कसाई भी बकरे की गर्दन उड़ाने से पहले
दूकान के आगे पर्दा लगा देता है,
अजनबियों को बाहर भगा देता है,
पता नहीं कौन चर्चा फैला देदूकान के आगे पर्दा लगा देता है,
अजनबियों को बाहर भगा देता है,
कि कसाई, वाकई कसाई होता है,
रहमदिली दूर की बात है उसके लिए
वो सिर्फ खून और गोश्त का सौदाई होता है,
खूंटे से बंधा निरीह बकरा देखता है सब,
परदे को खिंचते हुए,
लोंगो को बाहर जाते हुए,
गंडासे में धार लगते हुए,
और गंडासा लिए हाथ को
अपनी गर्दन के ऊपर उठते हुए,
परदे को खिंचते हुए,
लोंगो को बाहर जाते हुए,
गंडासे में धार लगते हुए,
और गंडासा लिए हाथ को
अपनी गर्दन के ऊपर उठते हुए,
सामुहिक विद्रोह की शक्ति न रखने वाला बकरा
थोड़े से चारे की लालच में अपनी जान गंवा देता है,
और अन्नदाता की खाल में छिपे भेडिए को
अपने ही गोश्त और खून का सौदाई बना देता है,
थोड़े से चारे की लालच में अपनी जान गंवा देता है,
और अन्नदाता की खाल में छिपे भेडिए को
अपने ही गोश्त और खून का सौदाई बना देता है,
आज राजनीति और कसाई की दूकान में
कोई फर्क नहीं है ,
और राजनीति में तो
जिबह से बेहतर कोई गुडवर्क नहीं है,
कोई फर्क नहीं है ,
और राजनीति में तो
जिबह से बेहतर कोई गुडवर्क नहीं है,
विडम्बना है कि अब बकरे खुद
कसाई का चुनाव करते हैं,
और फिर बा-इत्मिनान मरते हैं,
कसाई का चुनाव करते हैं,
और फिर बा-इत्मिनान मरते हैं,
नारियों में परदे की क्वालिटी पहचानने
और लगाने का जन्मजात गुण है,
और फिर बाहर से अन्दर कुछ न दिखे
इसमें पर्दा खुद निपुण है,
और लगाने का जन्मजात गुण है,
और फिर बाहर से अन्दर कुछ न दिखे
इसमें पर्दा खुद निपुण है,
दूकान दिलाने वाले “बापू” को भी
ऊपर से पर्दा ही दिख रहा है,
उन्हें नहीं पता कि दूकान के पीछे वाली नाली से
उनकी अपनी बकरी का खून रिस रहा है,
ऊपर से पर्दा ही दिख रहा है,
उन्हें नहीं पता कि दूकान के पीछे वाली नाली से
उनकी अपनी बकरी का खून रिस रहा है,
गोपालजी
बापू की बकरी बेचारी कसाई के हाथों कटने को सचमुच आजाद है…या बेबस……आजाद तो है कसाई……स्वतंत्रता दिवस की बहुत बहुत बधाई……