हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है और रहेगी ये बात स्वतंत्रता से पहले ही स्पष्ट कर दी गयी थी . उस समय सबसे पहले राष्ट्र पिता ने इस बात को अपने शब्दों में स्पष्ट किया था -
"हिन्दुस्तानी हमारी राष्ट्रभाषा है या होगी, ऐसे घोषणाएँ यदि हमने सच्चाई के साथ की है तो फिर हिन्दुस्तानी की पढ़ाई अनिवार्य करने में कोई बुराई नहीं है. इंग्लैण्ड के स्कूलों में लैटिन सीखना अनिवार्य था और शायद अब भी है. उसके अध्ययन से अंग्रेजी के अध्ययन में कोई बाधा नहीं पड़ी. उलटे, इस सुसंस्कृत भाषा के ज्ञान से अंग्रेजी समृद्ध ही हुई है/ 'मातृभाषा खतरे में है' ऐसा जो शोर मचाया जाता है, वह या तो अज्ञानवश मचाया जाता है या फिर यह देखकर की वे बच्चों द्वारा हिनुस्तानी सीखने के लिए रोज एक घंटा दिया जाना भी पसंद नहीं करते, हमें तरस आता है. अगर हमें अखिल भारतीय राष्ट्रीयता प्राप्त करनी है तो हमें इस प्रांतीयता की दीवार को तोड़ना ही होगा. सवाल यह है की हिंदुस्तान एक देश और एक राष्ट्र है या अनेक देशों और राष्ट्रों का समूह है? "
गाँधी जी का ये वक्तव्य हरिजन में १०/९/१०३९ में प्रकाशित हुआ था.
हिंदी को राजभाषा संविधान में भी मना गया है फिर हम उसको स्वतंत्रता के इतने वर्षों तक ये दर्जा क्यों नहीं दे पाए हैं? इसमें हमारे अन्दर स्वयं कमी व्याप्त है क्योंकि इसकी महत्ता को सरकार चलने वाले नहीं समझ पाए बल्कि एक चर्चा में मैंने सुना की 'भारत में एक रास्त्रभाषा तो हो ही नहीं सकती.' आखिर क्यों? क्या भारत एक राष्ट्र नहीं है ? गाँधी जी के उपरोक्त विचारों को नजरअंदाज क्यों किया गया? राष्ट्र पिता के वचनों का तिरस्कार क्या उनका अपमान नहीं है? क्या अंग्रेजी हमारी भाषा है? नहीं हमारा देश ग्राम प्रधान है और उनकी बोली ही इस देश के लिए सर्वोपरि है. सबसे अधिक इस देश में हिंदी बोलने और समझने वाले हैं. अब तो हम किसी के अधीन नहीं है. स्वतन्त्र भारत की शिक्षा प्रणाली को क्यों नहीं इसी के आधार पर बनाया गया? क्या हम इस अंग्रेजी की मानसिक दासता से मुक्त नहीं होना चाहते हैं. अभी भी देर नहीं हुई है, जब जागो तभी सवेरा. जरूरत इस बात की है की बुनियादी शिक्षा में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए सम्पूर्ण देश में. आज भी संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सभी दक्षिण प्रदेशों में विद्यमान है. इससे सभी देश में कभी भी और कहीं भी जाकर काम करने में या फिर एक दूसरे से मेलजोल में कभी भी कठिनाई नहीं होगी. सरकारी सेवायों के लिए इसका ज्ञान अत्यंत अनिवार्य होना चाहिए. भले ही काम हम प्रांतीय भाषा में करें फिर भी राजभाषा का प्रयोग अनिवार्य है.
इस दिशा में हमारी सरकार की उदासीनता सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है. इस दिशा में सिर्फ हिंदी सप्ताह या पखवारा और दिवस मनाने से दस्तावेजों में हम पूर्ति कर लेते हैं , क्या हमें अपनी माँ को याद करने के लिए एक दिन निश्चित करना होगा. आँखें खोलते ही जिसमें हमने माँ से बेटा सुना वही अब साल में एक दिन याद की जाएगी. इस प्रसंग में शर्मिंदा करने वाला सरकारी रवैया के एक नमूना पेश है.
कुछ साल पहले की बात है, आई आई टी कानपुर में मशीन अनुवाद के लिए फंड मंत्रालय से मिलना था और इसके लिए हिंदी के आधार पर काम करने की संस्तुति प्रस्तुत की गयी थी. उस समय सम्बद्ध मन्त्रालय के केन्द्रीय मंत्री दक्षिण भारत से थे. उनका कहना था - "फॉर हिंदी नो वे, इफ यू वर्क इन साउथ इंडियन लंगुअगेस , वी कैन गिव अ फण्ड. " वे इस देश का प्रतिनिधित्व करने वाले इस तरह से बोल सकते हैं तो इस दिशा में कार्य करने वालों को निराशा क्यों नहीं होगी? उनको शर्म भी नहीं आई हिंदी के लिए न करते हुए. वे उस कुर्सी के अधिकारी थे और हमारी वे प्रस्ताव वही रह गए.
