वास्तव में हम स्वयं ही भ्रष्टाचार के प्राथमिक वाहक है: Saleem Khan
एक और गांधी... अन्ना हज़ारे |
अन्ना हज़ारे ने अंततः भ्रष्टाचार की ये लडाई वक्ती तौर पर सरकार के विरुद्ध तो जीत ही ली, मगर अभी इसे फ़ाइनल जीत समझना हम सबकी भूल होगी. अभी तो ये शुरुआत है. अन्ना हज़ारे की तरह हमें और आपको अभी अपने नफ़स से यह लड़ाई सबसे पहले लड़नी है. जब तक हम अपने आप को भ्रष्टाचार से अलग नहीं करेंगे तब तक न तो हम अन्ना हज़ारे के सच्चे समर्थक कहला सकते हैं और न ही भ्रष्टाचार को ख़त्म कर सकते हैं.
हमारे समाज में भ्रष्टाचार इस क़दर समा चुका है जैसे हमारे शरीर में ख़ून और जब ख़ून ही हराम का खा रहा हो तो क्या हमारा देश के प्रति कोई भी कृत्य हरामी न होगा. ! हमारे देश के नेता. अभिनेता, अफ़सर और बाबू से लेकर हमारे देश के उद्योगपति, व्यापारी और दुकानदार तक व प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक, न्यूज़ चैनल के हकीमों से लेकर आम पत्रकार तक सब भ्रष्टाचार रुपी ज़हरीली मलाई के दलदल में इस क़दर फंसे हैं की इससे उबरना अब मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा हो गया है.
लेकिन अन्ना हज़ारे जी का शुक्रिया कि उन्होंने इस देशद्रोही रुपी कृत्य को जज़्बाती रूप से हमें अवगत ही नहीं कराया बल्कि इसके लिए जन लोकपाल नामक बिल का भी आग़ाज़ सरकार से करवाने में सफल हुए. अब ये भविष्य की बात है कि जन लोकपाल का भविष्य क्या होगा!?
हमारे मुल्क़ भारत में सिर्फ भ्रष्टाचार ही एक ऐसी समस्या नहीं है जो हमारे देश को गर्त में डाल रहा है बल्कि इसके अलावा ग़रीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा और इन सबसे बड़ी किसानों की आत्महत्याएं भी बहुत बड़ी समस्या है. एक आंकड़े के अनुसार नक्सली व अन्य आतंकी हमलों में मारे गए लोगों की संख्या से कई गुना ज़्यादा भारत में किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. देश के आज़ाद होने से पहले यहाँ अंग्रेज़ों ने अपने स्वयं के हित के लिए भ्रष्टाचार ही नहीं बल्कि वह सारी हदें पार कर दी थीं जिससे हमें निजात लेनी बहुत ज़रूरी थी और हिन्दू और मुस्लिम दोनों ने कंधें से कन्धा मिला कर देश को आज़ाद करवा ही लिया मगर देश आज़ाद होने से पहले ही दो टुकड़ों में बँट गया. फ़िर देश के कर्णधारों ने ही देश को इस क़दर लूटा जिस तरह अंग्रेज़ों ने भी नहीं लूटा होगा.
सलीम ख़ान |
वास्तव में हम स्वयं ही भ्रष्टाचार के प्राथमिक वाहक है. हम अपना काम करवाने के लिए सबसे पहले एक शब्द इस्तेमाल करते हैं और वह है 'जुगाड़'. किसी भी ऑफिस में अफ़सर से काम करवाने के लिए हम ख़ुद ही रिश्वत देने की पेशकश करते हैं. भ्रष्टाचार सहित सभी सामाजिक बिमारियों के लिए न जाने कितने प्रयास किये गए मगर ये सभी बिमारियें घटने के बजाये बढ़ती ही चली गयीं. हमें अब सोचना होगा कि हम किस क़दर गिर चुके हैं. साथ ही हमें यह भी सोचना होगा कि वर्तमान में आत्मसात की गयी तहज़ीब क्या उक्त दर्शित बिमारियों को जड़ से मिटाने की क़ुव्वत रखती है अथवा नहीं और इसका जवाब यदि ना में है तो हमें कौन सी तहज़ीब और तरीका अख्तियार करना होगा जो इसके समूल नाश की ताक़त रखता हो !
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