रहा है कि
नैतिकता और आध्यात्मिकता को
कंप्यूटर स्वीकार करने से
इंकार कर देता है।
अपने पूर्वजों की विरासत को विस्मृत करना, मानवता में आस्था न होना ही त्रासदी का कारण है।
मानवता में आस्था
एक परम आनंद की
अनुभूति देता है,
उसमें सुगंध आती है
श्रद्धा के फूलों की
क्योंकि इसी माँ की गोद में
सो रहे हैं
हमारे अपने पूर्वज।
परन्तु आज का मानव
अपनी ही संतानों के मोह में
इतना खो गया है
कि वह पूर्वज तो दूर
स्वयं को भी भूल गया है।
इतिहास साक्षी है कि महाभारत भी विरासत को विस्मृत कर संतानों के प्रति अंधमोह का हो दुष्परिणाम था। मुझे स्मरण है कि पूज्या बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा ने अपने एक पत्र में मुझे लिखा था- ....महाभारतकार का यह वाक्य सदा स्मरण रखना 'नहि मान्युषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्', मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं होता। जब मनुष्य को हीन समझ लिया जाता है तब न मनुष्य बचता है, न धन-संपदा।कवि जानता है कि आस्था कपोल कल्पना नहीं यथार्थ है -
मानवता में आस्था
सिर्फ कविता रूपी
कोरी कल्पना नहीं है
अपितु
यथार्थ है
हर एक प्राणी का
जो लेता है श्वास। *
कवि आस्था के प्रति आस्था न होने का कारण यांत्रिकीकरण को मानता है। वह कहता है-
यह इसलिए हो रहा है
मानव के मस्तिष्क में
चिन्तन की जगह
फार्मूलों ने ले ली है
और कारखानों से
बनकर निकल रहे हैं
बरबादी के समीकरण ....
.... परंतु चिंतन
बरबादी के ऐसे समीकरणों को
कतई स्वीकारेगा नहीं
क्योंकि उसकी आस्था
हमेशा
मानवीय गहनता में होती है
न कि मानव के
उथले विचारों में।
शायद इसलिए ही
कबीर जुलाहा होते हुए भी
सबसे (अधिक) धनाढ्य था, है और रहेगा।
आचार्य चतुरसेन और अन्य कई साहित्यकारों चिंतकों ने 'राष्ट्र' की अवधारणा को सर्वाधिक मानव वध काकारण कहा है। कैप्टेन हरबिंदर सिंह सैन्याधिकारी रह चुके हैं, वे पूरी गंभीरता और ईमानदारी से पूछते हैं-
क्या मातृभूमि के नाम पर ये नयी सीमाएँ
समाज की एक ऐसी जरूरत हैं
जिनके बिना
मानव जी नहीं सकता?....
.... चारों तरफ जंगली घास की तरह
फ़ैल रही हैं देशों की नयी सीमाएँ।
यह शर्म की बात है
विज्ञान के इस युग में
इस जंगली घास को
मानव ख़त्म नहीं कर सका है।
कवि को अपनी मानस सृष्टि का ब्रह्मा ठीक ही कहा गया है। वह गतागत और वर्तमान तीनों में एक ही क्षण में जीते हुए उन्हें अपनी मानस सृष्टि में निबद्ध कर सकता है। इसीलिये कहा जाता है 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। मानवीय आस्था का उपहास सिर्फ 'राष्ट्र' की अवधारणा ने नहीं किया है, धर्म (पंथ, मजहब, रिलीजन) भी बराबरी का भागीदार है इस गुनाह में। आस्था का केंद्र होते हुए भी हर धर्म ने अन्य धर्मों से न केवल असहमति रखी, उनके अनुयायियों का उपहास उड़ाया, कत्लेआम किया। धर्म के चंगुल में फँसकर मनुष्य मानवता ही भूल गया। 'अयमात्मा ब्रह्म', 'शिवोहं', 'अहं ब्रह्मास्मि' कहनेवाला विश्व का सर्वाधिक उदार धर्म भी 'त्वयमात्मा ब्रह्म' या 'सर्वात्मा ब्रह्म' नहीं कहता। कवि हरबिंदर के शब्दों में -
उसने अपनी पहचान को
धर्म के चिह्नों तक
कर सीमित
अपनी स्वयं की पहचान को
कर दिया है खत्म।
'वैश्विक नीड़म्' कहनेवाला देश भी सीमा पर आवाजाही को रोकता सीमा विस्तार के लिए युद्ध करता है। आदमी की पहचान इंसान के नाते न होकर हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई के नाते होती है। कवि कहता है-
कितना अच्छा होता
धार्मिक पहचान के साथ-साथ
वो मानवता को भी
पहचानने की करता कोशिश
और देख सकता
कितनी खूबसूरत है दुनिया।
सीमा सिर्फ देशों के बीच नहीं होती। मनुष्य खुद को नित नयी-नयी सीमाओं में कैद करता रहता है-
विभिन्न वर्गों में बँटा समाज
क्या कभी तोड़ पाएगा ये सीमाएँ?"
