*
कवि दीपों को करे प्रज्वलित हरे दीपिका तम सारा
कविताओं की दीपशिखा से हर लेंगे हम अँधियारा
रहें शारदा मातु सदय तो रमा-उमा भी खुश होंगी
शब्द सुमन ले हम काटेंगे अंधियारे की यह कारा
हाइकु सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
झिलमिलायीं
दीपकों की कतारें
खिलखिलायीं.
*
सूरज ढला
तिमिर को मिटाने
दीपक जला.
*
ओबामा बम
नेताओं की घोषणा
दोनों बेकाम.
*
मना दिवाली
हो गयी जेब खाली
आगे कंगाली.
*
देव सोये हैं
जागेंगे ग्यारस को
पूजा कैसे की?.
*
न हो उदास
दीप से बोली बाती
करो प्रयास.
*
दीपों ने घेरा
हारा, भागा अँधेरा
हुआ सवेरा..
*
भू पर आये
सूरज के वंशज
दीपक बन.
* महल छोड़
कुटियों में जलते
चराग हँसते.
*
फुलझड़ियाँ
आशाओं की लड़ियाँ
जगमगायीं.
*
बन अचला
तो स्वागत, वर्ना जा
लक्ष्मी चंचला.
*
किसी की सगी
ये लक्ष्मी नहीं रही
फिर भी पुजी.
*
है उपहार
ध्वनि-धुआँ प्रदूषण
मना त्यौहार.
*
हुए निसार
खुद पर खुद ही
हम बेकार.
*
लिया उधार
खूब मना त्यौहार
अब बेज़ार.
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१०-११-२०१०
षट्पदी
*
संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
*
संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
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कविता मेरी प्रेरणा, रहती पल-पल साथ
कभी मिलाती है नज़र, कभी थामती हाथ
कभी थामती हाथ, दीपिका-दीपक बनकर
कभी कल्पना होती सच निश-दिन पग रखकर
करे साधना 'सलिल' संग हो सलिला सविता
बन तरंग प्रवहित होती कलकल कर कविता
*
प्यार कण-कण से करे तो पुण्य है
मोह को पल-पल तजे तो पुण्य है।
संतुलन आचार और विचार का-
साधना ही कल्पना-नैपुण्य है।।
मोह को पल-पल तजे तो पुण्य है।
संतुलन आचार और विचार का-
साधना ही कल्पना-नैपुण्य है।।
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हाथ में दे हाथ जो वह सत्य है
माथ ऊँचा करे जो सद्कृत्य है
जो न अपने साथ उसमें भरमकर
विधाता को दोष दें, अपकृत्य है
*
माथ ऊँचा करे जो सद्कृत्य है
जो न अपने साथ उसमें भरमकर
विधाता को दोष दें, अपकृत्य है
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ढोंग करता जो उसे ठुकराइये
याद भी मन में न उसकी लाइये
कल्पना भी कीजिए मत स्वप्न में-
मोह में उसके न मन भरमाइये
याद भी मन में न उसकी लाइये
कल्पना भी कीजिए मत स्वप्न में-
मोह में उसके न मन भरमाइये
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कुछ न कहता मौन लेकिन बोलता
राज खुद ही राज पल-पल खोलता
आदमी की सभ्यता है मात्र यह
बात कहता बाद, पहले तोलता
*
राज खुद ही राज पल-पल खोलता
आदमी की सभ्यता है मात्र यह
बात कहता बाद, पहले तोलता
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प्यार देता जिंदगी, कब मारता
प्यार जीता तभी जब सुख वारता
जीतता है प्यार जीवन-युद्ध में
तभी जब-जब दिखे जग को हारता
*
प्यार जीता तभी जब सुख वारता
जीतता है प्यार जीवन-युद्ध में
तभी जब-जब दिखे जग को हारता
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तुम थे अपने, पराये कहो क्यों हुए?
घूँट विष के पिलाये, न क्यों खुद पिए?
दीपिका बन जले हम तुम्हारे लिए-
तुम न दीपक बने क्यों हमारे लिए?
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घूँट विष के पिलाये, न क्यों खुद पिए?
दीपिका बन जले हम तुम्हारे लिए-
तुम न दीपक बने क्यों हमारे लिए?
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सत्य कहने में करें हम शर्म क्यों?
समझ कर भी न समझें मर्म क्यों?
आप मुझसे श्रेष्ठ हैं, मैं जानता -
धर्म से कमतर कहे जग कर्म क्यों??
