नारी यदि संस्कृति संरक्षण करें तो सांस्कृतिक परिदृश्य में सुखद परिवर्तन निश्चित है । वैसे भी संस्कृति का नारी.के साथ प्रगाढ रिश्ता हैं। नारी के संस्कार, शील व लज्जा से किसी भी देश की सांस्कृतिक पवित्रता बढ़ती है , लेकिन यदि इसके विपरीत होने लगे , नारी का शील उघड़ने लगे , लज्जा वसन छूटने और लुटने लंगे तो सांस्कृतिक प्रदुषण बढ़ता है । इसके कारणो की कई तरह की पड़ताल होती रहती है । इस संबंध में अनेको प्रयास होते रहते हैं , लेकिन मूल बात जो चिंतनीय है , उस पर कम ही लोग चिंतन कर पाते हैं । इस चिंतन का निष्कर्ष यही है कि नारी को स्वयं ही इस स्थिति को सवाँरने के लिए आगे आना होगा । उसे खुद ही आगे बढ़कर यह घोषणा करनी होगी कि उसका शील और संस्कार बिकाऊ नहीं है , फिर विज्ञापन दाता इसकी कितनी ऊँची बोली क्यों न लगाएं ! इसी तरह उसे अपने में ऐसे साहस का संचार करना होगा , जिससे कोई दुष्ट-दुराचारी ऊसकी लज्जा लूटने की हिम्मत ना कर सकें । न्युज चैनल हो या अखबार, अनर्गल विज्ञापनों और नग्न चित्रों से पटे हैं। तेल, साबुन, कपड़ा सभी जगह यही नग्नता। हमारे यहाँ की प्रगतिवादी महिलाएं बस एक ही चिज की माँग करती हैं वह है आजादी, समान अधिकार। मैं भी इनके पक्ष में हूँ लेकिन जहाँ तक मुझे लगता है कि इन सब के पिछे ये महिलाएं कुछ चिजो को भुल जा रहीं है। इन्हे ये नहीं दिखता की आजादी को खुलापन कहकर किस प्रकार से इनका प्रयोग किया जा रहा है। चुनाव प्रचार हो या शादी का पंड़ाल छोट-छोटे कपड़ो में महिलाओं को स्टेज पर नचाया जा रहा है।
पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अन्धानुकरण के कारण अपनी मौलिक संस्कृति को लोग नजरंदाज करने लगे हैं। भारतीय जन मानस इसी कारण अलग प्रकार के सोच में ढ़लने लगा है। परिणामत: संस्कृति के प्राण तत्त्व त्याग, बलिदान, सदाचार, परस्परता और श्रमशीलता के स्थान पर पनपने लगी हैं-उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता, आलसीपन और स्वार्थपरता जैसी प्रवृत्तियां। नई पीढ़ी इनके दुष्प्रभावों के व्यामोह में अपने को लुटाने और बरबाद करने में लग गई है।क्लबों, होटलों, बारों आदि में शराब और विलासिता में लिप्त अपने दायित्व से बेभान यह युवा पीढ़ी देश को कहां ले जायेगी, यह सोच कर ही भय लगता है।
आधुनिकीकरण के दुष्प्रभावों से भारतीय नारी भी बच नहीं पाई है। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की उदात्त संस्कृति में पली यह नारी अपने को मात्र सौन्दर्य और प्रदर्शन की वस्तु समझने लगी है। दीवारों पर लगे पोस्टरों और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर मुद्रित नारी-शरीर के कामुक चित्र नारीत्व की गरिमा को जिस प्रकार नष्ट कर रहे हैं वह नारी वर्ग के लिये अपमान की बात है,यहाँ जिम्मेदार यह वर्ग खूद ही है । कोमलता, शील, ममता, दया और करूणा संजोने वाली यह नारी अपनी प्रकृति और अपने उज्जवल इतिहास को भूल कर भ्रूण-हत्या, व्यसनग्रस्तता, अपराध और चरित्रहीनता के भोंडे प्रदर्शन द्वारा अपनी जननी और धारिणी की छवि को धूमिल कर रही है। यह समझ लेने की बात है कि यदि नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी क्योंकि नारी में ही सृष्टि के बीज निहित हैं।
महात्मा गांधी नारी से बहुत अधिक प्रभावित थे। महात्मागांधी के अनुसार नारी त्याग की मूर्ति है। जो कोई कार्य सही और शुद्ध भावना से करती है। तो पहाडों को भी हिला देती है नारी की धार्मिक प्रवृति को देखकर महात्मा गांधी को कहना पड़ा था कि जीवन में जो कुछ पवित्र और धार्मिक है स्त्रियां उसकी विशेष संरक्षिकाएं है। नारी की नैतिकता के संबंध में बापू ने कहा है कि यदि बल से अभिप्राय पशुबल से है तो निश्चय निश्चयही पशुबल में नारी कम शक्तिशाली है यदि शक्ति से अभिप्राय नैतिक बल से है तो नारी पुरूष से कही अधिक श्रेष्ठ है।
चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने नारी को संसार का सार बताया है वह युवावस्था में पुरूष की प्रेमिका रहती है, प्रौढ़ की मित्र और वृद्ध की सेविका रहती है। सेविलि नारी के प्रमुख अस्त्र आसुओं से बहुत प्रभावित है। वे कहते है कि नारी के रूप मात्र में हमारे कानूनों से अधिक सरलता रहती है। उनके आसुंओं में हमारे से अधिक शक्ति होती है। नारी के शर्महया गुणों से प्रभावित कोल्टन को कहना पड़ा कि लज्जा नारी का सबसे कीमती आभूषण है। अंग्रेज कवि गोल्डिस्मथ का कहना है कि कांटो भरी साख को फूल सुंदर बना देते है। और गरीब से गरीब आदमी के घर की लज्जावती स्त्री सुंदर और स्वर्ग के समान बना देती है।
भारतीय नारी अपनी लज्जा के लिए विश्व प्रसिद्ध है। शर्म उसका प्रिय गहना है, तभी तो विवेकानंद को कहना पड़ा कि भारतीय नारी का नारीत्व बहुत आर्कषक है। जयशंकर प्रसाद जैसे कवि नारी,तुम केवल श्रृद्धा हो कहकर चुप हो जाते है। मगर इन कम शब्दों में भी कितनी बड़ी बात है। नारी को पुरूषों के गुणों की कसौटी बताते हुए दार्शनिक गेटे कहते है कि नारियों का संपर्क ही उत्तमशील की आधारशिला है। शीलवती नारियो के संपर्क में आकार ही पुरूष चरित्रवान, धैर्यवान, एवं तेजस्वी बनता है। नारी सम्मान की बात याद आती हे तो हमारे पूर्वज मनु का कथन याद आता है कि जहां स्त्रियों का सम्मान होता है वहां देवना निवास रत होते है। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने भी यही बात कही है कि स्त्री की उन्नति और अवनति पर ही राष्ट की उन्नति और अवनति निर्भर करती है।
जब नारी को अपने परंपरागत मूल्यों से हटते हुए देखता हूं तो स्टील का कथन याद आ जाता है कि संसार में एक नारी को जो करना है वह पुत्री बहन,पत्नी और माता के पावन कत्र्तव्यों के अंतर्गत आ जाता है। फिर भी पता नहीं क्यों आधुनिकता के चक्कर मे पड़ी नारी पश्चिमी देशों के बनाए हुए अंधे रास्ते पर चलकर ग्लैमर की दुनिया में खोना चाहती है। और यही वह कदम है जो पंरपरागत मूल्यों पर चलने वाली कल की नारी और आज की स्वच्छंद नारी में अंतर स्पष्ट करता है। भारतीय नारी भारतीय संस्कृति के परंपरागत मूल्यों को त्यागकर विदेशी नारी की नकल कर रही है। आज बनावट पैसे की चकाचौंध विज्ञापन की दुनिया व फिल्मी माध्यमों से प्रभावित नारी ने अपने सारे परंपरागत मूल्यों को धोकर अश्रृद्धा का रूप धारण कर लिया है। आज भी नारी को कविवर जयशंकर प्रसाद की एक बात याद रखनी होग कि नारी तुम केवल श्रृद्धा हो। आज नारी स्वयं अपनी भूल से अनेक समस्याओं से घिर गयी है ।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
संसार में एक नारी को जो करना है वह पुत्री बहन,पत्नी और माता के पावन कत्र्तव्यों के अंतर्गत आ जाता है। फिर भी पता नहीं क्यों आधुनिकता के चक्कर मे पड़ी नारी पश्चिमी देशों के बनाए हुए अंधे रास्ते पर चलकर ग्लैमर की दुनिया में खोना चाहती है। और यही वह कदम है जो पंरपरागत मूल्यों पर चलने वाली कल की नारी और आज की स्वच्छंद नारी में अंतर स्पष्ट करता है
You are right Mithilesh,
नारी को आज़ादी दी गयी, तो बिलकुल ही आजाद कर दिया गया. पुरुष से समानता दी गयी तो उसे पुरुष ही बना दिया गया. पुरुषों के कर्तव्यों का बोझ भी उस पर डाल दिया गया. उसे अधिकार बहुत दिए गए मगर उसका नारीत्व छीन कर.
समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में रोज़ाना औरतों के नंगे, अध्-नंगे, बल्कि पूरे नंगे जिस्म का अपमानजनक प्रकाशन.
सौन्दर्य-प्रतियोगिता... अब तो विशेष अंग प्रतियोगिता भी... तथा फैशन शो/ रैंप शो के कैट-वाक् में अश्लीलता का प्रदर्शन और टीवी चैनल द्वारा ग्लोबली प्रसारण
कारपोरेट बिज़नेस और सामान्य व्यापारियों/उत्पादकों द्वारा संचालित विज्ञापन प्रणाली में औरत का बिकाऊ नारीत्व.
सिनेमा टीवी के परदों पर करोडों-अरबों लोगों को औरत की अभद्र मुद्राओं में परोसे जाने वाले चल-चित्र, दिन-प्रतिदिन और रात-दिन.
इन्टरनेट पर पॉर्नसाइट्स. लाखों वेब-पृष्ठों पे औरत के 'इस्तेमाल' के घिनावने और बेहूदा चित्र, फ्रेंडशिप क्लब्स, फ़ोन सर्विस द्वारा दोस्ती
अविवाहित रूप से नारी-पुरुष के बीच पति-पत्नी का सम्बन्ध (Live-in-Relation) पाश्चात्य सभ्यता का ताज़ा तोह्फ़ा. स्त्री का सम्मानपूर्ण 'अपमान'.
स्त्री के नैतिक अस्तित्व के इस विघटन में न क़ानून को कुछ लेना देना, न ही नारी जाति के शुभ चिंतकों का कुछ लेना देना, न पूर्वी सभ्यता के गुण-गायकों का कुछ लेना देना, और न ही नारी स्वतंत्रता आन्दोलन के लोगों का कुछ लेना देना.
सहमती यौन-क्रिया (Fornication) की अनैतिकता को मानव-अधिकार (Human Right) नामक 'नैतिकता का मक़ाम हासिल.
Mithilesh, i hv also wrote an article regarding the same issue... must visit to read...at
http://swachchhsandesh.blogspot.com/2009/08/modern-global-culture-and-women.html
आज की नारी किस प्राचीन भारतीय नारी का अनुकरण करे और क्यों ?
@ भाई मिथिलेश दुबे जी ! आपने आजकल औरतों द्वारा शोहरत , पैसे और ऐश की ख़ातिर नंगे होकर नाचने से लेकर पूर्ण नग्न फ़िल्में बनाने तक जितनी भी बातों पर चिंता प्रकट की है , बिल्कुल जायज़ की है लेकिन आपने उसका कोई व्यवहारिक समाधान पेश नहीं किया है।
आपने पश्चिम का अंधानुकरण करने वाली , छोटे छोटे वस्त्रों में नाचने वाली आधुनिक बालाओं की निंदा की है लेकिन भारतीय सभ्यता का भी कोई काल ऐसा नहीं गुजरा जब यहाँ की बालाएं छोटे छोटे कपड़ों में न नाची हों बल्कि बिल्कुल नग्न होकर भी सब कुछ किया जा चुका है ।
मनु स्मृति कहती है कि 8-10 की लड़की की शादी कर दी जाए । वह यह भी कहती है कि लड़के की आयु लड़की से तीन गुना होनी चाहिए ।
गांधी जी किस प्रकार किसी को नैतिकता का उपदेश दे सकते हैं ?
जबकि वे ख़ुद अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग के लिए हिंदुओं की नाबालिग़ कन्याओं को नंगी करके उनके साथ सोया करते थे ।
आख़िर क्या ज़रूरत थी एक बुड्ढे को उभरती हुई जवान लड़कियों के मासूम जज़्बात पर चोट करके उनके वुजूद को गाली देने की ?
ऐसा करना बलात्कार से भी ज़्यादा गंभीर क्यों नहीं माना जाना चाहिए ?
भारतीय सभ्यता का कौन सा काल ऐसा रहा है जब हिंदू धार्मिक सभ्यता के लिए औरत को सती न किया गया हो ?
उसे मंदिरों में देवदासी बनाकर महंतों ने उसे न लूटा हो ?
केरल में आज भी यह प्रथा जिंदा है ।
भारतीय सभ्यता में कौन सा दौर ऐसा गुज़रा है जबकि औरत को नगरवधू और गणिका न बनाया गया हो ?
कब उसे बाप की विरासत में हिस्सा दिया गया ?
कब उसे बिना दहेज के ब्याहा गया ?
अगर भारतीय सभ्यता में उसे कभी विरासत , सम्मान और सुरक्षा मिली ही नहीं तो फिर आखिर एक औरत के लिए उसमें क्या आकर्षण है कि वह अपनी जान पर खेलकर भारतीय सभ्यता की परंपराओं को निभाए ?
जयशंकर ने नारी को मात्र श्रद्धा कहा है लेकिन आज की नारी मात्र नीति-नियम और उपदेश नहीं सुनना चाहती।
जज़्बाती बातें करके उसे बहुत लूटा जा चुका है। अब वह अपने हुस्न और अपनी दिलकश अदाओं की मार्केट वैल्यू भी जानती है और उसे अच्छी तरह वसूलना भी । तब वह क्यों न करे अपने मन की ?
आप औरत को बता ही नहीं सकते कि वह भारतीय सभ्यता के किस युग की परंपरा का पालन करे ?
आप आज एक औरत को यह तक नहीं बता सकते कि वह किस भारतीय नारी के आदर्श का पालन करे , सीता जी का ?
राधा जी का ?
द्रौपदी का ?
कुंती का ?
गांधारी का ?
मेनका , उर्वशी , रंभा और घृताची का ?
अंजलि का ?
या फिर किसी और का ?
किसी का नाम तो आपको बताना ही होगा और तब वह यह भी देखेगी कि सीता जी आदि किसी भी नारी को आदर्श जीवन गुज़ार कर अपने पति और अपने समाज से ऐसा कौन सा सुख और सम्मान मिला है , जिसे पाना उसके लिए बहुत ज़रूरी हो ।
इसका जवाब आपको देना होगा तब जाकर आप आज की औरत से कोई अपील करने के हक़दार होंगे ।
अनवर भाई,
मिथलेश की जगह इसका उत्तर मैं देती हूँ. अगर हम प्राचीन काल की नारियों का वर्णन करें तो उस काल के पुरुष की दृष्टि और आज के पुरुष की दृष्टि में बहुत अंतर है. गणिकाएँ होती थी, नृत्य करने वाली भी होती थी किन्तु उनकी अस्मत सुरक्षित रहती थी. उनके नृत्य पर अश्लील व्यंग्य करने वाले और सीटी बजाने वाले लोग नहीं हुआ करते थे. मनु ने अपनी सोच के अनुसार कहा लेकिन क्या काल और सभ्यता के अनुकूल मानव की सोच और परिपक्वता में परिवर्तन नहीं होता है. समय के साथ वही हुआ, आज भी सम्पूर्ण नारी वर्ग के साथ इस बात को नहीं कहा जा सकता है. खुद को आधुनिक कहने का दंभ भरने वाली महिलायें खुद चाहे पिछड़ी हों लेकिन अपनी बेटियों को खुले प्रदर्शन की अनुमति देकर खुद को ही गाली देने का काम कर रही हैं. सिर्फ पैसे की चमक ने नारी से उसका लज्जा आभूषण छीन लिया है लेकिन इस बात को वह खुद ही समाझने लगेगी कि इसका परिणाम क्या हो रहा है?
विज्ञापन और टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में जो प्रदर्शन हो रहा है उसके लिए कहीं उस लड़की या औरत की मजबूरी भी है. किसी को अपने परिवार को पालने की मजबूरी, किसी को बीमार बाप और छोटे छोटे भाई बहनों को पालने की मजबूरी.
कई जगह वो घरों में काम करके अपने परिवार को पालना चाहती है लेकिन इन बड़े घरों के बिगड़े पुरुषों को उनमें बेटी नजर नहीं आती और वे उसको घर में ही लड़की से औरत बना देते हैं. वो तो बेपर्दा नहीं होती है उसको कौन करता है? उसकी फरियाद कौन सुनता है? अभी भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व ये चंद लड़कियाँ या महिलायें नहीं कर रही हैं.
