श्रद्धांजलि :
आदिवासियों में स्वातंत्र्य चेतना जगानेवाला नायक बिरसा मुंडा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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बिरसा मुंडा भारत के झारखण्ड राज्य में स्थित छोटा नागपुर पठार में रहनेवाली मुंडा जनजाति के जन जागरण हेतु याद किये जाते हैं। बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवंबर १८७५ को झारखण्ड के राँची के खूंटी जिले के उलीहातू गाँव में रहनेवाले गरीब किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता सुगना पुर्ती (मुंडा) और माता-करमी पुर्ती (मुंडाईन) के सुपुत्र बिरसा पुर्ती (मुंडा) थीं। उन्होंने साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद, चाईबासा जी0ई0एल0चर्च (गोस्नर एवं जिलकल लुथार) विद्यालय में पढ़ाई की। अंग्रेजों द्वारा अपने मुंडा आदिवासियों का शोषण और उत्पीड़न देखकर उनका मन हमेशा दुखी रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों के दमन से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। १८९४ में मानसून के छोटा नागपुर पठार में भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। वे आदिवासियों में फैले अन्धविश्वास जैसे भूत प्रेत डाईन प्रथा को दूर करने के लिय लोंगों को प्रेरित किया करते थे।
मुंडा विद्रोह
बिरसा मुंडा के अथक प्रयासों से आदिवासियों में शिक्षा का प्रसार तथा नव चेतना का संचार हुआ। १ अक्टूबर १८९४ को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया। १८९५ में उन्हें गिरफ़्तार कर दो साल के कारावास की सजा दी गयी और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में रखा गया। बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
१८९७ से १९०० के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहनेवाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दी। अगस्त १८९७में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। १८९८ में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
जनवरी १९०० में डोम्बरी पहाड़ पर एक विकट संघर्ष हुआ जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये । उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। अंग्रेजों ने बिरसा के कुछ शिष्यों को गिरफ़्तार कर लिया किन्तु बिरसा बच निकले। अन्त में स्वयं बिरसा भी ३ फरवरी १९०० को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। अत्याचारी अंग्रेजों ने राँची कारागार में ९ जून१९०० को जहर देकर बिरसा मुंडा की जान ले ली । शहीद बिरसा मुंडा मरकर भी अमर हो गए। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और पश्चिम के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
बिरसा मुण्डा की समाधी राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गए है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथाबिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्ड़ा भी है। जबलपुर में अधारताल तिराहे पर बिरसा मुंडा की आदमकद मूर्ति स्थापित कर केवल आदिवासी ही नहीं, अपितु समस्त समाज उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्मरण कर श्रद्धांजलि देता है। +++++++++
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