हंगामा है क्यूँ बरपा...?
फ़िलहाल कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है । पहले से भ्रष्टाचार व घोटालों से घिरी इस सरकार की नीयत पर सवाल उठते रहे हैं । अब एक कमजोर लोकपाल बिल बना कर केवल रस्म -अदायगी करने का आरोप लग रहा है ।
इस सारी रस्साकसी से कई प्रश्न उठते है जिनका उत्तर खोजने की जिम्मेवारी हमारे राजनीतिक तंत्र के संवाहकों की है -
१ - लोक पाल की व्यवस्था में प्रधान मंत्री अथवा न्यायपालिका को रखने से उनके पदों की गरिमा क्यों कम होगी?
२-लोकपाल बिल पर अन्य राजनीतिक अपनी स्पष्ट राय क्यों व्यक्त नहीं कर रहे ? केवल सिविल सोसायटी एवं सरकार के बीच हो रही नूरा कुश्ती का मजा ले रहे हैं ।
३-क्या लोकपाल की व्यस्था हमारे भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र पर लगाम लगाने में सक्षम होगी ?
४ - क्या सिविल सोसायटी की अनशन व सत्याग्रह के द्वारा अपनी मांगों ( भले ही वे लोकोपयोगी लगती हों ) को मनवाने का धमकी भरा रुख लोकतान्त्रिक कहा जायेगा ?
५-क्या भारत का मतदाता इतना सक्षम हो गया है कि आगे आने वाले आम चुनावों में इस मुद्दे पर वोट करे ?
६-क्या इस मुद्दे पर हंगामा करने से पहले इस बिल पर संसद की भूमिका देखने के बाद ही कोई सत्याग्रह आदि करना उचित नहीं होगा ?इसके लिये सांसदों को समझाने का काम भी किया जा सकता है ।
७-क्या जरूरत आम आदमी को अपने अधिकारों के प्रति शिक्षित करने व उनमें राजनीतिक जागरूकता लाने की नहीं है और इस दिशा में राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों (सिविल सोसायटी सहित ) को एक स्पष्ट कार्य योजना नहीं बनाना चाहिए ।
जब तक इन मुद्दों पर खुले मन से विचार या कार्य नहीं होगा ,तब तक भ्रम का वातावरण बना ही रहेगा .
लोकपाल बिल के बारे में वाकई आम आदमी को इतने विस्तार से पता नहीं है और सिविल सोसायती ही उसका नेतृत्व कर रही है. आम मतदाता कितना जनता है राजनीति के पेंचों को? हमारे देश के लोकतंत्र के कर्णधार कौन है? हमारे गाँव वाले , श्रमिक, रिक्शे वाले और वह तबका जो अनपढ़ और घर के अन्दर रहने वाला है. क्या हाई सोसायती वाले मतदान के लिए आते हैं , बिल्कुल नहीं . उस दिन मिलें बंद नहीं रहती , कुछ घंटों कि छुट्टी दी जाती है . जो मतदान के लिए आता है वह लोकतंत्र और अपने अधिकारों से वाकिफ नहीं है. बस इतना चिल्ला सकता है कि सरकार मंहगाई बढाती चली जा रही है लेकिन एक बार बाजी उनके हाथ से निकाल चुकी है तो फिर उसे वह सब भुगतना है जो सरकार उसके मतदान के बदले उसको उपहार में दे रही है.
संसद में कितने सांसद हैं जो अपनी स्वतन्त्र राय रखते हैं? कितने सांसद है जो पूरे सत्र के दौरान सिर्फ मेज थपथपाने के अतिरिक्त कुछ करते हों. कितने आपन निश्चित कार्यकाल में उपस्थित होते हैं? फिर राय किसकी जानेगे?
आम मतदाता सिर्फ रोटी , कपड़ा और बच्चों कि पढ़ाई के लिए जूझ रहा है, अगर वह राजनीति पर चर्चा करने बैठ जाएगा तो फिर इसके लिए कब सोचेगा? हमारा लोकतंत्र बेमानी हो चुका है. वो संविधान जो गुलामी के हालातों में बना था उसको पुनर्संसोधनों कि नहीं पुनर्निर्माण कि जरूरत है. हालात बहुत बदल चुके हैं अब उसे भी बदलना होगा. कोई भी बिल सिर्फ सत्तारूढ़ दल के स्वार्थों के अनुरुप नहीं बल्कि देश के हितों के अनुरुप होना चाहिए और उसके पास होने से पूर्व उसकी रूपरेखा पर आम मतदाता को चर्चा का हक़ होना जरूरी है. संसद में बैठे प्रतिनिधि तो मुँह तक नहीं खोलना जानते हैं वे सिर्फ पार्टी के मुहरे बने हैं और जहाँ उन्हें उनके आका चल देते हैं वही बैठ जाते हैं.
इस पर विचार आम आदमी न कर सके तो आप जैसे राजनीति शास्त्र के ज्ञाता बेहतर विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं और आने वाली पीढ़ी जो अभी मतदाता बनाने कि राह पर सही दिशा और सही स्वरूप से परिचय करा सकते हैं.
लोकपाल नहीं कबाडपाल बना मिलेगा।