रही बात पश्चिम के अन्धानुकरण की तो ये हमारी कमजोरी है कि हम उनकी गलत बातों को शौक से अपना रहे हैं और अच्छी बातों से गुरेज करते हैं. अगर हम इसका अध्ययन करें तो पायेंगे कि सिर्फ और सिर्फ २० प्रतिशत लड़कियाँ और महिलायें ऐसी हैं जो इस बात को अच्छा समझती हैं. नहीं तो शालीनता और शोभनीय वस्त्रों में सुसज्जित नारी हर जगह सम्मान पाती है. रैम्प पर कैटवाक करने वाली और विज्ञापन में आने वाली लड़कियों को अपने घर की शोभा बनने की बात की जाय तो उनकी अदायों पर ताली पीट कर उत्साहित करने वाले एक भी तैयार नहीं होंगे.
गाँधी जी पर तोहमत मैंने भी बहुत पढ़ी और सुनी है लेकिन अगर जरा सा आध्यात्मिक और संयम की दृष्टि से देखें तो गाँधी जी का ये एक परीक्षण था अपने साथ उनका ब्रह्मचर्य व्रत का परीक्षण कि वे इसमें कितने सफल है? वे उन लड़कियों से अपनी दूषित भावनाओं की संतुष्टि नहीं चाहते थे. ये हमारी सोच है कि हम उसको किस दृष्टि से देख पाते हैं या फिर सोचते हैं. एक आम आदमी इस बात को नहीं सोच सकता है कि ऐसा भी किया जा सकता है.
नारी कि मर्यादा और शील कि रक्षा का कार्य भी वही कर सकती है. सिर्फ हमें अपने घर को देख कर चलना है और अपनी बेटियों को मर्यादा और शालीनता के पाठ को पढाना है. शायद कल बेहतर होगा. मजबूरी में बनी वेश्या भी अपनी बेटी को कभी वेश्या नहीं बनाना चाहती है क्यों? क्योंकि उसने जो खोया है नहीं चाहती कि उसकी बेटी भी खोये.
मार्ग और आदर्श वह है जिसका अनुकरण सब कर सकें
@ बहन रेखा जी ! भारतीय सनातन परंपरा नहीं मानती कि मनु स्मृति के नियम उन लोगों ने बनाए जिनकी बुद्धि आज की अपेक्षा अपरिपक्व थी। इसके विपरीत उसका मानना है कि हम कलियुगी जीवों की बुद्धि का विकास नहीं हुआ है बल्कि उसका नाश हो गया है ।
1. आप गाँधी के द्वारा नग्न हिंदू कुंवारी कन्याओं के साथ रात गुज़ारकर ख़ुद के संयम को परखने की हरकत को आध्यात्मिकता की संज्ञा कैसे दे सकती हैं ?
2. कौन का कर्म आध्यात्मिक है और कौन सा अनैतिक ? इसका निर्धारण आप कैसे करती हैं ?
3. क्या गाँधी जी का उपरोक्त कर्म किसी भारतीय शास्त्र या ऋषि की परंपरा के अनुसार था या उन्होंने अपने मन से खुद ही यह विधि निकाल ली थी ?
4. जवान लड़कियों के साथ ऐसे प्रयोग करने से लड़कियों का आध्यात्मिक विकास होता है या पतन ?
5. क्या ऐसे घिनौने प्रयोग से जवान लड़कियाँ मनोरोग की शिकार नहीं हो जाएंगी ?
6. इस तरह के प्रयोग में आदमी सफल भी हो सकता है और असफल भी । असफल होने की दशा में गांधी जी का तो कुछ न बिगड़ा होगा लेकिन लड़कियाँ अपना शील, कौमार्य और सतीत्व सब कुछ खो चुकी होंगी , क्यों ?
7. क्या ज़रूरी था कि अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए मासूम बच्चियों की आबरू की धज्जियां उड़ाई जाएं ?
8. लड़कियों के साथ गाँधी जी ने कुछ किया हो या नहीं लेकिन जो कुछ गाँधी जी ने उन्हें दिखाया , कौन माँ बाप अपनी बेटियों को दिखाना चाहेगा सिवाय मजबूरी के या फिर यह कि वे बेग़ैरत हों ?
9. गाँधी जी ने लड़कियों की मजबूरी का फ़ायदा उठाया ? या उन्हें बेग़ैरत बनाया ?
10. क्या संयम परीक्षण के लिए यह विधि एकमात्र विधि थी या कोई दूसरा विकल्प भी अपनाया जा सकता था ?
11. जिन भारतीय संतों को ऐसे आध्यात्मिक प्रयोग की सुविधा नहीं मिल पाई या सुविधा के बावजूद भी उन्होंने ऐसे घिनौने प्रयोग नहीं किए , क्या उनकी आध्यात्मिकता को प्रामाणिक माना जा सकता है ?
12. पतिव्रता होना भारतीय नारी का हमेशा से एक आध्यात्मिक गुण रहा है । क्या उसे अपने आध्यात्मिक परीक्षण के लिए किसी नग्न परपुरूष के साथ सोने की की इजाज़त कभी दी गई ?
13. क्या ऐसे प्रयोग के अभाव में उनकी आध्यात्मिकता का विश्वास न किया जाएगा ?
14. जहाँ आध्यात्मिकता और घिनौने पाप के बीच का अंतर ही मिट चुका हो , वहाँ हमेशा एक आदर्श की ज़रूरत हुआ करती है जिसके मूल्य और जिसका मार्ग सदैव अनुकरणीय हुआ करता है । आपने मेरे पूछने के बावजूद भी ऐसा कोई नाम नहीं बताया ।
अतः मेरे मूल प्रश्न का जवाब ही आपने नहीं दिया है । इसीलिए आधुनिक युग में मजबूरन या शौक़िया नारी की जारी स्वेच्छाचारिता को रोकने के लिए आप कोई व्यवहारिक समाधान भी पेश नहीं कर पाईं हैं ।
मार्ग और आदर्श वह है जिसका अनुकरण सब कर सकें ।
ऐसा मार्ग और ऐसा आदर्श कौन है ?
आज सामूहिक रूप से उसे जानना होगा , उसे अपनाना होगा ।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
why people always write on the जब नारी को अपने परंपरागत मूल्यों से हटते हुए देखता हूं
why not write on man behaviour , pattern and biological disorders
अनवर भाई,
एक बात पर हजारों सवाल खड़े किये जा सकते हैं, परीक्षण होते रहते हैं और ये मानव की अपनी सोच के अनुरुप होते हैं. वो हमारी दृष्टि में सही हैं या गलत इसकी अनुमति कोई परीक्षक नहीं लेता है. अध्यात्मिक शब्द इस जगह कुछ गलत हो रहा है वैसे उस स्थिति के लिए मुझे उचित शब्द नहीं सूझ रहा था. लेकिन वहाँ जो भी लड़कियाँ थी उनकी वहाँ रहने की कोई मजबूरी नहीं थी. उन्होंने कभी भी गाँधी के दुर्व्यवहार के विषय में नहीं लिखा. गाँधी के इस प्रयोग के बारे में उन लोगों के द्वारा ही जानकारी प्राप्त हुई थी.
मनु का काल और आज का समय एक बहुत लम्बा अंतराल है और विकास समय की मांग है और खुद मनुष्य अपनी प्रगति देख कर खुश नहीं हो रहा है. क्या मनु के समय में आज की उपलब्ध सुविधाएँ थीं नहीं तो फिर हम इनका उपयोग कर रहे हैं ये क्रमिक विकास की प्रक्रिया है और इसके साथ ही मूल्यों में सुधार होता है हमारी सोच उदारवादी होने लगती है. कट्टरता के परिणाम स्वरूप क्या पाया? इस समाज में सभी हैं और रहेंगे. अगर विज्ञापन में आती हुई लड़कियाँ हैं तो फिर ऑनर किलिंग में मारी जाने वाली लड़कियाँ भी हैं. इस लिए इस बहस का कोई निदान नहीं है. नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन सिर्फ एक पक्ष के कदम उठाने से नहीं होता है बल्कि इसमें दूसरा पक्ष भी प्रतिभागी है. फिर उस पर उंगली क्यों नहीं उठाई जाती?
बेहतर यही होगा कि इस विषय का सकारात्मक निदान सोचें और उसको अपनाने कि अपील करें. आरोप प्रत्यारोपों से कोई हल नहीं निकलने वाला है.
--मिथिलेश जी ने बहुत ही सुन्दर व यथार्थ पोस्ट लिखी है---
""नारी को स्वयं ही इस स्थिति को सवाँरने के लिए आगे आना होगा । उसे खुद ही आगे बढ़कर यह घोषणा करनी होगी कि उसका शील और संस्कार बिकाऊ नहीं है.."" यही सब सवालों का एक मात्र उत्तर है...
---बाकी सवालों का उत्तर रेखजी ने देही दिया है..सटीक...आगे कुछ नहीं बचता बहस के लिये....
कुछ प्रश्नों के उत्तर दे
शील क्या हैं ??
ये केवल नारी के लिये ही क्यूँ हैं ? जो पुरुष मॉडल काम करते हैं उनके लिये क्या नियम हैं ? उनके शील का क्या ?
संस्कार ?? ये केवल नारी के लिये ही क्यूँ हैं ?? इनकी ज़िम्मेदारी समाज पर क्यूँ नहीं हैं ???
