मुक्तक सलिला
संजीव
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ढाई आखर से करे श्रृंगार जो कवि है वही।
तपिश का भी जो करे सत्कार हँस कवि है वही।।
पान ब्रह्मानंद का जो करे - करवाए 'सलिल'-
शत्रु हित जो हो सके अंगार हँस कवि है वही।।
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स्वाति नखत में सलिल बूँद गह सीपी गढ़ती मोती है।
सलिला जग मालिन्य सकल कलकल धारा से धोती है।।
दीप-दीपिका तिमिर मिटाकर सब जग ज्योतित करते हैं-
स्वेद बूँद बंजर धरती पर आशा-फसलें बोती है।।
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तेरे नाम लिखा है जो खत, गीत उन्हें दुनिया कहती है।
भाव तरंगित नेह नर्मदा, शब्द-शब्द बहती रहती है।।
बाहर-भीतर रहा एक सा, 'सलिल' आवरण ओढ़ न पाया-
गरल पान कर अधर हँसे, लख नाहक ही दुनिया दहती है।।
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जीवन की आपाधापी में, हो न सका दर्पण देखूँ?
कर तलाश थक-चुका समर्पण, चाह कभी अर्पण देखूँ ।।
करो 'सलिल' अभिषेक शीश का, या पद-प्रक्षालन कर लो-
करे आचमन अधर न हिचको, चुप चाहो तर्पण देखूँ ।।
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