प्रिय महक जी
आपकी शेष शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर रहा हूं।
आशा है आप इन पर भी अपने विचारों को पुष्ट कर पाएंगे।।
आपकी अगली शंका है कि मनुस्मृति में मांस भक्षण निशिद्ध है 5,51 मगर फिर भी प्रतिदिन मांस भक्षण करने वालों के लिये अनुचित नहीं कहा गया है 5,30 ।।
इस विषय में भी आपकी शंका अन्य श्लोकों को ध्यान से न पढने के कारण ही है।
अगर आप इसी अध्याय का 29वां श्लोक भी देखते तो आपकी ये शंका स्वयं ही समाधित हो जाती।।
श्लोक का भावार्थ नीचे दे रहा हूं।।
चरणामन्नमचरा,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, भीरव:।।
चर जीवों (गाय, भैंस आदि) के लिये अचर (पेड, पौधे) , बडे दांत (सिंह, व्याघ्र आदि) वालों के लिये छोटे दांत वाले (हिरण आदि), हांथ वाले जीवों के लिये बिना हांथ वाले जीवों तथा साहसी जीवों के लिये कायर जीवों को भोजन के रूप में बनाया जाता है।
इस श्लोक में कदाचित हांथ वाले जीवों को आप मनुष्य भी समझ लें तो यह उन जंगली मनुष्यों के लिये कहा गया है जो प्रारम्भ से ही पशुओं का सा ही जीवन बिता रहे हैं तथा जिन्हे ये तक नहीं पता कि मनुष्य जाति क्या होती है अपितु जो स्वयं को अन्य जंगली पशुओं की भांति ही समझते हैं । आप आज भी इस तरह के लोगों का उदाहरण देख सकते हैं, अत: श्लोक संख्या 30 में इन्ही लोगो के लिये ये विधान किया गया है जो नित्य मांस खाने वाले हैं उन्हे पाप नहीं लगता।
यहां आप ध्यान दें तो ये उचित ही प्रतीत होता है, भला जो व्यक्ति भक्ष्य अभक्ष्य तो क्या स्वयं अपने ही बारे में न जानता हो उसके लिये पाप क्या और पुण्य क्या।
श्लोक संख्या 27 जहां आप की शंका है कि ब्राह्मण को मांस प्रोक्षण विधि द्वारा ही खिलाया जाए।।
इस शंका का समाधान स्वयं ही हो जाता अगर आप मांस शब्द के अन्य अर्थों पर भी ध्यान देते।
मांस का अर्थ द्विधा है- पहला किसी भी प्राणि का मांस, दूसरा गूदेदार फल (अमरकोष,निरूक्त तथा आप्टे कोश के अनुशार )
अब इस अर्थ को जान लेने के पश्चात मुझे नहीं लगता कि आपकी ये शंका बची होगी।
वस्तुत: संस्कृत शब्दों के पुरातन प्रयोग अगर आज उसी रूप में भी रखे जाते हैं तो भी शब्दार्थ का एकधा ज्ञान होने के कारण ही ब्यक्ति शंकित हो जाता है।
कुछ बहुप्रचलित उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जिनका आप लोक में भी बहुधा प्रयोग देखते होंगे पर आज उनका सामान्य रूप से प्रयोग किये जाने पर दुर्घटनाएं जन्म ले सकती हैं।
1-सैन्धव शब्द का दो अर्थ क्रमश: घोडा तथा नमक होता है।
कोई ब्यक्ति भोजन पर बैठा है और सैन्धवमानय यह आदेश देता है तो वहां अगर हम नमक के बदले घोडा ले जाएं तो द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।
2-गायत्रीमंत्र में प्रयुक्त शब्द प्रचोदयात
प्रचोदयात शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक चुद् धातु से बना है जिसका अर्थ प्रेरित करना होता है। इसके रूप पठ के सदृश ही चलते हैं।