और सबसे बड़ी बात
नारी के शील और संस्कार कि खरीदार कौन हैं ??
पुरुष का क्या रोल हैं इस सब मे ?? क्या समाज मे पुरुष केवल और केवल मूक दर्शक हैं ???
बात समाज को सुसंस्कृत करने कि जब भी होती हैं नज़र एक नारी कि तरफ ही जाती हैं { इस ब्लॉग को ही ले लीजिये , पुरुषो के जूतम पैजार को रोकने के लिये रेखा जी को ही अध्यक्ष बना दिया } पहले पुरुष अपने को संस्कार वां कर ले फिर नारी कि चिंता करे क्युकी अब नारी अपनी चिंता करने मे और पुरुषो को संस्कारित करने मे जुट गयी हैं । जैसे यहाँ ये काम रेखा कर रही हैं ।
नारी को ये समझाना सलीम , मिथिलेश और अनवर जामल अब बंद भी कर दे कि नारी को आधुनिक नहीं होना चाहिये क्युकी आज उनको अपना ब्लॉग चलाने के लिये एक नारी का ही सहारा लेना पडा हैं । अफ़सोस होता हैं ऐसी पोस्ट देख कर जहां आधुनिक का मतलब भी लोगो को पता नहीं हैं ।
‘आज की नारी को किस प्राचीन भारतीय नारी का अनुकरण करना चाहिए और क्यों ?‘
आज समाज में अश्लीलता बढ़ती ही जा रही है। उसे करने वाले कोई और नहीं हैं बल्कि हम खुद ही हैं। ग़नीमत यह है कि अभी भी हरेक समुदाय की महिलाओं और लड़कियों की बड़ी तादाद पारिवारिक मूल्यों और नैतिकता के परंपरागत चलन में विश्वास रखती हैं लेकिन इसके बावजूद एक बड़ी तादाद उन लड़कियों की भी हमारे दरमियान मौजूद है जो अपने बदन के किसी भी हिस्से की नुमाईश बेहिचक कर रही हैं। उनमें से कुछ मजबूरन ऐसा कर रही हो सकती हैं लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि बहुत सी लड़कियां नैतिकता के परंपरागत विश्वास को गंवा चुकी हैं। जो लड़कियां मजबूरी में यह सब करती हैं वे अपने हालात बदलते ही खुद को संभाल लेती हैं लेकिन जिन लड़कियों को अपने बदन की नुमाईश में और उसे दूसरों को सौंपने में कोई बुराई नज़र नहीं आती, उन्हें उस गंदी दलदल से निकालना आसान नहीं होता। इसके लिए उनके मन में नैतिकता के प्रति विश्वास बहाल करना पड़ता है, उसे किसी आदर्श नारी के अनुकरण की प्रेरणा देनी पड़ती है और उस पर यह सिद्ध करना होता है कि जिस मार्ग पर वह चल रही है, उसका अंजाम उसके लिए नुक्सानदेह है और नैतिक मूल्यों के पालन में अगर उसे रूपये और शोहरत का नुक्सान भी होता है, तब भी उसका अंजाम उसके लिए बेहतर होगा। ऐसे में उसे किस प्राचीन भारतीय नारी के आदर्श का अनुकरण करने की प्रेरणा दी जाए ?
यह एक सवाल है जो कि इस पोस्ट पर आज ज़ेरे बहस है। जब मुद्दा उठाया गया है तो फिर इस समस्या के निराकरण के लिए इस सबसे ज़रूरी सवाल का जवाब दिया जाना भी निहायत ज़रूरी है। यह कोई आरोप-प्रत्यारोप मात्र नहीं है। ब्लागिंग का उद्देश्य समाज में स्वस्थ बदलाव लाना होना चाहिए न कि यथास्थितिवाद को क़ायम रखने का प्रयास करना।
@ भाई श्याम गुप्ता जी ! यह दुखद है कि आप खुद को डाक्टर कहलाने के बावजूद कह रहे हैं कि मेरे सभी सवालों के जवाब दे दिए गए हैं।
अगर मेरे सभी सवालों के जवाब दे दिए गए हैं तो आप बताएं कि ‘आज की नारी को किस प्राचीन भारतीय नारी का अनुकरण करना चाहिए और क्यों ?‘
भाई ! क्या आप ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि बनाने की बातें करना बंद करेंगे या फिर मैं उस पर सवाल पूछना शुरू करूं ?
ख़ैर , यह भी एक बड़े लतीफ़े की बात है कि जिसकी वजह से श्री रवीन्द्र प्रभात को जाना पड़ा, वह बदस्तूर यहां ब्रह्मा जी का प्रचार करने के लिए डटा हुआ है बल्कि आॅल इंडिया ब्लागर्स एसोसिएशन में शामिल हो चुका है। इसके बावजूद बड़ी मासूमियत से जनाब यह भी पूछते हैं कि उनके जाने की वजह का खुलासा नहीं हुआ।
हाय, आपकी मासूमियत पे कौन न कुर्बान जाएगा गुप्ता जी।
हमें तो आप जैसे लोगों की मौजूदगी की सख्त ज़रूरत है।
आपका हम स्वागत करते हैं।
धन्यवाद !
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नारी दुर्गति, नारी-अपमान, नारी-शोषण के समाधान अब तक किये जा रहे हैं वे क्या हैं?
मौजूदा भौतिकवादी, विलास्वादी, सेकुलर (धर्म-उदासीन व ईश्वर विमुख) जीवन-व्यवस्था ने उन्हें सफल होने दिया है या असफल?
क्या वास्तव में इस तहज़ीब के मूल-तत्वों में इतना दम, सामर्थ्य व सक्षमता है कि चमकते उजालों और रंग-बिरंगी तेज़ रोशनियों की बारीक परतों में लिपटे गहरे, भयावह, व्यापक और जालिम अंधेरों से नारी जाति को मुक्त करा सकें???
जो सचमुच औरत होती है वह सम्मान पाती है
@ आदरणीया रचना जी ! भाषा और संस्कार हम पुरूषों को माँ से ही मिलते हैं । यही वजह है कि उसका रूप एक पुरूष के चित्त में बहुत गहराई तक अंकित हो जाता है । अपनी पत्नी में भी वह अपनी माँ को ढूंढना नहीं भूलता। भगवान को भी माँ कहकर पुकारने से नहीं चूकता । औरत की पैदाईश की बुनियाद भी एक पुरूष ही रखता है । आपने भी कहीं आसमान से इस कुर्सी पर सीधे लैंड नहीं किया है। यहाँ तक अगर आप पहुंची हैं और सही सलामत आबरू लेकर पहुंची हैं तो महज़ अपनी क़ाबिलियत और ताक़त के बल पर ही नहीं पहुंची । आबरू फ़रोश औरतों की तरह कामांध पुरूषों की तादाद अभी भी कम है।
इनकी तादाद को कैसे घटाया जाए ?
कैसे पूरी तरह ख़त्म ही कर दिया जाए उस ज़हनियत को जो समाज को ऐसे नर-नारी देती है ?
इस पोस्ट का विषय यही है।
औरत और मर्द एक दूसरे पर निर्भर हैं , जन्म लेने-देने से लेकर विकास करने तक , हरेक मामले में। ऐसे में जो भी यह कहता है कि मर्द औरतों के बारे में सोचना छोड़ दें तो ऐसा कहने वाले को अगर सबसे हल्का लफ़्ज़ कोई दिया जाए तो उसे नादान कहा जाएगा वर्ना अगर आपकी जगह कोई और होता तो उसे लोग परले दर्जे का बेवक़ूफ़ कहने से भी न चूकते।
आप ब्लाग चलाने में औरत का सहारा लेने पर मुझे क्या ताना दे रही हैं ?
खुद मुझे ही चलना भी एक औरत ने ही सिखाया है बल्कि मुझे जन्म देने वाली भी कोई और नहीं बल्कि एक औरत ही है । औरत की वजह से ही मैं आज यहाँ हूँ । औरत का दर्जा मेरी नज़र में बहुत ऊँचा है । इसीलिए मैंने चाहा कि इस संस्था के अध्यक्ष जैसे ऊँचे पद पर भी एक औरत ही होनी चाहिए । औरत को ऊँचा दर्जा देने वाले मर्दों को भी फटकारने से आप बाज़ नहीं आतीं ?
आपका दिमाग़ अभी कुछ सरक गया है या बचपन से ही आप बद-दिमाग हैं ?
मर्दों ने आपके साथ ऐसा क्या कर दिया कि आप औरतों को सम्मान देने वाले नेक मर्दों पर भी शाब्दिक हंटर बरसाने से बाज़ नहीं आतीं ?
और नाम लेती हैं तमीज़ का और वह भी लखनऊ की ?
लखनऊ से लेकर देहात तक , कहीं की भी तमीज़ और तहज़ीब में आप औरतों द्वारा बाल काटना हमें दिखा दीजिए ?
