आज यह ईमेल मिली जो कि अमर कुमार साहब की मौत की ख़बर दे रही है
हम उन्हें ज़्यादा नहीं जानते क्योंकि हमारे ब्लॉग पर वे कभी आए नहीं और हमने उन्हे कभाी पढ़ा नहीं लेकिन फिर भी उनकी मौत से हमें भी एक झटका तो लगा ही है।
देखिए ईमेल -
[ब्लॉग की ख़बरें] दीजिये डा. अमर कुमार जी को अनूठी श्रद्धांजलि
show details 8:22 AM (1 hour ago) |
डॉ.अमर कुमार एक बहुविध अध्ययनशील ,प्रखर मेधा के धनी ब्लॉगर थे -साथ ही जिजीविषा ऐसी की अपनी बीमारी के बाद भी बिना इसका अहसास लोगों को दिलाये वे लगातार लोगों के चिट्ठों को ध्यान से पढ़ते और सारगर्भित टिप्पणियाँ करते ...
डा. साहब अक्सर टिप्पणी पर मॉडरेशन लगाए जाने के विरोधी थे।
इसके खि़लाफ़ वह अक्सर ही आवाज़ बुलंद किया करते थे।
उनकी ख़ुशी के लिए कम से कम एक दिन सभी लोग अपने ब्लॉग से मॉडरेशन हटा लें तो उनके लिए हमारी तरफ़ से यह एक सम्मान होगा।
वह एक ज्ञानी आदमी थे।
उनकी टिप्पणी उनके ज्ञान का प्रमाण है।
जिसे आप देख सकते हैं इस लिंक पर
डा. साहब अक्सर टिप्पणी पर मॉडरेशन लगाए जाने के विरोधी थे।
इसके खि़लाफ़ वह अक्सर ही आवाज़ बुलंद किया करते थे।
उनकी ख़ुशी के लिए कम से कम एक दिन सभी लोग अपने ब्लॉग से मॉडरेशन हटा लें तो उनके लिए हमारी तरफ़ से यह एक सम्मान होगा।
वह एक ज्ञानी आदमी थे।
उनकी टिप्पणी उनके ज्ञान का प्रमाण है।
जिसे आप देख सकते हैं इस लिंक पर
वसुधा एक है और सारी धरती के लोग एक ही परिवार है Holy family
डा० अमर कुमार said...
लँगूर = इँसानी फ़ितरत का एक चालाक ज़ानवरमस्जिद की मीनारें = एक फ़िरके के तरफ़दार
मंदिर के कंगूरे = दूसरे तबके की दरोदीवार
यह मुआ लँगूर सदियों से दोनों बिल्लियों को लड़वा कर अपनी रोटी सेंक रहा है !
अनवर साहब मुआफ़ी अता की जाये तो एक सीधा सवाल आपसे है, अल्लाह के हुक्म की तामील में कितने मुस्लमीन भाई ज़ेहाद अल अक़बर को अख़्तियार कर पाते हैं और इसके दूसरी ज़ानिब क्यों इन भाईयों को ज़ेहाद अल असग़र का रास्ता आसान लगता है ? वज़ह साफ़ है, अरबी आयतों के रटे रटाये मायनों में दीन की सही शक्लो सूरत का अक्स नहीं उतरता ।
यही बात शायद हम पर भी लागू होता हो, चँद सतरें सँसकीरत की, जिन्हें हम मँत्र कहते कहते इँसानी के तक़ाज़ों से मुँह फेर लेते हैं, यह क्या है ? यह चँद चालाक हाफ़िज़-मुल्लाओं औए शास्त्री-पँडितों की रोज़ी है, लेकिन बतौर आम शहरी अगर हम इन्हें समझ कर भी नासमझ बने रहने में अपने को महफ़ूज़ पाते हैं , हद है !
