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द्रोपदी के कुछ पत्र.... ( अगीत में ) १. हे धर्मराज! मैं बन्धन थी , समाज व संस्कार के लिए , दिनभर खटती थी ,गृह कार्य में, पति परिवार पुरुष की सेवा में | आज , मैं मुक्त हूँ, बड़ी कंपनी की सेवा में नियुक्त हूँ, स्वेच्छा से दिनरात खटती हूँ; अन्य पुरुषों के मातहत रहकर कंपनी की सेवा में | २. हे भीम! मैं बंधन में थी , परिवार के पारिवारिक शोषण हिंसा शिकार के लिए | आज मैं मुक्त हूँ मदरसों, क्लबों बाजारों, दफ्तरों व- राजनैतिक गलियारों में शोषण हिंसा व बलात्कार के लिए | ३. हे वृहन्नला ! वह दिन रात खटती थी पति/ पुरुष की गुलामी में | आज मैं मुक्त हूँ सिनेमा टीवी आर्टिस्ट हूँ, न दिन देखती हूँ न रात, हाड तोड़ श्रम करती हूँ, अंग प्रदर्शन करती हूँ , पैसे की/ पुरुष की गुलामी में | ४. हे नकुल! वह बंधनों में थी धर्म, संस्कृति सुसंस्कारों की धारक का चोला ओढ कर | अब वह मुक्त है लाज व शर्मो हया के वस्त्रों का चोला छोड़ कर | ५. हे सहदेव ! मैं बंधन में थी संस्कृति संस्कार सुरुचि के परिधान कन्धों पर धारकर आज वह मुक्त है सहर्ष कपडे उतार कर | ६. माँ कुंती ! तुम्हारी बहू बंधन में थी बंटकर, माँ पुत्री बेटी पत्नी के रिश्तों में, आज वह मुक्त है बंटने के लिए किश्तों में | ७. दुर्योधन! ठगे रह रह गए थे तुम , देखकर - 'सारी बीच नारी है कि, नारी बीच सारी है ' ; आज भी सफल नहीं होपाओगे , साड़ी हीन नारी देख, ठगे रह जाओगे | ८. सखा कृष्ण ! द्वापर में एक दुर्योधन था द्रोपदी को बचापाये थे | आज कूचे-कूचे, वन -बाग़ , चौराहे दुर्योधन फैले हैं ' किस किस को साड़ी पहनाओगे | सोचती हूँ, इस बार- अवतारका जन्म लेकर नहीं आना , जन जन के मानस में संस्कार बन कर उतर जाना | -----डा श्याम गुप्त |
सोचती हूँ, इस बार-
अवतारका जन्म लेकर नहीं आना ,
जन जन के मानस में
संस्कार बन कर उतर जाना
एक बेहद कडवी सच्चाई की ओर इशारा कर दिया………………बेहद उम्दा और गहन विश्लेषण किया है।