अरे , इस देश के तो हिजड़े तक ऐसे बाल नहीं रखते क्योँकि वे ख़ुद को औरत ज़ाहिर करना चाहते हैं और हिंदुस्तानी औरतें ऐसे बाल रखती नहीं हैं ।
अपनी शक्ल को आप ख़ुद कभी ग़ौर से देखिएगा कि यह लखनवी औरतों से ज़्यादा मिलती है या कि मर्दों से ?
मर्दों का विरोध करने के लिए हर दम उनके बारे में सोचते सोचते आप खुद मर्द बन चुकी हैं । आप खुद तो आज तक मर्दों के बारे में सोचना न छोड़ सकीं और मर्दों से कहती हैं कि वे औरतों के बारे में सोचना छोड़ दें । जबकि औरतें खुद नहीं चाहती हैं कि मर्द उनके बारे में सोचना छोड़ दें बल्कि जो सचमुच औरतें हैं वे तो यह चाहती हैं कि मर्द हमारे बारे में ही सोचते रहें । जो सचमुच औरत न हो वह बेशक इन सबसे अलग हट कर कुछ भी कह सकती है । ऐसी औरतों को पहले खुद एक औरत होने की तमीज़ हासिल करनी चाहिए ।
शुक्र कीजिएगा कि औरत समझकर आपको आज हल्के में ही छोड़ दिया वर्ना राष्ट्रवादी ज़बानदराज़ों की ज़बान मैं ज़रा अलग तरीक़े से कतरता हूं । डाक्टर दिव्या जी इसकी एक जिंदा मिसाल हैं ।
रचना जी, जहां तक ब्लोग चलाने के लिये नारीके सहारे की बात है ..यह एक सत्य है...कोई भी काम नारी के सहारे बिना नही होता....तभी तो सारे देव व भगवान युगल रूप में है, अकेले नहीं सपत्नी...
----वस्तुतः इसे समझने के लिये हमें मूल श्रिष्टि-रचना की ओर जाना होगा....स एकाकी नेव रेमे..द्वितीयमेच्छत:---तभी श्रिष्टि प्राम्भ हुई....शक्ति, प्रक्रिति, स्त्री-स्त्रीभाव( द्रश्य जगत, जड भाव ) जगत की कार्यकारी शक्ति है, पुरुष, ब्रह्म, ईश्वर सिर्फ़ मूल-श्रजक(सिर्फ़ द्रष्टा,चेतन-श्रिष्टि) भाव अतः -- पुरुष की प्रारम्भिक चेतना भाव व नारी का प्रेरक व कार्य्कारी शक्ति का---दोनों मिलकर ही कोई कार्य होता है कोई भी अकेले कार्य नहीं कर सकता--वे एक दूसरे के पूरक हैं---अतः निश्चय ही पुरुष को प्रत्येक कार्य में स्त्री की आवश्यकता होती है व स्त्री को पुरुष की...
---निश्चय ही नारी के अधिक उत्तरदायित्व हैं, पुरुष, समाज,संस्क्रिति व संतान की सफ़लता व प्रगति के लिये...द्रष्टा पुरुष वास्तव में ही मूक-दर्शक ही होता है...
---आधुनिक का अर्थ पुरुष की नकल करना नहीं है जो स्वयं ही नारी के बिना एक कदम नहीं चल सकता --अपितु अपने आप को अधिक ग्यानवान, सुशील, द्रढ, बनाना है( नंगे होकर नहीं)
---आज की नारी को सिर्फ़ भारतीय नारी का अनुकरण करना चाहिये ,किसी अन्य का क्यों...
वो कोई भी व्यक्ति जो नारी को क्या क्या "करना , पहना , रहना " चाहिये पर पोस्ट लिखता हैं भारतीये संविधान मे नारी को दिये हुए अधिकार अवश्य पढ़े . जो लोग भारतीये संविधान को नहीं मानते वो भारतीये संस्कृति के रक्षक बनते हैं तो सिर्फ हसा ही जा सकता हैं . हमारे देश कि संस्कृति कि रक्षा के लिये ही संविधान और कानून बने हैं . संविधान और कानून मे स्त्री और पुरुष के समान अधिकार हैं .
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक केवल और केवल पति और पत्नी के लिये आता हैं जबकि आज नारी और पुरुष के काम के क्षेत्रो मे बहुत बदलाव आया हैं
वो कोई भी व्यक्ति जो नारी को क्या क्या "करना , पहना , रहना " चाहिये पर पोस्ट लिखता हैं भारतीये संविधान मे नारी को दिये हुए अधिकार अवश्य पढ़े . जो लोग भारतीये संविधान को नहीं मानते वो भारतीये संस्कृति के रक्षक बनते हैं तो सिर्फ हसा ही जा सकता हैं . हमारे देश कि संस्कृति कि रक्षा के लिये ही संविधान और कानून बने हैं . संविधान और कानून मे स्त्री और पुरुष के समान अधिकार हैं .
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक केवल और केवल पति और पत्नी के लिये आता हैं जबकि आज नारी और पुरुष के काम के क्षेत्रो मे बहुत बदलाव आया हैं
वो कोई भी व्यक्ति जो नारी को क्या क्या "करना , पहना , रहना " चाहिये पर पोस्ट लिखता हैं भारतीये संविधान मे नारी को दिये हुए अधिकार अवश्य पढ़े . जो लोग भारतीये संविधान को नहीं मानते वो भारतीये संस्कृति के रक्षक बनते हैं तो सिर्फ हसा ही जा सकता हैं . हमारे देश कि संस्कृति कि रक्षा के लिये ही संविधान और कानून बने हैं . संविधान और कानून मे स्त्री और पुरुष के समान अधिकार हैं .
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक केवल और केवल पति और पत्नी के लिये आता हैं जबकि आज नारी और पुरुष के काम के क्षेत्रो मे बहुत बदलाव आया हैं
वो कोई भी व्यक्ति जो नारी को क्या क्या "करना , पहना , रहना " चाहिये पर पोस्ट लिखता हैं भारतीये संविधान मे नारी को दिये हुए अधिकार अवश्य पढ़े . जो लोग भारतीये संविधान को नहीं मानते वो भारतीये संस्कृति के रक्षक बनते हैं तो सिर्फ हसा ही जा सकता हैं . हमारे देश कि संस्कृति कि रक्षा के लिये ही संविधान और कानून बने हैं . संविधान और कानून मे स्त्री और पुरुष के समान अधिकार हैं .
स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक केवल और केवल पति और पत्नी के लिये आता हैं जबकि आज नारी और पुरुष के काम के क्षेत्रो मे बहुत बदलाव आया हैं
रचना जी---संविधान में कुछ भी लिखा हो..परंतु व्यक्ति के मूल अधिकार ..अपने विचार व्यक्त करने से संविधान भी नही रोकता... कोई माने या न माने यह अलग बात है..
....हां जबर्दस्ती करना या गाली-गलौज करना, अभद्र भाषा प्रयोग करना अनुचित व असंवैधानिक है....
संविधान में कुछ भी लिखा हो..परंतु व्यक्ति के मूल अधिकार ..अपने विचार व्यक्त करने से संविधान भी नही रोकता
agar samvidhan padh kar adhikaro kae vishay mae , naari kae adhikaro kae vishay mae , uskae sanskaro kae vishy mae likhae to laekh mae " yae karna chahiyae yaa yae nahin kiya to asanskari hogayee " ityadi nahin likha jayegaa .
vichhar vyakt karna aur naari ko asanskari kehna dono mae antar haen
aaj samantaa ki baat hotee aur samantaa kae liyae sanskaarit sabko hona hoga
aaj hamare vice president ki patni naari kae dukho sae itna dravit thee ki unhonae kehaa ki ladkiyon ko paedaa hotey hi maar dena chahiyae
samay rehtae chaetiyae varna ladkiyon ki agli peedhi bahut aagey chali jaayaegi "mental evolution " mae aur yahaan log baal , singaar , saadi , itadi mae sanskaar khojtey rahey gae
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सबसे पहले तो मैं मिथिलेश दुबे जी को एक बेहतरीन लेख लिखने की बधाई देता हूँ. मिथिलेश जी सही है की नारी के संस्कार, शील व लज्जा से किसी भी देश की ही नहीं, किसी के घर की भी पवित्रता बढ़ती है .
अनवर जमाल साहब गाँधी जी ने यदि ऐसा किया जैसा की आप बता रहे हैं तो इसे किसी भी प्रकार से सही नहीं कहा जा सकता. क्या है कोई आज जो अपनी बेटी को किसी गाँधी के ब्रह्मचर्य व्रत का परीक्षण के लिए भेज दे या है कोई ऐसी पत्नी जो अपने पति को ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत का परीक्षण के लिए किसी जवान लड़की के साथ ऐसा करने की इजाज़त दे दे?
