लघुकथा
खाँसी
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कभी माँ खाँसती, कभी पिता. उसकी नींद टूट जाती, फिर घंटों न आती. सोचता काश, खाँसी बंद हो जाए तो चैन की नींद ले पाए.
पहले माँ, कुछ माह पश्चात पिता चल बसे. मैंने इसकी कल्पना भी न की थी.
अब करवटें बदलते हुए रात बीत जाती है, माँ-पिता के बिना सूनापन असहनीय हो जाता है. जब-तब लगता है अब माँ खाँसी, अब पिता जी खाँसे.
तब खाँसी सुनकर नींद नहीं आती थी, अब नींद नहीं आती है कि सुनाई दे खाँसी.
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८-१-२०१७
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