कार्यशाला
रचना-प्रतिरचना
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रचना
ग़ज़ल - प्राण शर्मा
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देश में छाएँ न ये बीमारियाँ
लोग कहते हैं जिन्हें गद्दारियाँ
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ऐसे भी हैं लोग दुनिया में कई
जिनको भाती ही नहीं किलकारियाँ
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क्या ज़माना है बुराई का कि अब
बच्चों पर भी चल रही हैं आरियाँ
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राख में ही तोड़ दें दम वो सभी
फैलने पाएँ नहीं चिंगारियाँ
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`प्राण`तुम इसका कोई उत्तर तो दो
खो गयी हैं अब कहाँ खुद्दारियाँ
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प्रतिरचना
मुक्तिका - संजीव
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हैं चलन में आजकल अय्यारियाँ
इसलिए मुरझा रही हैं क्यारियाँ
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पश्चिमी धुन पर थिरकती है कमर
कौन गाये अब रसीली गारियाँ
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सूक्ष्म वसनों का चलन ऐसा चला
बदन पर खीचीं गयीं ज्यों धारियाँ
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कान काटें नरों के बचकर रहो
अब दुधारी हो रही हैं नारियाँ
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कौन सोचे देश-हित की बात अब
खेलते दल आत्म-हित की पारियाँ
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