ज़ेहाद का क़ुरान में मतलब है- बुराइयों से दूर रहने के लिए मज़हब को अख़्तियार करना ...और इसके दो तरीके बताए गए हैं। एक तो तस्लीमातों का रास्ता-ज़ेहाद अल अक़बर ....इसका मतलब है आदमी अपनी बुराइयों को दूर करें....दूसरा है ज़ेहाद अल असग़र... अपने दीन की हिफ़ाज़त के लिए भिड़ना.... अगरचे इस्लाम पर ईमान लाने में कोई अड़चन लाये,...किसी मुस्लिम बिरादरान पर कोई किस्म का हमला हो, मुसलमानों से नाइँसाफ़ी हो रही हो, ऐसी हालत में इस तरह के हथियारबन्द ज़ेहाद छेड़ने की बात है, मगर अब इसका मिज़ाज़ ओ मतलब ही बदल गया है...ज़ेहन में ज़ेहाद का नाम आते ही सियासी मँसूबों की बू आती है, यही वज़ह है कि ज़ेहाद के नाम को दुनिया में बदनामियाँ मिलती आयीं हैं ।
हम लड़ भिड़ कर एक दूसरे की तादाद भले कम कर लें, एक दूसरे के यक़ीदे को फ़तह नहीं कर सकते.. तो फिर क्या ज़रूरत है.. एक दूसरे की चहारदिवारी में झाँकने की ?
लँगूर = इँसानी फ़ितरत का एक चालाक ज़ानवरमस्जिद की मीनारें = एक फ़िरके के तरफ़दार
मंदिर के कंगूरे = दूसरे तबके की दरोदीवार
यह मुआ लँगूर सदियों से दोनों बिल्लियों को लड़वा कर अपनी रोटी सेंक रहा है !
अनवर साहब मुआफ़ी अता की जाये तो एक सीधा सवाल आपसे है, अल्लाह के हुक्म की तामील में कितने मुस्लमीन भाई ज़ेहाद अल अक़बर को अख़्तियार कर पाते हैं और इसके दूसरी ज़ानिब क्यों इन भाईयों को ज़ेहाद अल असग़र का रास्ता आसान लगता है ? वज़ह साफ़ है, अरबी आयतों के रटे रटाये मायनों में दीन की सही शक्लो सूरत का अक्स नहीं उतरता ।
यही बात शायद हम पर भी लागू होता हो, चँद सतरें सँसकीरत की, जिन्हें हम मँत्र कहते कहते इँसानी के तक़ाज़ों से मुँह फेर लेते हैं, यह क्या है ? यह चँद चालाक हाफ़िज़-मुल्लाओं औए शास्त्री-पँडितों की रोज़ी है, लेकिन बतौर आम शहरी अगर हम इन्हें समझ कर भी नासमझ बने रहने में अपने को महफ़ूज़ पाते हैं , हद है !
ज़ेहाद का क़ुरान में मतलब है- बुराइयों से दूर रहने के लिए मज़हब को अख़्तियार करना ...और इसके दो तरीके बताए गए हैं। एक तो तस्लीमातों का रास्ता-ज़ेहाद अल अक़बर ....इसका मतलब है आदमी अपनी बुराइयों को दूर करें....दूसरा है ज़ेहाद अल असग़र... अपने दीन की हिफ़ाज़त के लिए भिड़ना.... अगरचे इस्लाम पर ईमान लाने में कोई अड़चन लाये,...किसी मुस्लिम बिरादरान पर कोई किस्म का हमला हो, मुसलमानों से नाइँसाफ़ी हो रही हो, ऐसी हालत में इस तरह के हथियारबन्द ज़ेहाद छेड़ने की बात है, मगर अब इसका मिज़ाज़ ओ मतलब ही बदल गया है...ज़ेहन में ज़ेहाद का नाम आते ही सियासी मँसूबों की बू आती है, यही वज़ह है कि ज़ेहाद के नाम को दुनिया में बदनामियाँ मिलती आयीं हैं ।
हम लड़ भिड़ कर एक दूसरे की तादाद भले कम कर लें, एक दूसरे के यक़ीदे को फ़तह नहीं कर सकते.. तो फिर क्या ज़रूरत है.. एक दूसरे की चहारदिवारी में झाँकने की ?
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Posted By DR. ANWER JAMAL to ब्लॉग की ख़बरें at 8/24/2011 07:52:00 PM
Dr saahab ki yad me---
shraddhaanjali ||
शुक्रवार --चर्चा मंच :
चर्चा में खर्चा नहीं, घूमो चर्चा - मंच ||
रचना प्यारी आपकी, परखें प्यारे पञ्च ||
Dr saahab ki yad me---
shraddhaanjali ||
Dr. Amar Kumar ko hardik shradhanjali.