अब आज आप अगर इस धातु का प्रयोग (त्वं पठितुं स्व बालिकां चुदसि- तुम पढने के लिये अपनी बालिका या पुत्री को प्ररित करते हो) आप लोक में कर दें तो आप पर लाठियां भी बरस सकती हैं।
3-अभिज्ञान शाकुन्तल के चतुर्थ अध्याय में प्रयुक्त शब्द (चूतशाखावलम्बिता)
चूत का अर्थ आम या आम के पेड से है मगर आज आप इनका प्रयोग जनसामान्य में कर दीजिये तो जाने क्या गजब हो जाए।
ऐसे ही कई और शब्द हैं जिनका प्रयोग आज अप्रासंगिक है पर पहले जो काव्य की शोभा या लालित्य बढाने के लिये प्रयुक्त होते थे, और क्यूंकि तब संस्कृत जनभाषा थी अत: लोग इनका उचित अर्थ ही ग्रहण करते थे जो आज नहीं है , अब आप ही बताइये इसमें किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकार की क्या गलती।
आज के परिवेश में आप प्यार शब्द का खूब प्रयोग करते हैं , पर जिस तरह से प्यार में विकृतियां आती जा रही है निश्चित ही भविष्य में इसका प्रयोग भी गाली मान लिया जाएगा तो क्या आज के सारे लेखक रचनाकार गलत हो जाएंगे और उनकी रचनाओं का भी कामुक अर्थ ही लगा लेना उचित होगा।।
इसी तरह मैं आपको पशु शब्द का भी अर्थ बता दूं तो शायद आपकी अग्रिम शंका का समाधान हो जाए।।
पशु की व्युत्पत्ति पोषयति, पोषणं ददाति इति पशु: अर्थात जो पोषण करता हो वह पशु है।
पशु के अर्थों में प्राय: अन्न (नृणां ब्रीहिमय: पशु:), इन्द्रियां, आदि पशु हैं, इसी क्रम में देवों को भी पशु कहा गया है, वायु: पशुरासीत् तेनायजन्त,सूर्य: पशुरासीत् तेनायजन्त, अग्नि- पशुरासीत् तं देवा अलभन्त।।
पुरूष सूक्त में विराट पुरूष को पशु कहा गया है, अबध्नन् पुरूषं पशुं।।
इस तरह अगर उपरोक्त स्थानों पर पशु के ये अर्थ प्रयोग किये जाएं तो अर्थ उचित आ जाएगा।
यहां आप प्रश्न कर सकते हैं कि उन श्लोकों के व्याख्याकारों ने तो यही व्याख्या लिखी है तो मैं केवल एक बात ही कहना चाहूंगा , वस्तुत: 10वीं शती से 19वीं शदी तक भारत द्वन्द्वों से जूझता रहा और संस्कृत का अध्ययन धीरे धीरे समाप्त सा होता रहा। समाज में केवल भावार्थ और उसमें भी जो ज्ञात है उसी को लिखने की परम्परा चल पडी , किसी ने अमरकोष, निरूक्त या निघण्टु आदि शब्दकोषों को देखने तक की हिम्मत न जुटाई क्यूंकि तब अपने जीवन काल में भी कोई एक व्यक्ति 2 या 4 ग्रन्थों से अधिक का भावार्थ न दे पाता। इस तरह जिसने जो पाया वही लिख दिया, रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी की जो वेदादि के कुप्रचार हेतु ही अध्ययन करते थे।
शोध की परम्परा भी यही कुछ रही थी कि व्यक्ति पहले की लिखी पुस्तकों से अपने काम भर का संकलन कर के अपना ग्रन्थ तैयार कर लेता था।
ये तो आचार्य श्री सातवलेकर आदि के सदृश विद्वानों का अथक परिश्रम ही है जो आज भी वेदों को दूषित होने से बचा रहा है अन्यथा वेदादि ग्रन्थों के कुप्रचार में किसी ने कोई कसर नहीं रखी थी।