कोई भी स्त्री या तो माँ होती है या बीवी और या बहन (या इन्ही से जुड़े कुछ और रिश्ते जैसे भाभी, चची इत्यादि). और इन्ही रिश्तों को समाज मैं इज्ज़त से देखा भी जाता है. इससे अलग यदि कोई कोई रिश्ता बनता है तो वो ग़लत है. किसी भी स्त्री का पराए मर्द के सामने निर्वस्त्र होना या ऐसे कपड़ो मैं जाना की पराया मर्द आकर्षित होने लगे ग़लत है.अब बात चाहे पुराने समय की हो या आज के औरत का यही रूप काबिल ए इज्ज़त है
.
कोई औरत पैसे के लिए निर्वस्त्र हो जाए या कम वस्त्रों मैं घूमे ,पराए मर्द के सामने नाचे ,इसको सही नहीं ठहराया जा सकता. अब जहाँ तक सवाल है की लोग इस मसले पे अलग अलग तरीके से सोंचते हैं तो इसके लिए हर शख्स आज़ाद है
.
औरत को कम वस्त्रों मैं देखना, घुमाना , नचाना मर्दों का शौक रहा है. अब यह औरत पे निर्भर होता है की उसे क्या पसंद है. लोग तो nudist colony को भी आधुनिकता का नाम दे के सही ठहरा देते हैं. इसका क्या इलाज है?
रचना जी @ आप ने आधुनिक नारी शब्द का इस्तेमाल किया. आधुनिक होना बुरी बात नहीं लेकिन आधुनिक नारी की परिभाषा क्या है यह बताना भी आवश्यक है. पश्चिमी महिला जो वेल ड़ोरेन्ट के अनुसार 19 वीं शताबदी के आंरम्भिक काल तक मानवधिनारों से वंचित की, आकस्मिक रूप से लालची लोगों के हाथ लग गई.
वैलेंटाइन डे के दो रूप हुआ करते हैं , और इसी मुद्दे को मैंने भी उठाने की कोशिश की है.
क्या बात यहाँ तो लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने में ही लगे है. यदि देखा जाय तो मिथिलेश जी का लेख निश्चय ही बहुत अच्छा है, किन्तु अनवर भाई का काम विवाद खड़ा करना है और कर दिया. आरोप-प्रत्यारोप से हटकर देखे तो एक नारी को घर की दहलीज़ से निकलने को मजबूर पुरुष समाज ने ही किया है. नारी लज्जा की प्रतीक है इसमें कोई संशय नहीं है, किन्तु समाज का सारा ठेका औरतों ने ही ले रखा है. क्या पुरुष इसके लिए दोषी नहीं. यदि कोठे चलते हैं औरतो के जिस्म का शोषण होता है तो उसकी जिम्मेदार हमारी पुरुष विरादरी है. जब आज एक औरत अपने पैरो पर खड़ी होती है तो पुरुष समाज को बर्दास्त नहीं होता, उसकी आज़ादी को लोग पचा नहीं पाते. घर से निकलने के बाद औरतो पर गन्दी नजरे रखने वाली औरतें नहीं पुरुष होते है जनाब, जिस तरह औरत घर को बेहतर तरीके से चलाती है. जो सृष्टी को आगे बढाती है. जो एक माँ है, बेटी है, बहन है, बहू है. वह जीवन में कितने झंझावतों को झेलती है. क्या किसी ने गौर किया है. दहेज़ रुपी दानव के दुश्चक्र में फंसी एक लड़की जब आगे बढ़कर अपने पैरो पर खड़ा होना चाहती है तो उस पर आरोप लगने शुरू हो जाते है. आफिस में काम करती है तो उसकी योग्यता की जगह उसके श्री का एक्सरे किया जाता है.
ऐ समाज के ठेकेदारों जरा अपनी आँखे खोलकर देखो आज यदि औरत पतन के रास्ते पर अग्रसर हुयी है तो उसके जिम्मेदार पुरुष ही है. आज पुरुष दयास पर आकर कपडे उतारे तो उसे कुछ नहीं कहा जा सकता. वही काम औरत करे तो उस पर आरोप शुरू हो जाता है जबकि उसके कपडे उतरने वाला भी पुरुष है और देखने वाला भी पुरुष.
जरा मेरे इस प्रश्न पर गौर फरमाए.........
१. आप लोंगो में कितने ऐसे लोग है जिन्होंने कागजी लडाईया न लड़कर समाज को सुधरने का प्रयास किया है.
२. फिल्मो व विज्ञापन में हो रहे अश्लील प्रदर्शन पर कितने लोंगो ने आवाज़ उठाई है.
३. देश के हर शहरों में चल रहे वेश्यालयों के खिलाफ कितने लोंगो ने आवाज़ उठाई.
जनाब पुरुष समाज खुद नहीं चाहता की नारी की लज्जा बची रहे. आज नारी यदि पतन के रश्ते पर है तो उसका जिम्मेदार पुरुष समाज है. दरअसल हमारी आदत सिर्फ बुराईया ढूढने की है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से लेकर किरण बेदी, मायती जैसी तमाम महिलाये ही है जिन्होंने खुद को पुरुषो से बेहतर साबित किया है. यदि पुरुष समाज अपनी मानसिकता बदल ले तो खुद बा खुद महिलाओ का पतन रुक जायेगा क्योंकि उन्हें पतन के रश्ते पर डालने वाला पुरुष समाज है.
@ 'सारे देव व भगवान युगल रूप में हैं अकेले नहीं सपत्नी...'
@ डाक्टर श्याम जी ! आप बता रहे हैं बिल्कुल झूठी बात । बेचारे नारद जी का तो विवाह स्वयं विष्णु जी ने नहीं होने दिया था । वे आए थे हरिरूप माँगने और विष्णु जी ने उन्हें बना दिया था बंदर ।
1. अब आप बताइये कि नारद जी देवता हैं या नहीं ?
2. उनकी पत्नी का नाम क्या है ?
3. आपकी बात झूठी और हमारी बात सच्ची है कि नहीं ?
एक चुनौती , अश्लीलता के निर्धारण को लेकर
@ हरीश जी ! आपको पता होना चाहिए कि टिप्पणी बॉक्स इसीलिए होता है कि ब्लागर्स पोस्ट पर तर्क वितर्क कर सकें । ख़ुद आपने भी यही किया है। अगर आपकी मंशा किसी को नीचा दिखाने की नहीं है तो दूसरों के बारे में आप क्यों घटिया सोचते हैं ?
यहाँ देवताओं की बातें हो रही हैं और देवताओं की बातें ऊँची होती हैं और देवता अक्सर रहते भी ऊँची ही जगह हैं । ऐसे में यहाँ सभी ऊँचा तो देख सकते हैं नीचा हरगिज़ नहीं।
आपने इतना लंबा कमेँट तो कर दिया लेकिन यह बताया नहीं कि 'आज की नारी किस प्राचीन भारतीय नारी का अनुकरण करे और क्यों ?'
आपने तीन सवाल भी पूछे हैं बिना यह बताए कि आपकी नज़र में अश्लीलता क्या है ?
अश्लीलता की परिभाषा तो कम से कम आप बता ही दीजिए । फिर मैं आपको बताऊंगा कि आपके भाई अनवर जमाल ने क्या क्या काम किए हैं ?
आपका सारा जीवन गुजर जाएगा लेकिन आप हरगिज़ यह नहीं बता सकते कि अश्लीलता है क्या और इसे तय किस आधार पर किया जाए ?
जाइये और चाहे जहाँ घूम आइये, चाहे जिस दार्शनिक से पूछ आइये, चाहे रचना जी के संविधान से भी पूछ आइये। न तो उनमें से कोई जानता है और न ही कोई आपको बता पाएगा ।
आपको किसी बड़े से बड़े अख़बार का एडिटर भी यह नहीं बता पाएगा । फिर सब मिलकर कोशिश करना। फिर भारतीयों के साथ अपने जैसे विश्व भर के लोगों को इकठ्ठा कर लेना। सब मिलकर भी न बता पाओगे कि अश्लीलता क्या है और इसके निर्धारण का पैमाना क्या है ?
जो काम आप सब मिलकर नहीं कर सकते उसे अनवर जमाल अपने मालिक के भरोसे अकेले कर सकता है , अल्-हम्दुलिल्लाह !
आप वर्ष 2010 या 2011 की कोई एक पोस्ट तो दिखाइए जहाँ अनवर जमाल मौजूद न हो और फिर भी उस पर 30 टिप्पणियाँ आ गई हों ?
आपको मिथिलेश दुबे जी की पोस्ट पर टिप्पणियाँ आती हुई बुरी लग रही हैं क्या ?
---नारद जी देवता नहीं हैं..वे सिर्फ़ मुनि हैं वो भी ब्रह्मचारी ...और वे आदि-संवाददाता व पत्रकार हैं...
