जिसकी सेवाए त्याग एवं ममता की छॉंव में पलकर पूरा परिवार विकसित होता है, उसके आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी एवं शोक के वातावरण का व्याप्त हो जाना विडंबनापूर्ण अचरज ही है। कन्या - जन्म के साथ ही उस पर अन्याय एवं अत्याचार का सिलसिला शूरू हो जाता है। अपने जन्म के परिणामों एवं जटिलताओ से अनभिज्ञ उस नन्हीं - सी जान के जन्म से पूर्व या बाद में उपेक्षा , यहॉं तक कि हत्या भी कर दी जाती है।
लोगो में बढती पुत्र- लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री, पुरूष अनुपात आज पूरे देश के समाजशास्त्रियोए, जनसंख्या विशेषज्ञों , योजनाकारो तथा समाजिक चिंतकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। जहॉ एक हजार पुरूषों में इतनी ही मातृशक्ति की आवश्यकता पडती है, वही अब कन्या - भ्रूण हत्या एवं जन्म के बाद बालिकाओं की हत्या ने स्थिति को विकट बना दिया है। आज लोगो में पहले से ही लिंग जानने से भ्रूण हत्या में इजाफा हो रहा है। लोग पता लगा कर कन्या भ्रूण को नष्ट कर देते है। गर्भपात करना बहुत बडा कुकर्म और पाप है। शास्त्र में भी कहा गया है कि गर्भपात अनुचित है, संस्कृति में इस संदर्भ में एक श्लोक है ।
यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातनेए प्रायश्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते श्श्
ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है
आज भी प्रत्येक नगर एवं महानगर में प्रतिदिन भ्रूण हत्या हो रही है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि समाजसेवी संस्था, और वैधानिक प्रावधान भी इस क्रुर पद्धति को रोकने में अक्षम है। किसी जमाने में बालिकाओ को पैदा होते ही मारे जाने और अपशकुन समझे जाने का अभिशाप झेलना पडता था, लेकिन वर्ममान में भी लोगो मे कन्या को जन्म से पहले या जन्म के बाद भी मारने में कोइ भी परिवर्तन नहीं आया है। लोग इस तरह बालिकाओ को जन्म से पहले नष्ट करते रहे तो मनुष्य जाति का विनाश जल्द ही निश्चित है। कन्या भ्रूण हत्या इतने तेजी के साथ हो रहा है कि वर्तमान मे स्त्री - पुरूष अनुपात भी कई राज्यो में भिन्न भिन्न स्थिति में पाये जा रहे है।
आज स्त्रियो का अनुपात दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है जो आगे चलकर मनुष्य जाति के लिए विनाश का कारण बनेगीं। अभी जल्द ही भारत सरकार द्धारा कराये जनगणना 2010- 2011 के अनुसार स्त्री- पुरूष अनुपात का आकडा जो पेश किया गया वो चिन्ता का विषय बना हुआ है। भारत में लिंगानुपात पुरूषो के मुकाबले स्त्रियो का कम है। ये अनुपात कम होने का सबसे बडा कारण बडे पैमाने पर हो रहे कन्या भ्रूण हत्या है ।
भारत में 1000 पुरूषो के मुकाबले महिलाये 933 है, ग्रामीण स्तर पर 946 और नगरीय महिला अनुपात 900 है। ये आकडा तो पूरे भारत का था। राज्यो में स्त्रियो के सबसे अधिक अनुपात वाला राज्य केरल 1058 है। स्त्रियों के सबसे कम अनुपात वाला राज्य हरियाणा 861 है। संघ राज्य क्षेत्रो में सबसे अधिक अनुपात पाण्डिचेरी का 1001 है और सबसे कम दमन और दीव का 710 है।
संघ राज्य क्षेत्रो के जिलो में सबसे अधिक माहे (पाण्डिचेरी) 1147 और सबसे कम दमन का 591 है।
इन आकडो को देख कर हम अनुमान लगा सकते है कि भारत में महिलाओं का अनुपात किस प्रकार घटता जा रहा है।