पितरों के श्राद्ध में मांस सर्वथा वर्जित था (हेमियं च मांसवर्जनं- एतरेय ब्राह्मण), (आह्वनीय मांस प्रतिषेध:-आश्वलायन सूत्र)
इस तरह से 3सरे अध्याय में जो भी दिया गया है वो सांकेतिक मात्र है, उससे किसी भी मांस का कोई तात्पर्य नहीं है। इन सभी की एकाधिक शब्दार्थ भिन्नता तथा व्यंजना प्रयोग के कारण ही इन शब्दों का प्रयोग है।
जैसे यज्ञों में मांस सर्वथा वर्जित है तथापि पशु, लोम, अस्थि, मज्जा, मेध, आलभन आदि द्वयार्थक शब्दों के प्रयोग इन्हें भ्रामक बनाते रहे हैं तथा इनका लोक में प्रचलित शब्दार्थ ही ग्रहण करने के कारण इनका कुप्रचार हुआ है।।
इन सब शब्दों का भ्रामक प्रयोग और सम्यक प्रयोग इसके पहले के लेख में भी सम्पादित किया जा चुका है अत: यहां पुनरूक्ति करने की आवश्यकता नहीं अनुभूत है।
परलोक के बारे में आपका भ्रम
वस्तुत: विभिन्न ग्रन्थों तथा विभिन्न धर्मो ने इसकी व्याख्या अपन अनुयाइयों की आत्मतुष्टि के लिये ही की है। चार्वाक दर्शन तो इन सब बातों को मानता ही नहीं है, उसका तो कहना ही है यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् तो अगर सम्पूर्ण विश्व चार्वाक दर्शन की बात मानकर केवल ऋण पर ही गुजारा करने लगे तो कौन सा दृष्य उत्पन्न होगा आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं। अत: आप इस विषय पर वेदों को सत्य मान सकते हैं क्योंकि इस तरह से कम से कम आप बुरे कर्म करने से तो डरेंगे।
यहां आप ये भी तर्क दे सकते हैं कि इस बारे में कुरान की ही बात क्यूं न मान ली जाए कि कयामत के दिन ही खुदा सब के दण्ड का निर्धारण करेगा तो मैं तो कहूंगा कि बात घुमा फिरा के वहीं पर आती है, भला कयामत का दिन क्या हो सकता है मौत के सिवाय, तो वेद भी तो यही कहता है कि मरने के बाद भी यहां के किये कर्मो का फल मिलता ही है।
रही स्वर्ग नरक की बात तो इस्लाम में भी दोजख और जन्नत कहा है, इसाइयों ने भी हैवेन और हेल कहा है, मतलब ये कि अगर मृत्यु के बाद स्वर्ग और नर्क की मान्यता किसी धर्म में न हो तो इससे सम्बन्धित शब्द ही क्यूं गढे जाएंगे अर्थात् सारे धर्म एक ही बात को अलग अलग तरीके से कहते हैं पर मानते सभी एक ही बात को हैं।
रही बात कर्मों के फल के द्वारा उत्पत्ति की तो इसे भी सामाजिक व्यवस्था को सुद्ढ करने का एक साधन ही कह लीजिये , पर हां जहां धर्मग्रन्थों की बात चले वहां विज्ञान को बीच में न लाएं तो ही उचित है। क्यूंकि प्राय: पाश्चात्य विज्ञानियों ने जितने भी तथ्य सम्पादित किये हैं सृष्टि से सम्बन्धित, वो सब उन्होने हिन्दू धर्मग्रन्थों से ही चुराए हैं , फर्क बस इतना है कि उन्होने अपनी तरफ से थोडा सा तोड मरोड भी कर दिया है और विडम्बना ये कि हम अपन ग्रन्थों के ज्ञान से खुद ही अपरिचित हैं । डार्विन का प्रशिद्ध सिद्धान्त भी विष्णु पुराण, महाभारत तथा कुछ अन्य वैदिक व लौकिक साहित्यों से चुराया हुआ है। संयोग वशात् मेरा ये संकलन कहीं खो गया है तथा अभी वेदों पर ही शोध में प्रवित्त होने के कारण मै इनका फिलहाल तो फिर से संकलन नहीं कर पाउंगा पर ये दावा है कि यथासम्भव मैं इनकी वास्तविकता से आपको अवगत कराउंगा।