--हरीश जी बिल्कुल सही बात है कि पुरुष भी( ही नहीं) नारी के ऊपर अत्याचार व शोषण के लिये दोषी है, परन्तु जैसा आपने कहा पुरुष तो सदा ही नारी को नचाकर आनंद लेना चाहता है...अब नारी की इच्छा हैम कि नाचे या नहीं....कौन आज की हीरोइनों को नाचने को कहता है---पैसा/मौज़-मस्ती का लालच..बस वही सब कुछ है..
--रचना जी देखिये गौर से आज के समाज में भी अनेकों शूर्पणखायें हैं..अपितु अधिक हैं जो पुरुषॊ पर उनके शरीर, धन ,दौलत पर नज़र रखती है और स्वय़ं बिछने को तैयार रहती हैं---पुरुष तो सदा हीलोभी होते हैं...पर क्या समाज एसे पुरुषों को भी बुरा नहीं कहता...
----निश्चय ही आचरण-शुचिता की कुन्जी स्त्री के ही हाथ है व रहेगी...स्त्री-स्वतन्त्रता, स्त्री-उन्नति एक अलग बात है व अनाचरण व नग्नता अलग..
--नारी/पुरुष आदि के सामाजिक आचरण-व्यवहार पर एक सामान्य विचार रखना असंवैधानिक नहीं....नारियों / नारी विशेष के बारे में दुष्प्रचार प्रतारणा आदि अपराध है...
@ डा. श्याम जी ! देवता की परिभाषा क्या है ?
क्या नारद जी देवता की परिभाषा पर खरे नहीं उतरते ?
बेशक उनकी उपाधि 'मुनि' की ही सही .
---देव जो सबको देते रहते हैं---क्या नारद जी को किसी ने किसी को कुछ देते हुए देखा-सुना है....
---यदि ढंग से श्रिष्टि-की पोस्ट(आपकी कथित ब्रह्मा की कथा) पढी होती तो देव की परिभाषा समझी ली होती...
क्या देते हैं नारद जी ?
@ डा. श्याम गुप्ता जी ! आपने नारद जी को आदिसंवाददाता कहा है । आपने ही तो उन्हें संवाद देने वाला प्रथम पत्रकार कहा है और फिर आप ख़ुद ही पूछ रहे हैं कि उन्हें किसी ने कभी कुछ देते हुए देखा है ?
क्या आप सूचना देने को कुछ देना नहीं मानते ?
ध्यान रखिए कि आज के युग में सारे काम सूचना पर ही चल रहे हैं ।
इस तरह नारद जी केवल पत्रकारों में ही नहीं बल्कि समस्त गुप्तचरों में भी आदि हैं । उन्होंने कम से कम दो पदों की ज़िम्मेदारी का निर्वाह करके सीधे सीधे लाखों करोड़ों पत्रकारों और गुप्तचरों के लिए एक पद प्रकट किया और उनके लिए रोज़ी रोटी का साधन प्रदान किया ।
ऐसे में आप कैसे कह सकते हैं कि नारद जी ने किसी को कुछ नहीं दिया ?
आपको मुझसे पढ़ना होगा , एक शिष्य की भाँति ।
या तो राज़ी ख़ुशी तैयार हो जाइये वर्ना मैं ज़बर्दस्ती पढ़ाऊंगा ।
भैया, क्या संवाददाता किसी को कुछ देते हैं---वे तो अखबार के संपादक को खबर देते हैं ताकि उनकी नौकरी बनी रहे...
--अभी तक आपही तो पढा रहे हैं श्रीमान --हमारा सारा ग्यान आपका ही तो सिखाया हुआ है, उसी को हम प्रयोग करते रहते हैं.....वर्ना हम किस काबिल हैं...
@ भाई साहब गुप्ता जी ! अगर आप हमसे सीखे हुए होते तो आप यह ज़रूर बताते कि 'आज की नारी किस प्राचीन भारतीय नारी का अनुकरण करे और क्यों ?'
आप तो सीता माता तक को मर्यादा को पार करने वाली बता चुके हैं (AIBA पर शिखा कौशिक जी की पोस्ट पर )
एक बात है अनवर भाई आप जिस पोस्ट पर आ जाय वहा कमेन्ट बेचारा खुद आने के लिए मजबूर हो जाता है और आपकी मंशा भी यही रहती है, भाई आप कलयुग के दुर्वाषा ऋषि हो यार. जिसके पीछे डंडा लेकर पड़े तो पड़ ही गए. धन्य हो मिथिलेश भाई अनवर साहेब तो आप पर मेहरबान है. और आप तो उनकी सदस्यता ही समाप्त करना चाहते थे. कुछ सीख लो यार तुम भी अनवर भाई से, बहुत जहीन और काबिल इन्सान है यार.मैं डर रहा हू कही फिर हमसे नाराज न हो जाय.
समाधान
नारी के मूल अस्तित्व के बचाव में 'LBA' की पहल में आईये, हम सब साथ हो और समाधान की ओर अग्रसर हों.
नारी कि उपरोक्त दशा हमें सोचने पर मजबूर करती है और आत्म-ग्लानी होती है कि हम मूक-दर्शक बने बैठे हैं. यह ग्लानिपूर्ण दुखद चर्चा हमारे भारतीय समाज और आधुनिक तहज़ीब को अपनी अक्ल से तौलने के लिए तो है ही साथ ही नारी को स्वयं यह चुनना होगा कि गरीमा पूर्ण जीवन जीना है या जिल्लत से.
नारी जाति की उपरोक्त दयनीय, शोचनीय, दर्दनाक व भयावह स्थिति के किसी सफल समाधान तथा मौजूदा संस्कृति सभ्यता की मूलभूत कमजोरियों के निवारण पर गंभीरता, सूझबूझ और इमानदारी के साथ सोच-विचार और अमल करने के आव्हान के भूमिका-स्वरुप है.
लेकिन इस आव्हान से पहले संक्षेप में यह देखते चले कि
नारी दुर्गति, नारी-अपमान, नारी-शोषण के समाधान अब तक किये जा रहे हैं वे क्या हैं?
मौजूदा भौतिकवादी, विलास्वादी, सेकुलर (धर्म-उदासीन व ईश्वर विमुख) जीवन-व्यवस्था ने उन्हें सफल होने दिया है या असफल?
क्या वास्तव में इस तहज़ीब के मूल-तत्वों में इतना दम, सामर्थ्य व सक्षमता है कि चमकते उजालों और रंग-बिरंगी तेज़ रोशनियों की बारीक परतों में लिपटे गहरे, भयावह, व्यापक और जालिम अंधेरों से नारी जाति को मुक्त करा सकें???
आईये आज हम नारी को उसका वास्तविक सम्मान दिलाने की क़सम खाएं!
सलाहियतें किसी सनद की मोहताज नहीं होतीं
@ भाई हरीश जी ! आपने माना है कि मैं एक बहुत क़ाबिल और ज़हीन इंसान हूं ।
आपका शुक्रिया ।
बहन रेखा जी भी ऐसा ही मानती हैं और अपने बारे में मेरी ख़ुद की राय भी यही है और दरअसल यह सारी तारीफ़ उस ख़ुदा की है जिसने मुझे यह रूप और ये गुण बख़्शे , उसी ने असत से सत की उत्पत्ति की , अभाव से भाव को प्रकट किया । मैं जन्म ले सकूं , ज़िंदा रह सकूं , मार्ग और ज्ञान पा सकूं , यह व्यवस्था भी उसी ने की है सो मैं उसकी स्तुति-वंदना इस तरह करता हूँ जैसे कि इस ब्लाग जगत में आज तक किसी ने न की होगी ।
अलहम्दुलिल्लाह (अलक़ुर आन, 1, 1)
अर्थात विशेष प्रशंसा केवल परमेश्वर के लिए है ।
अग्निमीले (ऋग्वेद , 1, 1, 1)
हम अग्रणी परमेश्वर का ईलन-स्तवन करते हैं ।
यहाँ कोई उठा पटख़ नहीं चल रही है जैसा कि श्री रवींद्र प्रभात समझ बैठे बल्कि यहाँ आध्यात्मिक-सामाजिक क्लास चल रही है , किंडर गार्टन स्टाइल में। किसी के चले जाने से यह रूकेगी नहीं और न ही किसी के आ जाने से ही यह रूकेगी।
किसी क़ानून के बनाने से यह नहीं रूकेगी क्योंकि ब्लागिंग की प्रकृति ही ऐसी है।
आप पत्रकार हैं और आप जानते हैँ कि लोग Controversial चीजें पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं । इसके बावजूद आपको समझने में देर लगी ।
मैं कन्ट्रोवर्सी खड़ी नहीं करता । वह तो ख़ुद ब ख़ुद खड़ी होती है । मैं तो मात्र अपने विचार लोगों के सामने रखता हूं ।
मेरे विचारों में जो भी ग़लत हो उसे त्याग कर अपने विचारों के परिष्कार के लिए भी मैं सदैव तैयार हूँ । मेरे संवाद और तर्क वितर्क का मकसद भी यही होता है।
इसीलिए न तो आपको ही नाराज होने की कोई जरूरत थी और न ही श्री रवींद्र जी को ही अपने पद से हटने की कोई जरूरत थी और न ही अब किसी को अपनी जगह से हिलने डुलने की ज़रूरत है।
मैं एक टी.वी. सीरियल और फ़िल्म लेखक हूँ । चीजों को रोचक कैसे बनाया जाता है ? यह मैं जानता हूँ ।
आपकी बात को सही होने के साथ रोचक भी होना चाहिए तभी लोग उसे पढ़ेंगे वर्ना अगर वह बोर करेगी तो कौन उसे पढ़ेगा ?
