उत्तर प्रदेश में आठ पुलिस वालों की नृशंस हत्या करने वाला दुर्दांत अपराधी विकास दुबे आखिर मध्य प्रदेश के उज्जैन में पकड़ा गया और उसका उत्तर प्रदेश ले जाते समय कानपुर पहुँचने से पहले ही पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया. कहा गया कि उसने पुलिस की गाड़ी पलटने के बाद पुलिस वालों के हथियार छीन कर भागने की कोशिश की थी . जिस ढंग से उसे मारा गया इसकी संभावना मीडिया पर पहले से व्यक्त की जा रही थी.
कुछ समय पूर्व हैदराबाद में युवा महिला डाक्टर से रेप व उसके हत्यारों का जब इसी प्रकार एनकाउंटर हुआ, उस समय जनता में बलात्कारियों और हत्यारों के विरुद्ध और हैदराबाद पुलिस के पक्ष में जो समर्थन और प्रशंसा का वातावरण बना था, शायद उसी से प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश एसटीएफ द्वारा इस दुर्दांत अपराधी विकास दुबे और उसके कुछ साथियों का एनकाउंटर किया गया.
समाज के एक वर्ग द्वारा इस ' जंगल के न्याय' के प्रति समर्थन दिया गया है जो कानून और न्याय की दृष्टि से काफी खतरनाक है. हमारे देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लागू हुए सात दशक से अधिक समय हो गया हो, पर लोकतांत्रिक मूल्यों को हम अभी तक पूरी तरह अंगीकार नहीं कर पाये हैं. तात्कालिक रूप में भावुकता में कभी- कभी आम जन का इस 'जंगल के न्याय' को भी समर्थन दिखाई देने लगता है, पर इस प्रवृत्ति के दूरगामी घातक परिणाम होने की संभावना है.
वैसे ही समाज में अपराधीकरण बढ़ता जा रहा है ऐसे में ऐसी घटनाएं निश्चित रूप से हमें बर्बरता की ओर ही अग्रसर करेंगी.
दुर्दांत अपराधी को तुरंत सजा का निर्णय ( एनकाउंटर) और पुलिस व राज्य सरकार द्वारा अपनी पीठ थपथपाने का यह कार्य तात्कालिक रूप में समाज के एक वर्ग द्वारा भले ही उचित माना जा रहा हो , पर यह घोर अपरिपक्वता की ओर संकेत करता है।
यह भी कहा जा रहा है कि कई बड़ी मछलियों (नेता व अधिकारी) के नाम सामने न आ जायें, इसीलिए यह एनकाउंटर कर दिया गया. हमारे देश में राजनीतिक नेताओं व अपराधियों का गठजोड़ नई बात नहीं रह गयी है. लोग यह मानने लगे हैं कि राजनेता अपने हित में कुछ भी कर सकते हैं। इस तरह की बढ़ती प्रवृत्ति हमारे लोकतंत्र व संवैधानिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है.
एक दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह भी है कि हमारी न्याय की प्रक्रिया इतनी दोषपूर्ण व असहाय हो गयी है कि पुलिस थाने में राज्यमंत्री दर्जे के व्यक्ति की हत्या कर भी विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी के विरुद्ध कोई गवाही ( पुलिस कर्मी भी) नही देता और वह छूट जाता है. पर न्याय व्यवस्था की इस खामी को दूर करने की जगह एनकाउंटर जैसे उपायों को सामाजिक स्वीकृत देना 'जंगल के न्याय' को ही स्वीकृति देना है, जो सभ्य शासन के लिये न केवल शर्मनाक है बल्कि अभिशाप भी है.
हमेँ विचार करना होगा कि समाज की इस विकृति को कैसे दूर करें? वाहवाही के चक्कर में 'अपराधियों को ठोक दो' की नीति हमें बर्बरता की ओर ले जायेगी और कब इसके शिकार निर्दोष नागरिक व राजनीतिक विरोधी होनें लगें, कोई नहीं जानता.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है:
“कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा कोई भी व्यक्ति को उसके जीवित रहने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता.”
इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को अपने जीवन से वंचित करने से पहले, राज्य को ' आपराधिक प्रक्रिया संहिता' के प्रावधानों के अनुसार उचित न्यायिक प्रक्रिया को अपनाना जरूरी है.
अभियुक्त को पहले उसके खिलाफ आरोपों के बारे में सूचित करना चाहिए, फिर उसे स्वयं का बचाव करने का अवसर दिया जायेगा, वह अपना वकील कर सकता है. इस प्रक्रिया के बाद यदि वह दोषी पाया जाता है, तभी उसे अदालत मृत्युदंड दे सकती है।
यह पाया गया है कि ‘एनकाउंटर’ अधिकतर सही नहीं होते. इनमें सभी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर तथाकथित अपराधी माार दिया जाता है। दुर्दांत अपराधियों के विरुद्ध कोई सबूत या गवाही नहीं मिलती इसलिए वे छूट जाते हैं और
आतंक फैलाते हैं अतः उनसे निपटने का एकमात्र तरीका 'एनकाउंटर' ही है, एक खतरनाक व् असंवैधानिक सोच है और इसका घोर दुरुपयोग हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 'प्रकाश कदम बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता (2011)' मामले में कहा कि पुलिस द्वारा किए गए फर्जी ‘एनकाउंटर’ सोची समझी हत्याओं के अलावा कुछ नहीं हैं और उन्हें करने वालों को ‘दुर्लभतम मामलों के दुर्लभतम’ ( rarest of rare) की श्रेणी में रख कर मौत की सजा दी जानी चाहिए।
जरूरत न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावी बनाने की है जिसमें लोगों को त्वरित व निष्पक्ष न्याय मिल सके. ऐसे सामाजिक व राजनीतिक पर्यावरण के निर्माण की आवश्यकता है जिसमें सत्ता (पुलिस) - अपराधी गठजोड़ का पर्दाफ़ास हो. सत्ता से जुड़े एवं अन्य राजनीतिक नेता सार्वजनिक जीवन में उच्च व साफ - सुथरी छवि निर्मित करें. यद्यपि वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक परिवेश में यह दिवास्वप्न लगता है, फिर भी आशावादी रहना ही उचित होगा.
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