इस जीवोत्पत्ति के सिद्धान्त तथा कर्मो के फल के विषय में चर्चा इतनी आसान व छोटी नहीं है कि मै इसका सम्पूर्ण विवरण आपको मेल के द्वारा ही दे पाउं अत: फिलहाल तो आप इसको केवल जनमानस को अच्छे कार्यो में प्रवित्त करने व बुरे कार्यो से हटने के लिये प्रतिपादित किया गया एक नियम ही मान सकते हैं।
वृहदारण्यक के विषय में भ्रान्ति निवारण-
वृहदारण्यक के मन्त्र का गलत अर्थ आज के युग में लगाया ही जा सकता है, हमने पिछले लेख में इस बात का उल्लेख भी किया था कि समय के अनुसार ही ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं तथा अगर अन्य समय में उन्ही शब्दों का अर्थ या भाव प्रयोग किया जाए तो अनर्थ के अलावा शायद कोई हल नहीं निकलता।
वैदिक काल में स्त्री के साथ सम्बन्ध भोग के लिये नहीं अपितु योग की तरह से मात्र पित्रृ ऋण चुकाने के लिये ही किया जाता था, इस बात से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि स्त्री के साथ संभोग मात्र पुत्र उत्पादन तक ही सीमित था, पर हां पुत्रोत्पादन के लिये स्त्री के साथ संभोग अनिवार्य था। अत: उक्त मन्त्र में इस तरह की बातें की गयी हैं। इनका तात्पर्य सिर्फ ये है कि विवाह के पश्चात् यदि पत्नी किसी अन्य की इच्छा या पति के प्रति अरूचि के कारण कभी भी उसके साथ संभोग न करना चाहे तो ऐसे में उक्त प्रकार्यों का प्रयोग उचित था। इसी अध्याय के प्रथम व द्वितीय मन्त्र में स्त्री को यज्ञ की तरह पवित्र भी कहा गया है , अब आप खुद ही सोंच सकते हैं कि यज्ञ की उपमा पाने वाली स्त्री के साथ उक्त विधान क्यूं किया गया था।
गर्भाधान हेतु प्रयुक्त मन्त्रों के विषय में भी आपकी शंका केवल गलत या भ्रामक अध्ययन के कारण ही हुई है।
जिन मंन्त्रों को आप गलत अर्थ वाला मान रहे हैं उनका क्रमश: शब्दार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं।
सूक्त 184
1-विष्णुर्योनिं ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, दधातु ते।
विष्णुदेव नारी या प्रकृति को गर्भाधान की क्षमता से युक्त करें, त्वष्टादेव उसके विभिन्न अवयवों का निर्माण करें, प्रजापति सेचन की प्रक्रिया में सहायक हों, तथा धाता गर्भधारण में सहायक हों।।
2-गर्भ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, पुष्करस्रजा।।
हे सिनीवालि । आप गर्भ को संरक्षण प्रदान करें, हे सरस्वति देवि, आप गर्भ धारण मे सहायक हों, हे स्त्री, स्वर्णिम कमल के आभूषण के धारणकर्ता अश्विनी कुमार आप में गर्भ को स्थिर करें।।
क्रमश:
इन उपरोक्त मंत्रों में मुझे तो एसा कुछ भी नहीं मिला जिससे आजकी स्त्री लज्जा के मारे मर जाए।।