ये चीज़ें आपके लिए सीखने लायक़ हैं । नाराज़ मैं आपसे तो क्या किसी से भी नहीं होता ।
हाँ , नाराज़ होने की एक्टिंग मैं ज़रूर कर सकता हूं क्योंकि मैं एक एक्टर भी हूं।
इस्लाम का प्रचार मेरा मक़सद है और इसे लोगों के अवचेतन में उतारने के लिए ही मैं अपनी सारी कलाओं का प्रयोग किया करता हूं ।
अब आप मेरे अंतिम वाक्य को देखिएगा और सोचिएगा कि जिस बात को मैं गोल कर सकता था , उसे मैंने यहाँ कह दिया । इससे तो लोग और लोगनियाँ बिदक जाएँगे ?
:) :)
यही तो मकसद है ।
लेकिन फिर आप सोचेंगे कि जब लोग बिदक जाएँगे तो फिर इस्लाम का प्रचार कैसे होगा ?
तो जनाब मैंने आपसे कहा था कि मेरी पॉलिसी 'वैल डिज़ाइंड' है जिसे मैंने आज तक किसी को नहीं सिखाया । आप मेरे शिष्य बने थे तो मैंने आपको सिखाना शुरू किया था , जिस पोस्ट में मैंने आपको लताड़ा था और रजनीश न बन सके ज़ाकिर को LBA से बाहर खदेड़ने के लिए कहा था लेकिन आपने मुझे अहंकारी समझ लिया ।
याद रखिए , ताड़ना गुरू का अधिकार है ।
आज ज़ाकिर बाहर है और आप अंदर ?
अभी आपकी और भी ज़्यादा तरक़्क़ी होगी ।
मैंने चाणक्य नीति, विदुर नीती, भ्रतृहरी शतक, हितोपदेश और पंचतंत्र ग़र्ज़ यह कि हर वह चीज़ पढ़ी है जिससे कि मैं अपने शिष्यों का मनोविज्ञान समझकर उनका कल्याण कर सकूं और उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर सकूं खेल खेल में ।
आदमी को खेल और मनोरंजन पसंद है तो उसकी पसंद का ध्यान जो भी रखेगा , सफ़ल रहेगा ।
सलाहियतें किसी सनद की मोहताज नहीं होतीं
@ भाई हरीश जी ! आपने माना है कि मैं एक बहुत क़ाबिल और ज़हीन इंसान हूं ।
आपका शुक्रिया ।
बहन रेखा जी भी ऐसा ही मानती हैं और अपने बारे में मेरी ख़ुद की राय भी यही है और दरअसल यह सारी तारीफ़ उस ख़ुदा की है जिसने मुझे यह रूप और ये गुण बख़्शे , उसी ने असत से सत की उत्पत्ति की , अभाव से भाव को प्रकट किया । मैं जन्म ले सकूं , ज़िंदा रह सकूं , मार्ग और ज्ञान पा सकूं , यह व्यवस्था भी उसी ने की है सो मैं उसकी स्तुति-वंदना इस तरह करता हूँ जैसे कि इस ब्लाग जगत में आज तक किसी ने न की होगी ।
अलहम्दुलिल्लाह (अलक़ुर आन, 1, 1)
अर्थात विशेष प्रशंसा केवल परमेश्वर के लिए है ।
अग्निमीले (ऋग्वेद , 1, 1, 1)
हम अग्रणी परमेश्वर का ईलन-स्तवन करते हैं ।
यहाँ कोई उठा पटख़ नहीं चल रही है जैसा कि श्री रवींद्र प्रभात समझ बैठे बल्कि यहाँ आध्यात्मिक-सामाजिक क्लास चल रही है , किंडर गार्टन स्टाइल में। किसी के चले जाने से यह रूकेगी नहीं और न ही किसी के आ जाने से ही यह रूकेगी।
किसी क़ानून के बनाने से यह नहीं रूकेगी क्योंकि ब्लागिंग की प्रकृति ही ऐसी है।
आप पत्रकार हैं और आप जानते हैँ कि लोग Controversial चीजें पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं । इसके बावजूद आपको समझने में देर लगी ।
मैं कन्ट्रोवर्सी खड़ी नहीं करता । वह तो ख़ुद ब ख़ुद खड़ी होती है । मैं तो मात्र अपने विचार लोगों के सामने रखता हूं ।
मेरे विचारों में जो भी ग़लत हो उसे त्याग कर अपने विचारों के परिष्कार के लिए भी मैं सदैव तैयार हूँ । मेरे संवाद और तर्क वितर्क का मकसद भी यही होता है।
इसीलिए न तो आपको ही नाराज होने की कोई जरूरत थी और न ही श्री रवींद्र जी को ही अपने पद से हटने की कोई जरूरत थी और न ही अब किसी को अपनी जगह से हिलने डुलने की ज़रूरत है।
मैं एक टी.वी. सीरियल और फ़िल्म लेखक हूँ । चीजों को रोचक कैसे बनाया जाता है ? यह मैं जानता हूँ ।
आपकी बात को सही होने के साथ रोचक भी होना चाहिए तभी लोग उसे पढ़ेंगे वर्ना अगर वह बोर करेगी तो कौन उसे पढ़ेगा ?
ये चीज़ें आपके लिए सीखने लायक़ हैं । नाराज़ मैं आपसे तो क्या किसी से भी नहीं होता ।
हाँ , नाराज़ होने की एक्टिंग मैं ज़रूर कर सकता हूं क्योंकि मैं एक एक्टर भी हूं।
इस्लाम का प्रचार मेरा मक़सद है और इसे लोगों के अवचेतन में उतारने के लिए ही मैं अपनी सारी कलाओं का प्रयोग किया करता हूं ।
अब आप मेरे अंतिम वाक्य को देखिएगा और सोचिएगा कि जिस बात को मैं गोल कर सकता था , उसे मैंने यहाँ कह दिया । इससे तो लोग और लोगनियाँ बिदक जाएँगे ?
:) :)
यही तो मकसद है ।
लेकिन फिर आप सोचेंगे कि जब लोग बिदक जाएँगे तो फिर इस्लाम का प्रचार कैसे होगा ?
तो जनाब मैंने आपसे कहा था कि मेरी पॉलिसी 'वैल डिज़ाइंड' है जिसे मैंने आज तक किसी को नहीं सिखाया । आप मेरे शिष्य बने थे तो मैंने आपको सिखाना शुरू किया था , जिस पोस्ट में मैंने आपको लताड़ा था और रजनीश न बन सके ज़ाकिर को LBA से बाहर खदेड़ने के लिए कहा था लेकिन आपने मुझे अहंकारी समझ लिया ।
याद रखिए , ताड़ना गुरू का अधिकार है ।
आज ज़ाकिर बाहर है और आप अंदर ?
अभी आपकी और भी ज़्यादा तरक़्क़ी होगी ।
मैंने चाणक्य नीति, विदुर नीती, भ्रतृहरी शतक, हितोपदेश और पंचतंत्र ग़र्ज़ यह कि हर वह चीज़ पढ़ी है जिससे कि मैं अपने शिष्यों का मनोविज्ञान समझकर उनका कल्याण कर सकूं और उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रेरित कर सकूं खेल खेल में ।
आदमी को खेल और मनोरंजन पसंद है तो उसकी पसंद का ध्यान जो भी रखेगा , सफ़ल रहेगा ।
एक सशक्त और यादगार बहस .
हम बोलेगा तो बोलेगा कि बोलता है....मैं चुप रहूंगा..
किसी भी आदर्श नारी का अंधानुकरण सम्भव ही नहीं, यहां तक कहुंगा किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का हुबहु अनुकरण हो ही नहीं सकता।
इस प्रश्न कथन "आज की नारी को किस प्राचीन भारतीय नारी का अनुकरण करना चाहिए" में तथ्य का लोप किया जा रहा है।
अनुकरण सदैव गुणों का होता है, उसे गुणानुकरण कहना चाहिये, किसी आदर्श में यदि कोई अतिश्योक्ति है तो अपवाद के रूप में लिया जाता है। कोई विशेष घटना है तो उस घटना को हुबहू घटित नहीं किया जा सकता। उसमें कोई न्यून अवगुण है तो त्याज्य है और गुण है तो स्वीकार्य है।
भारतिय संस्कृति में आदर्शों के अनुकरण से तात्पर्य गुणानुकरण से है।