शिक्षक-स्नातक निर्वाचन कल सम्पन्न हो गया . खबर भी नहीं हुई. कोई इसकी सूचना नहीं मिली. हाँ अख़बार में दो प्रत्याशियों का विज्ञापन तो देखा लेकिन ये नहीं पता था कि ये मतदान होना कब और कहाँ है? अब की बार नए स्नातकों को मतदाता सूची में शामिल करने की कोई भी प्रक्रिया भी पता नहीं चली. क्यों? इस बारे में जानने की कोशिश नहीं की क्योंकि कुछ पता ही नहीं था.
इससे पूर्व किसी न किसी प्रत्याशी को किसी न किसी दल का समर्थन मिला होता था किन्तु अब की बार शायद ऐसा हुआ ही नहीं क्योंकि ये छुटभैये ही प्रत्याशी को वार्ड में बुला कर लोगों का परिचय करवाते रहे हैं और घुमाते रहे हैं. पिछले कई दशकों से एक ही प्रत्याशी जीतता रहा है इसलिए उसने भी सोचा कि हमें किसी की जरूरत ही नहीं है और फिर उनका सोशल नेटवर्क अपनी संस्थाओं की वजह से इतना सघन है कि सभी कर्मचारी अगर उनके पक्ष में मतदान करेंगे तो उनका चुनाव निश्चित है तो फिर क्या जरूरत है कि अन्य लोगों से सहायता ली जाय. लेकिन वे प्रतिनिधित्व तो हमारा भी कर रहे हैं बगैर वोट लिए ही.
क्या ये चुनाव का लोकतांत्रिक स्वरूप है? मतदाता को ये पता नहीं कि वोट कहाँ पड़ रहे हैं और चुनाव तिथि कब है? इससे पहले तो पता चल जाता था . क्या इस दिशा में चुनाव आयोग के द्वारा कोई ऐसी घोषणा नहीं की जानी चाहिए थी. कम से कम अख़बार के संपर्क में तो हर मतदाता रहता ही है और फिर हम दूसरों से क्यों पूछें कि चुनाव कब है? दोष मतदाता की उदासीनता को दिया जाता है. मतदाता उदासीन नहीं है, इसमें उदासीन है हमारा तंत्र. जानकारी के अभाव में मतदाता कहाँ जाएगा? मतदाता नहीं बने, मेरे अपने घर में ९ स्नातक मतदाता है जिनमें से मात्र ५ ही मतदाता सूची में है. शेष के लिए क्या मतदाता खुद ही जाकर अपना मतदाता सूची में नाम जुड़वायेगा . इसकी कोई सूरत नहीं नजर आती है.
स्नातक के लिए कुल १९.८८ प्रतिशत मत पड़े , शायद मेरी बात से समझ आ ही गया होगा. आज का पढ़ा लिखा वर्ग उदासीन नहीं है कम से कम युवा वर्ग तो बिल्कुल ही नहीं . लेकिन राजनीति और सरकार की जो सूरत सामने है उससे तो तटस्थ रहना ही ठीक समझते हैं क्योंकि ये एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है कि हम जिसको समर्थन करते हैं और अगर वह जीत या हार जाता है तो हमें इसमें अपनी ही जीत या हार लगती है वैसे ही अगर वह सरकार या प्रत्याशी आशाओं के अनुरुप नहीं सिद्ध होता है तो इसमें खुद को ही शर्मिंदगी महसूस होती है कि मैंने कैसे प्रत्याशी को अपना मत दिया.
वहीं शिक्षक प्रत्याशी के समर्थन में ७०.०७ मत पड़े. क्योंकि शिक्षक की अपनी एक अलग श्रेणी होती है और अपने सेवाकाल के चलते अपने प्रत्याशी से वे अपने कार्यों में सहायता की आशा करते हैं . उनका विधान परिषद् में एक प्रतिनिधित्व होता है लेकिन स्नातक की कोई अपनी पहचान नहीं है. देश में लाखों स्नातक घूम रहे हैं उनका हित कौन से प्रतिनिधि ने साधा है? वे उदासीन क्यों न हों? वैसे इसका सबसे बड़ा कारण राजनीतिक दलों की उदासीनता के चलते ही न मतदाता सूची में नाम जुड़े और न ही कहीं इस बात की सूचना प्राप्त हुई. हम पढ़े लिखे लोगों से तो वे अनपढ़ अधिक जानकारी रखते हैं , जिनके घर के लोग चुनाव के लिए ड्यूटी पर गए हुए हैं. ऐसे ही एक व्यक्ति से मुझे भी पता चला की चुनाव कल हो चुका है. ऐसे चुनाव का क्या अर्थ जिसमें मतदाता की २० प्रतिशत भी भागीदारी न हो.
sabhya ,sushikshit logon ka rajneeti ke prati udaseen hona bhi iska ek pramukh karan hai.
आपने बिलकुल सही कहा बहुत कम लोगों को इसके बारे में पता चला
dabirnews.blogspot
rkha ji ye padhe likhe logo ka chunaw hota hai. padhe likhe log yani graduate walo ka. jo votar bane the unme se keval 50 fisdi logo ne hi vot diya. samgha ja sakta haii ki desh ke loktantra ka kya hoga.
DEOKI NANDAN MISHRA