आज जबकि खुलेआम कण्डोम, वियाग्रा आदि का खुला प्रचार ही नहीं अपितु चौराहों पर लगभग वस्त्रविहीन पोस्टर्स देखकर भी स्त्रियां शर्म से नहीं मरती तो इन मन्त्रों मे तो केवल मंगलकामनाएं ही की गई हैं तो बुरा क्या है।
फिर आपने जो सबके पैर छूने की बात की है तो ये बात तो आज भी सभ्य घरों की पहचान रूप में है। शहरों में तो नहीं कह सकता पर गांवों में आज भी ये परम्परा है कि शादी के तुरन्त बाद केवल स्त्री ही नहीं अपितु पुरूष भी अपने सभी ज्येष्ठों के चरण स्पर्श करता हैं। इन्हीं कुछ पवित्र परम्पराओं के कारण तो भारत विश्ववन्द्य था और आज भी है, फिर इन परम्पराओं में तो कोई दोष नहीं दिखता।
एक बात और ये सारे प्रक्रम किसी के रूग्ण होने पर नहीं करवाये जाते थे, ये तभी चरितार्थ होते थे या हैं जब कि पुरूष या स्त्री स्वस्थ हो अन्यथा इसे अगले अन्य दिनों के लिये टाल दिया जाता।।
आशा है आपकी भ्रान्तियां समाप्त हुई होंगी। अगर श्रद्धा रखेंगे तो भविष्य में कोई भी अन्य शंका उत्पन्न भी नहीं होगी। और फिर कभी कभी विषयानुरूप कुछ अनुचित कार्य भी उचित होते हैं, वेदादि ग्रन्थों ने झूठ बोलना भी निशिद्ध किया है पर वहीं यह भी आदेश है कि किसी के प्राण बचाने के लिये झूठ बोलें तो भी पाप नहीं लगता । अब अगर हम श्रद्धा से इन्हें स्वीकारें तो कोई भी दुविधा उत्पन्न नहीं होती पर अगर हम तर्क का प्रयोग करने लग जाएं तो इसे भी हम अनुचित ठहरा सकते हैं पर हमारी इन शंकाओं को कोई मत्त ही उचित ठहरायेगा।
एक लौकिक उदाहरण से समझाता हूं
आप के 2 साल के बच्चे ने आप से पूंछा - पिता जी मैं कैसे पैदा हुआ, आप क्या उत्तर देंगे।
क्या आप सच बताने का साहस करेंगे,
आपका पुत्र आपसे इस बात पर नाराज है कि आप उसे अपनी शादी में नहीं ले गये थे,
अब आप क्या कह कर उसे समझाएंगे।।
इन सब बातों से आप की शंकाओं का पूर्ण समाधान हो ही जाना चाहिये, एसा मै मानता हूं।
अन्त में एक ही बात कहूंगा- वेद सनातन धर्म के प्राण हैं, अत: इनपर कभी शंका न करें, जैसे कि कोई भी पिता पूरे निश्चय से अपन पुत्र को अपना नहीं कह सकता फिर भी अपनी पत्नी के विश्वास के आधार पर ही कहता है, ठीक उसी प्रकार हर बात में तर्क के आधार का प्रयोग ही उचित नहीं होता है, हमें अपनी श्रद्धा का प्रयोग भी करना पडता है।
वेद भगवान को प्रणाम करते हुए अपनी बात को समाप्त करता हूं।
सत्य सनातन धर्म की जय
जय हिन्द
--
ANAND
डार्विन का प्रशिद्ध सिद्धान्त भी विष्णु पुराण, महाभारत तथा कुछ अन्य वैदिक व लौकिक साहित्यों से चुराया हुआ है। ---sahee hai.
---बहुत ही सार्थक ढन्ग से अर्थ-द्रष्टि दी गई है, पुनः पुनः बधाई.
कल्किओन हिन्दी---www.kalkion.com पर एवम मेरे ब्लोग-- http://vijaanaati-vijaanaati-science.blogspot.com पर "श्रिष्टि व जीवन" श्रन्खला मे विग्यान व वेदिक विग्यान में निहित तथ्यों को द्रष्टिगत करें.