सैनिक से अधिक खून की होली और कौन खेल सकता है? कैप्टेन गिल अंतर्मन से अनुभव करते हैं कि अब सरहदों पर खुनी खेल बंद होना चाहिए, माँओं का आँचल खली न हो, पत्नियों की मांगों का सिंदूर न उजड़े। कवि गिल कहता है-
बहुत हो गई
ये खून की होली
कभी देश के प्रसार के लिए
तो कभी
अपने ही देश में
नयी सीमाओं की उत्पत्ति के लिए
*
बहुत हो गई
ये आँखमिचौली
जो मानव
मानवता के साथ
खेल रहा है।
देश के अंदर भी सड़कों पर खून की होली खेलने का चलन दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। कवि इस दरिंदगी को भी समाप्त होते देखना चाहता है-
कहते हैं
जब बरबादी के दिन
भाग्य में लिखे हों
महलों रहनेवाले
सड़कों पर
आ जाया करते हैं
और राज जाते हैं
फुटपाथ, बन बसेरा
*
परंतु मानव भूल रहा है
सड़क कभी भी
मंज़िल नहीं हो सकती
वह तो माध्यम है
ध्येय प्राप्ति का।
आस्था की नीलामी, भाँति-भाँति के विभाजन, संघर्ष और ज़िन्दगियों का समापन, इस सबके बाद भी कवि निराश नहीं है। वह जानता है अमावसी अँधेरे के बाद उजयारी भोर और पूनम की रात भी होती है। कवी बच्चों को भावी विश्व का निर्माता मानते हुए बच्चों के साथ सपनों की दुनिया में नवाशा की किरण देखन चाहता है-
इसलिए क्यों न
सपनों की दुनिया में
जिया जाए
जहाँ बच्चे
देख सकें आशा की किरण।
*
बच्चों! प्यार के गीत गाओ
और मनुष्य से
साथ में गाने के लिए कहो
मानवता कोई वस्तु नहीं है
*
'असीम आस्था' अपराजित है। आस्था को केंद्र में रची गयी वे विविध कविताएँ एक लंबी कविता के रूप में भी पठनीय हैं और स्वतंत्र रचनाओं के रूप में भी। हिंदी में लंबी कविता का इतिहास नया नहीं है, भले उसे पारिभाषिक अभिधा मुक्तिबोध की लंबी कविताओं से प्राप्त हुई हो । पुराने कवियों को छोड़ दें, तो लंबी कविता द्विवेदी-युग के कवियों से लेकर समवर्ती युग के कवियों तक ने लिखी है। लंबी कविता का संबंध निश्चय ही केवल आकार से न होकर प्रकार से भी है। महाकवि निराला कृत 'सरोज-स्मृति' के चित्रों को यदि स्मृति का सूत्र गुंफित करता है, तो 'राम की शक्ति-पूजा' कथा के सहारे आगे बढ़ती है । मुक्तिबोध रचित 'ब्रह्मराक्षस' और 'अँधेरे में' दोनों ही फैंटास्टिक कविताएँ हैं, लेकिन एक की फैंटेसी जहाँ एक अखंड रूपक के रूप में है, वहाँ दूसरी की फैंटेसी एक पूरी चित्रशाला है।
आज के युग की जटिलता की अभिव्यक्ति के लिए परंपरागत प्रबंधात्मकता उपयुक्त नहीं है। व्यापक अनुभवों को वृहद फलक पर प्रस्तुत करने के लिए ही लंबी कविता का जन्म हुआ है। समकालीन बोध एवं यथार्थ के प्रति अतिरिक्त रुझान, समाजेतिहासिक स्थितियों की गहरी समझ के परिणामस्वरूप लंबी कविता का जन्म हुआ। लगभग ऐसी ही परिवर्तनकारी सामाजिक स्थितियों के अधीन अंग्रेजी के विख्यात कवि विलियम वर्ड्सवर्थ के समय लंबी कविता प्रभावी रूप से अंग्रेजी साहित्य में उपस्थित हुई। भारत में आधुनिकता के आगमन के साथ स्वार्थबद्ध, जनविरोधी, राजनीतिक प्रदीर्घ नीतियों, कार्यवाहियों के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में अनैतिकता का बोलबाला बढ़ा। इसी से उपजी निराशा, कुंठा, हताशा के बड़े लंबे मानवीय संघर्ष के समानांतर लंबी कविता के उद्भव एवं विकास की पृष्ठ भूमि बनी। बिहार के इंजी। केदारनाथ ने 'प्रेम' को केंद्र में रखकर लंबी कविता लिखी है। कैप्टेन हरबिंदर सिंह गिल ने 'बर्लिन की दीवार' में दीवार के पत्थर तथा 'असीम आस्था में' मानवीय आस्था को केंद्र में रखकर माला के मानकों की तरह छोटी रचनाओं को कथ्य के धागे में पिरोकर लंबी काव्य माल बनाई है।
यह कृति लीक से हटकर रची गयी है। यथार्थ और आदर्श के मध्य झूलती कृति का कथ्य, अमिधा में कही गयी रचनाएँ। सहज-सरल प्रवाहमयी भाषा, प्रचलित बिम्ब-प्रतीकों, स्पष्ट कथ्य तथा मर्म को स्पर्श करने की सामर्थ्य के लिए याद की जाएगी।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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