अगर सरकार जल्द कोई ठोस कदम नहीं उठाती है तो देश में बहुत गहन समस्या उत्पन हो सकती है। कई राज्यों में कन्या के जन्म को लेकर कई भ्रांतिया है जैसे- तमिलनाडु के मदुरै जिले के एक गॉंव में कल्लर जाति के लोग घर में कन्या के जन्म को अभिशाप मानते हैं। इसलिए जन्म के तीन दिन के अन्दर ही उसे एक जहरीले पौधे का दूध पिलाकर या फिर उसके नथुनों में रूई भरकर मार डालते हैं। भारतीय बाल कल्याण परिषद् द्धारा चलाई जा रही संस्था की रिपोर्ट के अनुसार इस समुदाय के लोग नवजात बच्ची को इस तरह मारते है , कि पुलिस भी उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कर पाती ।
जन्म लेते ही कन्या के भेदभाव की यह मानसिकता सिर्फ असभ्य , अशिक्षित एवं पिछडे लोगो की नहीं है, बल्कि कन्या अवमूल्यन का यह प्रदूषण सभ्य, शिक्षित एवं संभ्रांत कहे जाने वाले लोगो में भी सामान्य रूप से पाया जाता है। शहरों के तथाकथित विकसित एवं जागरूकता वाले माहौल में भी इस आदिम बर्बता ने कन्या भ्रूणों की हत्या का रूप ले लिया है। इसे नैतिक पतन की पराकाष्ठा ही कह सकते है कि जीवन रक्षा की शपथ लेने वाले चिकित्सक ही कन्या भ्रूणों के हत्यारे बने बैठे है।
अस्तित्व पर संकट के अतिरिक्त बालिकाओ को पोषणए स्वास्थए शिक्षा आदि हर क्षेत्र में भेदभाव का शिकार होना पडता है।वास्तव में अभिभावकों की संकीर्ण मानसिकता एवं समाज की अंध परंपराएं ही वे मूल कारण हैं जो पुत्र एवं पुत्री में भेद भाव करने हेतू बाध्य करते हैं। हमारे रीति - रिवाजों एवं समाजिक व्यवस्था के कारण भी बेटा और बेटी के प्रति सोच में दरार पैदा हुई है।
अधिकांश माता - पिता समझते है कि बेटा जीवनपर्यंत उनके साथ रहेगा उनका सहारा बनेगा । हलांकि आज के समय में पुत्र को बुढापे का लाठी मानना एक धोखा ही है। लडकियों के विवाह में दहेज की समस्या के कारण भी माता - पिता कन्या जन्म के स्वागत नहीं कर पाते । समाज में वंश - परंपरा का पोषक लडको को ही माना जाता है। ऐसे में पुत्र कामना ने मानव मन को इतनी गहराई तक कुंठीत कर दिया है कि कन्या संतान की कामना या जन्म दोनो अब अनेपेक्षित माना जाने लगा हैं।
भारत सरकार ने एक राष्टीय कार्य योजना बनाई है, जिसका मुख्य उद्देश्य पारिवारिक एवं समाजिक परिवेश में बालिकाओं के प्रति सामानतापूर्ण व्यवहार को बढावा देना है। सरकारी कार्यक्रमों गैर सरकारी संगठनों के प्रयास एवं मीडिया के प्रचार - प्रसार से कुछ हद तक जनमानस में बदलाव अवश्य आया है , परंतु निम्न मध्यम वर्ग एवं गरीब परिवारो में अभी भी लैंगिक भेद भाव जारी है। जहॉं बालिकाओ का जीवन पारिवारिक उपेक्षा , असुविधा एवं प्रोत्साहनरहित वातावरण में व्यतीत होता है। जहॉं उनका शरीर प्रधान होता है, मन नहीं। समर्पण मुख्य होता है, इच्छा नहीं। बंदिश प्रमुख है, स्वतंत्रता नहीं।
बदलते हुए वातावरण के साथ अब ऐसी मान्याताओ से उपर उठना होगा। बालिकाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी। अब तक किये गए शोषण और उपेक्षा के बाद भी जहॉं भी उन्हे मौका मिला है वे सदा अग्रणी रही हैं। इक्कीसवीं सदी नारी वर्चस्व का संदेश लेकर आई हैं।अगर हम अब भी सचेत नहीं हुए तो हमें इसकी कीमत चुकानी पडेगी । अगर हम अपनी सोच नही बदले तो फिर भविष्य में हमें राष्ट्पति प्रतिभा पाटिल , लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार और मायावती जैसी सफल महिला हस्तियों से वंचित होना पडेगा। इस लिए समाज में फैले कन्या भ्रूण हत्या जैसे पाप को रोकने के लिए जल्द से जल्द सफल प्रयास करना चाहिए ।
आपके जो भी लेख हमने पढ़े वे विचारणीय होते हैं. अच्छी पोस्ट के लिए बधाई.
सत्य बचन---सुन्दर आलेख ..बधाई....
शिव शंकर बहुत ही उम्दा लेख लिखा है आपने , काश आपकी ही तरह हर युवा सोच सकता तो हमारे देश से ये विकृति मिट जाती । आपने एक सार्थक लेख लिखा है । एक लाजवाब लेख हमारे सामने प्रस्तुत करने के लिए आभार आपका ।