अब राजभाषा के लिए मुहिम चलेगी और हर रोज चलेगी किसी दिवस की मुहताज हुए बगैर. आप सभी से भी ये गुजारिश है की आप इस मुहिम में साथ रहें.
जय हिंदी , जय मातृभाषा , जय मातृभूमि
माफ कीजिए मातृभाषा वह होती है जो बच्चे को अपने जन्म के समय मिलती है। यानी कि उसके परिवेश की भाषा। इसमें कोई संदेह नहीं है भारत में रहने वाले करोड़ों लोगों की मातृभाषा हिन्दी ही होगी। पर तमाम और भाषाएं जो भारत में बोली जाती हैं,वे हममें से बहुत सों की मातृभाषा होंगी। इसलिए यह बहस बेमानी है।
हिन्दी राजभाषा है,राष्ट्रभाषा नहीं। इस बहस को बिना वजह क्यों बार बार उठाया जाता है। भाषा और क्षेत्रवाद दो अलग अलग मुद्दे हैं उन्हें आपस में मिलाएं न।
मैं पिछले डेढ़ साल से बंगलौर में हूं। मुझे केवल हिन्दी आती है। और टूटीफूटी अंग्रेजी। लेकिन मुझे यहां हर तीसरा व्यक्ति कम से कम पांच भाषाओं का जानकर मिलता है। वह हिन्दी बोलता है,अंग्रेजी बोलता है,कन्नड़ बोलता है,तमिल बोलता है,मलयालम बोलता है। मुझे कई बार अपने आप पर शर्म भी आती है और अफसोस भी होता है कि हिन्दुस्तान में रहकर भी मैं केवल हिन्दी ही सीख पाया। बहरहाल यह कहने में भी मुझे कोई संकोच नहीं कि यहां दक्षिण भारत में रहकर भी मैं हिन्दी के बल पर ही अपनी रोजी रोटी कमा रहा हूं। लेकिन मैं अन्य सभी भाषाओं का उतना ही सम्मान करता हूं जितना हिन्दी का।
राजेश उत्साही जी की बात से सहमत।
"हिन्दुस्तानी हमारी राष्ट्रभाषा है" क्या हम हिंदुस्तानी भाषा बना पाये ।
हिन्दी का ढुखड़ा रोने से कुछ नहीं होगा। दक्षिण भारतियों से सबक लें जो अपनी मातृभाषा के अलावा भी कई भाषाएँ जानते हैं ।
हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए की हम एक बहु भाषा और आचार विचार वाले राज्यों का संघ हैं ।
पूरे लेख में राष्ट्र भाषा की ही बात की गयी है ...बात सिर्फ इतनी है कि क्या हम हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्ज़ा दे पाए ?
समसामयिक लेख ...
राजेश जी , महेश जी,
हिन्दुस्तानी ही आज हिंदी का प्रतीक है. भाषा एक बहता नीर है, जिसमें बहुत सारी चीजें घुलेंगिन, बहुत सारी चीजें मिलेंगे और एक नए स्वरूप का निर्माण करेगी. संविधान एक है और उसमें घोषित भाषा भी एक ही होगी. हम भारतीय हैं और देश के किसी भी कोने में राहें यही काहे जायेंगे फिर हमारी पहचान भी एक ही होगी और हिंदी जिसमें कितनी ही बोलियों का समिश्रण है और कितनी ही भाषायों के शब्द उसमें घुले मिले हुए हैं वही स्वरूप है और इसको पूरे भारत में सबसे अधिक लोग बोलते हैं इस लिए नहीं बल्कि इसको अगर हमने संविधान में स्थान दिया है तो इसको सही जगह पर पहुँचाने का कार्य भी होना चाहिए.
@राजेश जी,
हम जहाँ कार्य करते हैं , वहाँ की भाषा तो सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं, यही दक्षिण में है वहाँ हिंदी भाषी और अस पास के लोग अधिक हैं इसलिए संभाषण के लिए उनको ज्ञान है. ये बात तो हमारे साथ भी है. अगर दूसरे प्रान्त के लोग हैं तो हम उनसे संभाषण के लिए कोई रास्ता निकाल लेते हैं और अपनी बात समझ ही लेतेहैं.