विमर्श
भारतीय भाषाविज्ञान कल और आज
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संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाएँ भिन्न कालों की भाषाएँ हैं। एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। संस्कृत और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं के अन्तर को भी मैंने अपनी पुस्तक में व्याख्यायित एवं विवेचित किया है। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है। भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। मैंने अपने एक लेख में प्रतिपादित किया कि भाषा नदी की धारा की तरह होती है। इस पर कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। मेरा उत्तर है- नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं।
‘शब्दावली’ गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स' देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
मेरे लेख को पढ़ने के बाद कुछ विद्वानों ने मुझे संस्कृत की व्याकरण परम्परा के महत्व से परिचित कराना चाहा। मैं उन विद्वानों से यह निवेदन करना चाहता हूँ कि मैं संस्कृत के महान वैयाकरणों एवं निरुक्तकारों के योगदान से परिचित हूँ। यही नहीं प्रातिशाख्यों तथा शिक्षा-ग्रंथों में भाषाविज्ञान और विशेष रूप से ध्वनि विज्ञान से सम्बंधित कितना सूक्ष्मदर्शी और गहन विचार सन्निहित है, उससे भी अवगत हूँ। भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बड़ी समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित हैं।
पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के 10 आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेद रहे होंगे। पाणिनी ने भारत के उदीच्य भाग के गुरुकुलों में बोली जानेवाली भाषा को आधार बनाया। पाणिनी के व्याकरण का महत्व सर्वविदित है। उस सम्बंध में लिखना अनावश्यक है। पाणिनी के व्याकरण की विशिष्टता को अनेक विद्वानों ने रेखांकित किया है। मैं प्रसंग को ध्यान में रखकर, अमेरिका के प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक बेंजामिन ली व्होर्फ के अभिमत को उद्धृत कर रहा हूँ - ‘यद्यपि भाषाविज्ञान बहुत प्राचीन है तथापि इसका आधुनिक प्रयोगात्मक रूप, जो अलिखित बोलचाल की भाषा के विश्लेषण पर जोर देता है, सर्वथा आधुनिक है। जहाँ तक हमें ज्ञात है, ईसा से कई शताब्दी पूर्व, पाणिनी ने इस विज्ञान का शिलान्यास किया था। पाणिनी ने उस युग में, वह ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जो हमें आज उपलब्ध है। संस्कृत भाषा को नियमबद्ध करने के लिए पाणिनी के सूत्र बीजगणित के जटिल सूत्रों की भाँति हैं´।
मैं अवगत हूँ कि प्रत्याहार, गणपाठ, विकरण, अनुबंध आदि की विपुल तकनीक से अलंकृत पाणिनीय सूत्र उनकी अद्वितीय प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं। मुझे संस्कृत भाषा के व्यवहार एवं प्रसार की थोड़ी बहुत जानकारी भी है। उत्तर-वैदिक काल में संस्कृत भारत की सभी दिशाओं में चारों ओर फैलती गई। संस्कृत का यह प्रसार केवल भौगोलिक दिशाओं में ही नहीं हो रहा था; सामाजिक स्तर पर मानक संस्कृत से भिन्न अनेक आर्य एवं अनार्य भाषाओं के बोलने वाले समुदायों में भी हो रहा था। (Burrow. T.: The Sanskrit Language, P. 63, Faber & Faber, London).।
संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण दो बातें घटित हुईं -
1. संस्कृत ने अपने प्रसार के कारण भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को प्रभावित किया।
2. संस्कृत भाषा स्वयं भी भारत में अन्य भाषा-परिवारों की भाषाओं से तथा संस्कृत युग में भारतीय आर्य परिवार की संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं से प्रभावित हुई। हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि संस्कृत काल में अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं का व्वहार होता था। इसको विस्तार से जानने के लिए निम्न लिंक पर जाकर अध्ययन किया जा सकता है।
संस्कृत के प्रभाव से तो संस्कृत के विद्वान परिचित हैं मगर संस्कृत पर संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं के प्रभाव से शायद परिचित नहीं हैं अथवा इस पक्ष को अनदेखा कर जाते हैं। मैंने इन दोनों पक्षों पर अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है। यह भी विवेचित किया है कि पाणिनी के बाद के संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त किन धातुओं का (शब्दों का नहीं) प्रयोग हुआ है जिनका उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में नहीं हुआ है। मेरी पुस्तक का शीर्षक है- ‘भारत की भाषाएँ एवं भाषिक एकता तथा हिन्दी´ जो प्रकाशनाधीन है।
संस्कृत के प्रभाव से हम सभी सुपरिचित हैं। इस दिशा में प्रचुर कार्य सम्पन्न हुए हैं। शब्दावली के स्तर पर संस्कृत की शब्दावली ने सभी भारतीय भाषाओं को प्रभावित किया है जिसे तत्सम शब्दावली के नाम के पुकारा जाता है। मध्यकालीन साहित्यिक तमिल की ‘मणिप्रवालम शैली’ से भारतीय भाषाओं पर संस्कृत के व्यापक प्रभाव की बात सिद्ध होती है।
मैं संस्कृत के महत्व के बारे में थोड़ा सा ज्ञान रखता हूँ मगर जो शब्द लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनके लिए संस्कृत की शब्द रचना का सहारा लेकर नए शब्द गढ़ने के खिलाफ हूँ। मेरा भाषाविज्ञान का ज्ञान तथा लोक-व्यवहार का विवेक मुझे ऐसा करने वालों का समर्थन करने से रोकता है। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है। भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है।
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