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समझ कर भी न समझें मर्म क्यों?
आप मुझसे श्रेष्ठ हैं, मैं जानता -
धर्म से कमतर कहे जग कर्म क्यों??
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प्यार का तो अर्थ ही सुख त्याग है
मोह होता व्यर्थ, जो दुःख-भाग है
काम ना हो तो सदा शुभ कामना-
साध्य सबसे सात्विक अनुराग है
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मोह होता व्यर्थ, जो दुःख-भाग है
काम ना हो तो सदा शुभ कामना-
साध्य सबसे सात्विक अनुराग है
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रहे निश्चय साथ, अंतिम श्वास तक
पीर की सीमा सुसंयमित हास तक
विरह के पल युगों सम लगते मगर-
मिलन के युग पल हुए परिहास कर
*
विरह के पल युगों सम लगते मगर-
मिलन के युग पल हुए परिहास कर
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नेह तुम्हारा बन गया जीवन का आधार
धन्य हुआ जब कर लिया तुमने अंगीकार
पिसे हिना सम मौन हम रंग चढ़ा है खूब
एक-दूसरे को हुए श्वासों का श्रृंगार
धन्य हुआ जब कर लिया तुमने अंगीकार
पिसे हिना सम मौन हम रंग चढ़ा है खूब
एक-दूसरे को हुए श्वासों का श्रृंगार
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मधु रहे गोपाल बरसा वेणु वादन कर युगों से
हम बधिर सुन ही न पाते, घिरे हैं छलिया ठगों से
हम बधिर सुन ही न पाते, घिरे हैं छलिया ठगों से
कहाँ नटनागर मिलेगा, पूछते रणछोड़ से क्यों?
नित भेजें तो सकें कान्हा तुझे नन्हें डगों से
नित भेजें तो सकें कान्हा तुझे नन्हें डगों से
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ऊँचाइयाँ छूता रहा मन, पैर धरती पर जमा
नभ नापकर गर्वित हुआ, बन मेघ खुद में था रमा
होकर विनीता धरा ने टेरा, बरस रेवा हुआ-
हो 'सलिल' धारा बह चला, पा लक्ष्य सागर चुप थमा
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नभ नापकर गर्वित हुआ, बन मेघ खुद में था रमा
होकर विनीता धरा ने टेरा, बरस रेवा हुआ-
हो 'सलिल' धारा बह चला, पा लक्ष्य सागर चुप थमा
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रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में
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कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में
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जो जैसा है, वह वैसा ही रहे चाहना यह कैसी है?
परिवर्तन बिन हो विकास ही मन्द भावना यह कैसी है?
जब जो चाहें,वह मिल जाए तो फिर श्रम का अर्थ न होगा-
राह न जिसकी उसको चाहें-पाएँ कामना यह कैसी है?
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परिवर्तन बिन हो विकास ही मन्द भावना यह कैसी है?
जब जो चाहें,वह मिल जाए तो फिर श्रम का अर्थ न होगा-
राह न जिसकी उसको चाहें-पाएँ कामना यह कैसी है?
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फूल-फूल पर तितली बैठी, किसी एक की कब हो पाई?
यह जग दोष न उसको देता, भँवरे को कहता हरजाई।
रीत प्रीत की अजब-अनोखी, पाप-पुण्य ना सही-गलत कुछ
'सलिल' सम्हालो अपने मन को, टूटे हो न सके भरपाई।।
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यह जग दोष न उसको देता, भँवरे को कहता हरजाई।
रीत प्रीत की अजब-अनोखी, पाप-पुण्य ना सही-गलत कुछ
'सलिल' सम्हालो अपने मन को, टूटे हो न सके भरपाई।।
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मन न नादां है जिसे समझाएँ कुछ, जानता है सब, मगर अनजान बन।
चाहता है दर्द को आनंद कर, जीत पाये कभी तो इंसान बन।।
और ये दुनिया उसे ही ठग रही, भोग दिखला आप खा जाती 'सलिल'
हाथ जोड़े चाहता तन मौन हो, मन रहे निष्प्राण बस भगवन बन।।
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चाहता है दर्द को आनंद कर, जीत पाये कभी तो इंसान बन।।
और ये दुनिया उसे ही ठग रही, भोग दिखला आप खा जाती 'सलिल'
हाथ जोड़े चाहता तन मौन हो, मन रहे निष्प्राण बस भगवन बन।।
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